Kangana Ranaut ने एक्टर विक्रम गोखले की बात को अंजाम तक पहुंचा ही दिया!
पद्मश्री पुरस्कार विजेता एक्ट्रेस कंगना रनौत (Kangana Ranaut) अपने फिल्म प्रोजेक्ट्स से इतर इन दिनों 'इतिहासकार' की भूमिका निभा रही हैं. 1947 में मिली आजादी को 'भीख' में मिला बताने वाली कंगना रनौत ने अब महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के अहिंसा के मंत्र को कठघरे में खड़ा कर भगत सिंह का समर्थन नहीं करने का आरोप भी लगा दिया है.
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पद्मश्री पुरस्कार विजेता एक्ट्रेस कंगना रनौत (Kangana Ranaut) अपने फिल्म प्रोजेक्ट्स से इतर इन दिनों 'इतिहासकार' की भूमिका निभा रही हैं. 1947 में मिली आजादी को 'भीख' में मिला बताने वाली कंगना रनौत ने अब महात्मा गांधी के अहिंसा के मंत्र को कठघरे में खड़ा कर दिया है. कंगना ने महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को नेताजी सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों का समर्थन नहीं करने वाले से लेकर सत्तालोलुप और चालाक बताने की हिमाकत कर दी है. कहना गलत नहीं होगा कि कंगना रनौत ने वरिष्ठ एक्टर विक्रम गोखले के उस बयान को अंजाम तक पहुंचा दिया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि स्वतंत्रता की लड़ाई में कई स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी दी गई. और, उस समय के बड़े नेता केवल मूकदर्शक बने रहे, स्वतंत्रता सेनानियों को बचाने का प्रयास नहीं किया. क्योंकि, विक्रम गोखले का इशारा कहीं न कहीं भगत सिंह की फांसी की ओर ही था. और, इस बात को लेकर सवाल उठते रहे हैं कि भगत सिंह की फांसी रुकवाने को लेकर महात्मा गांधी ने उचित कोशिश नहीं की.
सवाल उठते रहे हैं कि भगत सिंह की फांसी रुकवाने को लेकर महात्मा गांधी ने उचित कोशिश नहीं की.
गांधी के प्रशंसक या नेताजी के समर्थक?
कंगना रनौत ने एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में दावा किया था कि 1947 में हमें आजादी भीख में मिली और असली आजादी 2014 में (मोदी सरकार के आने पर) मिली थी. कंगना अपने इस बयान पर पूरे देश में लानत-मलानत झेल रही थीं. लेकिन, हिंदी और मराठी के वरिष्ठ अभिनेता विक्रम गोखले (Vikram Gokhale) ने कंगना का समर्थन कर इस विवाद को एक नया ही रुख दे दिया था. कहना गलत नहीं होगा कि स्वतंत्रता सेनानियों को दी गई फांसी पर आजादी की लड़ाई के बड़े नेताओं के मूकदर्शक बने रहने का सवाल उठाते ही विक्रम गोखले ने कंगना रनौत की आगे की रणनीति भी तय कर दी थी. जिस पर अमल करते हुए कंगना ने एक अखबार में छपी खबर को अपने इंस्टाग्राम पर शेयर किया है, जिसकी हेडलाइन 'गांधी और अन्य नेताजी को सौंपने के लिए सहमत हुए थे.'
कंगना रनौत ने खड़ा किया सवाल- गांधी के प्रशंसक या नेताजी के समर्थक?
इस खबर में दावा किया गया है कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना और मौलाना आजाद ने एक ब्रिटिश न्यायाधीश से समझौता किया था कि अगर नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश वापस लौटते हैं, तो उन्हें British Government को सौंपा जाएगा और उन पर केस चलेगा. कंगना रनौत ने खबर के सहारे सवाल खड़ा किया है कि 'या तो आप गांधी के प्रशंसक हैं या नेताजी के समर्थक हैं. आप दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं…चुनो और फैसला करो.'
कंगना रनौत ने महात्मा गांधी को सत्तालोलुप और चालाक बता दिया.
कंगना रनौत अपनी भूमिकाओं को लेकर गंभीर रहती हैं, तो उनकी इस आदत का असर इस नई इतिहासकार वाली भूमिका में भी नजर आ रहा है. कंगना ने सिलसिलेवार पोस्ट किए गए. उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने आजादी के लिए लड़ाई लड़ी, उन्हें इन लोगों ने अपने आकाओं को सौंप दिया. जिनके पास अपने उत्पीड़कों (oppressors) से लड़ने के लिए खून खौलाने वाला साहस नहीं था, लेकिन वो सत्ता के भूखे और चालाक थे. कंगना रनौत ने महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचार पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए लिखा कि ये वही लोग थे, जिन्होंने हमें सिखाया कि अगर कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा गाल आगे कर दो और ऐसे तुम्हें आजादी मिलेगा. ऐसा करने से आजादी नहीं केवल भीख मिलती है. अपने नायकों को बुद्धिमानी से चुनिए.
कंगना ने दावा किया कि महात्मा गांधी ने कभी भगत सिंह और नेताजी का समर्थन नहीं किया.
कंगना ने महात्मा गांधी पर फोकस बनाए रखते ये दावा भी कर दिया कि गांधी ने कभी भगत सिंह और नेताजी का समर्थन नहीं किया. इतना ही नहीं, कंगना ने कहा कि इस बात के सबूत हैं कि गांधी चाहते थे कि भगत सिंह को फांसी दी जाए. लोगों को अपना इतिहास और अपने नायकों के बारे में जानना जरूरी है. इन सभी लोगों को अपनी याद के एक खांचे में रखकर हर साल जन्मदिन की बधाई देना काफी नहीं है. यह केवल मूर्खता ही नहीं है, बल्कि पूरी तरह से गैर-जिम्मेदार और सतही है.
भगत सिंह की फांसी और गांधी के पत्र
महात्मा गांधी ने 18 फरवरी को वायसराय लॉर्ड इरविन से भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा को खत्म करने की मांग की थी. महात्मा गांधी ने भगत सिंह की फांसी को लेकर यंग इंडिया (Young India) में लिखा था कि वायसराय लॉर्ड इरविन ने सजा को खत्म करना मुश्किल बताया है. लेकिन, सजा को टालने के लिए तैयार हो गए हैं. वैसे, भगत सिंह को 24 मार्च को दी जाने वाली फांसी की सजा एक दिन पहले ही दे दी गई थी. महात्मा गांधी ने 19 मार्च, 21 मार्च, 22 मार्च और 23 मार्च को वायसराय इरविन को भगत सिंह की फांसी को टालने के लिए पत्र लिखकर याचना की थी. जिन्हें इरविन की ओर से स्वीकार नहीं किया गया. इस दौरान महात्मा गांधी ने सेंट्रल असेंबली बम धमाके में भगत सिंह के वकील रहे आसफ अली को उनसे मिलने जेल भेजा था. लेकिन, भगत सिंह ने आसफ अली से मिलने से इनकार कर दिया. क्योंकि, सजा माफ करवाने के लिए हिंसा छोड़ने की शर्त पर तैयार नहीं थे. कहना गलत नहीं होगा कि भगत सिंह माफी मांगकर जेल से छूटना नहीं चाहते थे.
गांधी अड़ जाते, तो क्या रुक जाती भगत सिंह की फांसी?
भगत सिंह की फांसी को रोकने और टालने के लिए महात्मा गांधी लगातार वायसराय इरविन से बात कर रहे थे. लेकिन, इस मामले में सबसे बड़ा पेंच था 5 मार्च 1931 को हुआ गांधी-इरविन समझौता. जिसमें शर्त रखी गई थी कि हिंसा के आरोपियों के अतिरिक्त सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया जाएगा. और, इस समझौते से पहले महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में लिखा था कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी भी मुझसे सहमत थी. हम समझौते के लिए इस बात की शर्त नहीं रख सकते थे कि अंग्रेजी हुकूमत भगत, राजगुरु और सुखदेव की सजा कम करे. मैं वायसराय के साथ अलग से इस पर बात कर सकता था. आसान शब्दों में कहा जाए, तो गांधी-इरविन समझौते के बाद महात्मा गांधी की ओर से लिखे गए पत्रों का कोई औचित्य नहीं था. क्योंकि, ब्रिटिश सरकार किसी भी हाल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को छोड़कर लोगों में क्रांति की आग को भड़कने नहीं देना चाहती थी. तीनों क्रांतिकारियों को फांसी के साथ ही विरोध की आग को पूरी तरह से दबा दिया गया.
वैसे, आजादी के बाद क्रांतिकारियों के साथ होने वाले सलूक को जानना है, तो बटुकेश्वर दत्त (Batukeshwar Dutt) के बारे में जरूर खोजबीन करनी चाहिए. सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के मामले में भगत सिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त को भी आजीवन कारावास की सजा हुई थी. भगत सिंह को फांसी दिए जाने के बाद बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की जेल भेज दिया गया था. देश के आजाद होने के बाद वो जीविका के लिए एक सिगरेट फैक्ट्री में नौकरी करते थे. पटना में बस के परमिट के लिए कमिश्नर से मिलने पर उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र मांगा गया. 1964 में कैंसर की वजह से गंभीर रूप से बीमार हुए बटुकेश्वर दत्त का दिल्ली के एम्स में 20 जुलाई, 1965 को निधन हुआ था.
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