श्रीनिवास के कत्ल में बराबर के हिस्सेदार हैं 'लिबरल्स'
नया 'वर्ल्ड-ऑर्डर' क्या है? वास्तव में वह बहुत ही 'डेस्परेट' है. वह संरक्षणवादी प्रवृत्तियों से ग्रस्त है. जातीय अस्मिता की ओर लौट रहा है और वैश्वीकरण का फुग्गा फूट रहा है.
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अमरीका के कन्सास में श्रीनिवास नामक एक तेलुगु भारतीय को नाहक़ ही 'हेट क्राइम' के चलते मार दिया गया. हमलावर ने उसको मारने से पहले ज़ोर से चिल्लाकर कहा : 'तुम लोग मेरे देश से चले जाओ.' यह ज़ेनोफ़ोबिया का क्लासिक केस ज़रूर है, लेकिन 'मेरे देश से चले जाओ' का यह स्वर अलग-अलग रूपों में आज पूरी दुनिया में गूंज रहा है. श्रीनिवास की पत्नी सुनयना ने पति की हत्या के बाद एक प्रेसवार्ता में कुछ बहुत ही मार्मिक बातें कही हैं, जिन्हें सुना जाना चाहिए. अविश्वास की खाई इससे बड़ी मनुष्यता के इतिहास में कभी नहीं थी, दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भी नहीं. 'प्रोटेक्शनिज़्म', 'रेसिज़्म', 'पैरेनोइया' और 'ज़ेनोफ़ोबिया' आज के वर्ल्ड ऑर्डर की सबसे बड़ी सच्चाइयां बन चुकी हैं. 'लिबरल्स' अपने 'कैंडल मार्च' से इस अंधियारे को दूर नहीं धकेल पाएंगे, पूरी दुनिया में इसके प्रसार में उनकी केंद्रीय भूमिका रही है.
नया 'वर्ल्ड-ऑर्डर' क्या है! वास्तव में वह बहुत ही 'डेस्परेट' है. वह संरक्षणवादी प्रवृत्तियों से ग्रस्त है. जातीय अस्मिता की ओर लौट रहा है और वैश्वीकरण का फुगावा फूट रहा है. उदारवादी लफ़्फ़ाजियां ताक पर रखी जाने लगी हैं और निजी हितों का बोलबाला है. यहां तक कि पूंजीवाद भी अब असंदिग्ध़ नहीं रह गया है. लोकतंत्र में भरोसा अब भी क़ायम है, लेकिन उसका इस्तेमाल लोकतांत्रिकताओं को चुनौती देने वालों को चुनने के लिए किया जा रहा है और पूरी दुनिया में एकसाथ दक्षिणपंथ का उभार लक्ष्य किया जा सकता है.
जवाब दे सरकार...
अमरीका में डॉनल्ड ट्रम्प मैक्सिको की सीमा पर दीवार बनाना चाहते हैं और मुस्लिमों को प्रवेश नहीं देना चाहते. आज से दस साल पहले ये आदमी यूनाइटेड स्टेनट्स में गवर्नर या सेनेटर का चुनाव भी नहीं लड़ सकता था, आज वह प्रेसिडेंट है. और वह भी एक 'प्रोग्रेसिव लिबरल' बराक ओबामा द्वारा आठ साल राज करने के बाद. फ्रांस में उग्र राष्ट्रवादी मरीन ली पेन ताक़त के साथ उभर रही हैं और आश्चर्य नहीं कि अगले चुनाव में वे वहां पर सत्ता के केंद्र में हों. आलम यह है कि फ्रांस्वा ओलांद और निकोलस सरकोज़ी जैसे धुर विरोधी भी मरीन के नेशनल फ्रंट से बचने के लिए एक जाजम पर आ गए हैं.
जर्मनी तो हमेशा से ही Prone to Fascism रहा है. 1989 में जब बर्लिन की दीवार ढही थी, तभी विलियम शिरेर ने आगाह करते हुए कह दिया था कि दुनिया का हित इसी में है कि जर्मनी कमज़ोर बना रहे. आज जर्मनी यूरोपियन यूनियन में दादागिरी कर रहा है और वहां की रिजीम की शरणार्थी नीति के विरोध में दक्षिणपंथी ताक़तें उभार पर हैं. स्वीडन में नियो-नात्सी डेमोक्रेट्स ताक़तवर हो रहे हैं. भारत में हिंदू राष्ट्रवादी निर्वाचित और लोकप्रिय हैं और मुस्लिमों के प्रति संदेह की अंतर्धारा भारत में हमेशा प्रवाहित होती रही है. शरणार्थियों को शरण देने ना देने के मुद्दे पर यूरोप बंटा हुआ है और ब्रिटेन में इसी पर रेफ़रेंडम हुआ, जिसे 'Brexit' कहा गया. यूरोपियन देशों में व्याप्त भय और संशय को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता. वह नितांत स्वाभाविक है.
उदारवादियों का कहना है कि यूरोपियन देश मानवता का परिचय दें, लेंकिन मौजूदा हालात में ऐसा जोखिम कौन उठाएगा, ख़ासतौर पर तब, जब एक किस्म के ज़ेनोफ़ोबिया के चलते पूरी दुनिया में दूसरे देश के लोगों, दूसरी नस्लों , दूसरे समुदायों को अविश्वा स से देखने की प्रवृत्ति पनप रही है. कितने लिबरल्स ख़ुद अपने घर में बिना जांच-पड़ताल किए किसी को प्रवेश करने देते हैं. जिनके घर किले बने हुए हैं, वे दुनिया को खुली पंचायत बनाने पर आमादा हैं.
सच्चाई तो यही है कि हम धीरे-धीरे अलगाव, संरक्षणवाद और जातीय आग्रहों के क़बीलाई दौर की ओर लौट रहे हैं. भूमंडलीकरण की उदारवादी लफ़्फ़ाजियां सतही साबित हुई हैं. दुनिया एक ग्लोबल विलेज नहीं अनेक विलेजेस का संकलन बनने जा रही है. और मानें या ना मानें लेकिन यह मनुष्य. की बुनियादी प्रवृत्ति के अनुरूप ही है. संकट के समय में हर मनुष्या पहले अपने घर को सुरक्षित कर लेना चाहता है, पड़ोस की उसे परवाह होती नहीं. 'Beggar thy neighbour' करके तो एक इकोनॉमिक थ्योरी ही है, जो कहती है कि पड़ोसी को भिखमंगा बनाकर भी अगर आगे बढ़ सकते हो तो बढ़ जाओ. सभी मुल्कि ग्लोबल वॉर्मिंग के टाइम बम को टिक-टिक करता देख-सुन रहे हैं लेकिन कोई भी अपने हितों को छोड़ना नहीं चाहता.
यह क़बीलाई टेंडेंसी मनुष्य के अवचेतन में पैठी हुई है, हर हाल में सर्वाइवल की फ़ौरी अदूरदर्शी चेतना, जो एक सीमा के बाद आगे देख नहीं सकती और देखकर भी नज़रअंदाज करती रहती है. आने वाला वक़्त टकरावों का रहने वाला है और हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए. आगामी संघर्ष सीधे तौर पर राष्ट्रों के बीच नहीं, बल्कि अपनी मज़बूत सरहदें बनाने वाले मुल्कों के नागरिकों और उन सरहदों को येन-केन-प्रकारेण लांघ सकने वाले शरणार्थियों-प्रवासियों-विस्थापितों के बीच होने वाले हैं.
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