एक महीने में एक ही अस्पताल से 91 नवजात बच्चों की लाशें बाहर आना महज 'आंकड़ा' नहीं!
राजस्थान के Kota में 91 नवजातों की मौत और उन मौतों पर मुख्यमंत्री Ashok Gehlot के अलावा अस्पताल के बेशर्मी भरे तर्क ये बताने के लिए काफी है कि गरीब और उसके बच्चों की किसी को परवाह नहीं है. इन्हें एक न एक दिन मरना है ही है तो क्यों न फिर ये अस्पताल में ही मर जाएं
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राजस्थान और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Rajasthan CM Ashok gehlot over infants death in Kota ) चर्चा में हैं कारण है कोटा के जे.के. लोन मातृ एवं शिशु चिकित्सालय एवं न्यू मेडिकल कॉलेज में बच्चों की मौत (Infants death in Kota). मामला तूल पकड़ने के बाद सरकार हरकत में आई है और अस्पताल के सुपरिटेंडेंट को हटा दिया है साथ भी हाई लेवल जांच के आदेश दे दिए गए हैं. बात अगर संख्या की हो तो पिछले 5 दिनों को मिलाकर अब तक 91 और साल में कुल 940 बच्चे काल के ग्रास में समा चुके हैं. एक ऐसे समय में जब भारत को विश्व गुरु बनाने की बातें अपने चरम पर हो. बहस का मुद्दा इंडिया का न्यू इंडिया बनना हो. सवाल है कि बच्चों की मौत के बाद आखिर क्यों गहलोत सरकार की कान पर जूं तक न रेंगी? क्यों इन मौतों की अनदेखी हुई? मासूम बच्चों की मौत को एक गंभीर मामला मानते हुए इसपर कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? कहीं ऐसा तो नहीं कि यूपी से लेकर राजस्थान तक इस देश की अलग अलग सरकारें इस बात को पहले ही मान चुकी हैं कि ये गरीब के बच्चे हैं. इन बच्चों का मर जाना ही बेहतर है.
कोटा में एक तरफ बच्चे मरते रहे सवाल है कि आखिर क्यों नहीं अस्पताल और सरकार ने उनकी सुध ली
बात बच्चों की मौत की हुई है तो बयानों का दौर शुरू हो गया है. आंकड़े का खेल जारी है. बच्चे क्यों मर रहे हैं इसपर जब अस्पताल के सुपरिटेंडेंट से पूछा गया तो उन्होंने अजीब ओ गरीब तर्क देकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की. तब अस्पताल के सुपरिटेंडेंट डॉक्टर एच एल मीणा ने बताया था कि जांच के बाद हमने पाया है कि सभी 10 मौतें सामान्य हैं और इसमें कोई लापरवाही नहीं हुई है. सुपरिटेंडेंट के अनुसार उनके पास ज्यादातर मरीज कोटा, बूंदी, झालावाड़ और बरन जिलों से आते हैं और जिस वक़्त वो अस्पताल लाए जाते हैं उनकी तबियत बहुत ज्यादा बिगड़ी होती है. डॉक्टर के इस बयान को पढ़िये. इसे बार बार पढ़िये और फिर पूछिये उन माताओं से उन पिताओं से शायद वो यही कहें कि विकास के दावे झूठे हैं. इंडिया को न्यू इंडिया बनाने वाली बातें खोखली हैं.
देश में स्वास्थ्य जैसी गंभीर चीज को कैसे सिरे से खारिज किया जाता है इसे अस्पताल के रिकार्ड्स से भी समझ सकते हैं. रिकार्ड्स कहते हैं कि अस्पताल में 2014 में 1198 बच्चों ने दम तोड़ा. जबकि दिसंबर 30 तक सिर्फ 940 मौतें हुई हैं. बच्चों के मरने पर जेके लोन अस्पताल के पीडियाट्रिक्स प्रमुख डॉ एएल बैरवा के तर्क भी खासे दिलचस्प हैं. उन्होंने राष्ट्रीय एनआईसीयू रिकॉर्ड का हवाला देते हुए कहा है कि रिकॉर्ड के अनुसार 20% शिशु मृत्यु स्वीकार्य हैं. वहीं कोटा में मृत्यु दर का हवाला देते हुए उन्होंने कहा है कि यहां 'केवल' 10 से 15 प्रतिशत बच्चों की मौत हुई.
डॉ एएल बैरवा के अनुसार ये चिंता का विषय इसलिए भी नहीं है क्योंकि जिस वक़्त बच्चों को यहां लाया गया वो 'क्रिटिकल कंडीशन' में थे. सवाल ये है कि अगर बच्चे 'क्रिटिकल कंडीशन' में अस्पताल लाए जाते हैं तो क्या उन्हें जीने का अधिकार नहीं है. या फिर यहां भी उत्तर प्रदेश वाली उसी थ्योरी को अमली जामा पहनाया जा रहा है जिसमें कहा गया था कि अगस्त में बच्चे मरते हैं.
मामला मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर चर्चा में है. सूबे के मुखिया की आलोचना होना स्वाभाविक है. मामले प्रकाश में आने के बाद खुद को घिरता देखा सीएम अशोक गहलोत ये कहते नजर आ रहे हैं कि मामले पर विपक्ष राजनीति कर रहा है. अशोक गहलोत के अनुसार पिछले छह सालों में इस तरह से जान जाने के मामलों में कमी आई है. ध्यान रहे कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल किसी से छुपा नहीं है.
प्रश्न ये है कि आखिर मुख्यमंत्री क्यों नहीं इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि देश में प्राथमिक स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बहुत कमज़ोर है और यही बच्चों की अकाल मौत का कारण है. कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके इतना भर स्वीकार कर देने से तमाम अलग अलग दावों की पोल खुल जाएगी ? जनता को उनकी असलियत का पता चल जाएगा. बात इलाज के आभाव में मासूम बच्चों की मौत से जुड़ी है तो बताते चलें कि 2019 में भारत में शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 जीवित जन्मों में 30.924 है जो अपने आप में एक बड़ी संख्या है और जिसे नकारा तो हरगिज नहीं जा सकता.
बात एकदम सीधी और स्पष्ट है. ख़राब स्वास्थ्य सेवाओं के चलते चाहे देश में एक बच्चा मरे या फिर एक सौ- एक हजार बच्चे. तंत्र को पहली ही मौत से सचेत हो जाना चाहिए और ऐसे प्रबंध करने चाहिए जिससे उस एक जान को बचाया जा सके. सरकार भले ही ये कहकर अपनी पीठ थपथपा ले कि बच्चों की मौतों की संख्या में कमी आई है मगर उसे जरूर उस परिवार से मिलना चाहिए जिसने उस एक मौत के रूप में अपना सब कुछ खो दिया.
अपनी बात को विराम देते हुए हम अंत में बस इतना ही कहेंगे कि बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देश में रहने वालों का बुनियादी हक है और मुद्दा ये नहीं है कि पिछली सरकारों ने क्या किया? सवाल उससे पूछा जाएगा जो अभी गद्दी पर बैठा है और चूंकि अभी राजस्थान की गद्दी पर अशोक गहलोत हैं तो वो बताएं कि आखिर वो दिन कब आएगा जब इन मौतों पर अंकुश लगेगा ? यदि गहलोत इस सवाल का जवाब देने में असमर्थ हैं तो न तो उन्हें गद्दी पर बैठने का हक हैं न ही उन्हें ये अधिकार है कि वो विकास की बातें करें उसपर खोखली और झूठी दलीलें दें.
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