लालू बनारस तो पहुंचे लेकिन बुझी लालटेन के साथ !
क्या पिंडरा में लालू प्रसाद यादव के पास कहने को कुछ नहीं था, इसलिए वो मोदी को बोलते बोलते बहक गये? या उनके पास इस बात का कोई तर्क नहीं था कि बनारस पहुंचने में उन्हें डेढ़ साल क्यों लग गये?
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नीतीश कुमार के आठ महीने बाद लालू प्रसाद यादव ने भी बनारस का रुख किया तो पिंडरा ही पड़ाव बना. खास बात ये है कि पिंडरा है तो बनारस जिले में लेकिन वाराणसी लोक सभा सीट का हिस्सा नहीं है. पिंडरा असल में मछली शहर लोक सभा में पड़ता है.
नीतीश के पिंडरा जाने की वजह ये रही कि वहां उनकी कुर्मी जाति की बहुलता है - जहां कभी उन्हीं की बिरादरी के ऊदल नौ बार विधायक रहे. पिंडरा में लालू प्रसाद कांग्रेस उम्मीदवार अजय राय के लिए वोट मांगने पहुंचे थे - जो बिहार में होते तो शायद ही लालू कभी ऐसा करते.
पिंडरा में लालू
बिहार चुनाव में आरजेडी उम्मीदवारों की सूची में कोई भूमिहार उम्मीदवार ठीक वैसे ही नहीं था, जैसे यूपी में बीजेपी ने किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया है. जो लोग बिहार की राजनीति को जानते हैं उन्हें लालू का ये पूर्वाग्रह अच्छी तरह मालूम है.
फिर भी लालू प्रसाद अजय राय के इलाके में वोट मांगने पहुंचे - और बीजेपी, आरएसएस, अमित शाह को जी भर कर कोसा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए तो उन्होंने अपशब्द तक कह डाले.
यूपी में लालू...
क्या पिंडरा में लालू के पास कहने को कुछ नहीं था? क्या उनके पास इस बात का कोई तर्क नहीं था कि बनारस पहुंचने में उन्हें डेढ़ साल क्यों लग गये?
बिहार चुनाव में जीत के जश्न के बीच ही लालू ने कहा था, ''नीतीश जी बिहार संभालें, मैं अब लालटेन लेकर सबसे पहले बनारस जाऊंगा.''
लालू ने कहा था कि वो पूरे देश में घूम घूम कर मोदी खिलाफ अलग जगाएंगे और उनकी पोल खोलेंगे. लालू से पहले मई 2016 में ही नीतीश कुमार पिंडरा पहुंचे और जोरदार नारा दिया - "शराबमुक्त समाज और संघ मुक्त."
नीतीश की ये बात आरजेडी नेताओं से बर्दाश्त नहीं हो पाई और रघुवंश प्रसाद जैसे सीनियर नेताओं ने नीतीश को जीभर कर कोसा. जाहिर है रघुवंश ने वही बयान दिया होगा जिसके संकेत लालू ने उन्हें दिये होंगे.
लालू ने जो कुछ कहा वो बिलकुल वैसे ही था जैसी बातें बिहार चुनाव के वक्त सुनने को मिलती थीं. शायद इसकी वजह प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के अखिलेश यादव, राहुल गांधी और मायावती पर हाल के निजी हमले हैं. या इसकी और भी कोई वजह थी, क्योंकि लालू के ऑडिएंस में न तो यादव वोटर था, न मुस्लिम.
बड़ा सवाल ये है कि लालू को अजय राय के लिए चुनाव प्रचार करने क्यों जाना पड़ा? क्या इसलिए कि वो कांग्रेस कोटे से समाजवादी गठबंधन के उम्मीदवार हैं? या इसलिए कि अजय राय के लिए चुनाव प्रचार से अखिलेश यादव को कोई परहेज है?
नीतीश के बाद, राहुल से पहले
लालू के ठीक दो दिन बाद राहुल गांधी पिंडरा पहुंचने वाले हैं - और उसके दो दिन बाद अखिलेश यादव भी बनारस पहुंचने वाले हैं. राहुल गांधी 2 मार्च तो अखिलेश यादव 4 मार्च को वाराणसी पहुंच रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि वाराणसी के सांसद और प्रधानमंत्री मोदी भी उस दिन शहर में होंगे. सूबे के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री का एक ही दिन वाराणसी में होना शायद उतना खास नहीं है जितना अहम अखिलेश यादव और राहुल गांधी के रोड का इंतजार है.
शहर की सियासी हवाओं के झोंके को समझने की कोशिश करें तो अब तक बनारस में ये साथ पसंद न होने की वजह भी अजय राय पर ही आकर टिक जाती है. ये वही अजय राय हैं जो 2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से मोदी को चैलेंज कर चुके हैं - और सोनिया गांधी के उस रोड शो के मुख्य आयोजकों में रहे जब सेहत खराब हो जाने की वजह से उन्हें दिल्ली लौटना पड़ा.
कांग्रेस को सेट करने की कवायत तो नहीं?
असल में अजय राय भी उसी बैकग्राउंड से आते हैं जिससे अखिलेश यादव लगातार पहरेज करते नजर आते हैं. उन पर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट के तहत एक बार कार्रवाई तो हो ही चुकी है - शहर में प्रतिमा विसर्जन के दौरान हिंसा फैलाने के मामले में भी उन पर आरोप है.
यूपी में लालू
लालू यूपी की राजनीति में तब सक्रिय हुए हैं जब नीतीश कुमार वहां चुनावी राजनीति से पूरी तरह तौबा कर चुके हैं. नीतीश के यूपी छोड़ने के फैसले को बीजेपी के लिए फायदा पहुंचाने वाला माना गया - और नोटबंदी पर मोदी सरकार के सपोर्ट से लेकर पटना में कमल के फूल में रंग भरने के साथ साथ सुशील मोदी के साथ चूड़ा-दही खाने को भी बीजेपी से नजदीकियों से जोड़ कर देखा गया.
फिलहाल लालू के घर और पार्टी में तेजस्वी को चीफ मिनिस्टर बनाने की मुहिम चल रही है. महागठबंधन में और नीतीश वैसे ही हैं जैसे संयुक्त राष्ट्र में रूस और अमेरिका. लेकिन यहां कोई वीटो तो नहीं लगाता - हां, इतना जरूर कहा जाता है कि फिलहाल बिहार में मुख्यमंत्री पद पर वैकेंसी नहीं है. लालू के यूपी में चुनाव प्रचार के लिए जाने की बिहार में खूब चर्चा थी, लेकिन पहली बार वो सिर्फ बुलंदशहर जा सके - वो भी अपने दामाद के प्रचार के लिए और चुनाव का पहला चरण बीत जाने के बाद. कहीं ऐसा तो नहीं कि लालटेन लेकर निकलने में लालू ने इतनी देर कर दी कि उसकी रोशनी कम होने लगी है - और कुछ हद तक बुझी सी लग रही है.
लालू समाजवादी गठबंधन के लिए चुनाव प्रचार तो कर रहे हैं, लेकिन देखा जाये तो उनमें ज्यादातर कांग्रेस कोटे के ही हैं. अजय राय से ठीक पहले उन्होंने ललितेशपति त्रिपाठी के लिए मणिहान में रैली की थी जो कांग्रेस के प्रत्याशी हैं और कमलापति त्रिपाठी के परिवार के हैं.
आगे जो भी तैयारी और रणनीति हो, लेकिन लालू की बनारस या फिर यूपी में तब एंट्री हो पाई है जब मुलायम सिंह यादव का मार्गदर्शन भी महज इटावा तक सीमित रह गया है. अखिलेश के राज में लालू यादव को कितनी भी तवज्जों क्यों न मिल जाये - तासीर तो ठंडी ही रहेगी.
क्या लालू प्रसाद किसी तरह कांग्रेस में नीतीश से ज्यादा नजदीक होने की कोशिश कर रहे हैं? क्या ऐसा इसलिए कि बिहार में कोई उलटफेर होने की हालत में कांग्रेस अगर साथ न रहे तो कम से कम उनके खिलाफ न जाये?
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