'सेटिंग' से चलता सोशल जस्टिस का खेल !
सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का ढोंग करने वाले सियासी मसीहों ने अपने समाज के लिए क्या किया, सिवाय उन्हें अपना वोट बैंक बनाकर अपने हित साधने के.
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आज़ादी का जश्न मनाते-मनाते देश 70वें जश्न की दहलीज़ पर आ गया. इतने वर्षों में देश ने आर्थिक और राजनीतिक तौर पर तो तरक्की की, सामाजिक स्तर पर लोकतंत्र अब भी हांफ रहा है. उसने कभी गति नहीं पकड़ी टुकड़ों-टुकड़ों में कभी-कभी सामाजिक न्याय के नाम पर आवाजें उठी भीं लेकिन वो व्यक्तिगत हितों से आगे नहीं बढ़ सकीं. हां उन आवाज़ों ने लंबे वक्त तक जातिवाद और समाजवाद की लड़ाई के नाम पर सिर्फ हौव्वा खड़ा किया, खाई को और चौड़ा किया, वैमनस्यता को और बढ़ाया, क्योंकि उन्हें मालूम है कि इसकी आड़ में वो जब भी सामाजिक न्याय की हुंकार भरने का तमाशा करेंगे, भीड़ इकट्टठी होगी, तालियां बजेंगी, लट्ठ खटकेंगे और ऐसा जब तक होता रहेगा तब तक सूती धोती पहने वो घी पीते रहेंगे, भ्रष्टाचार की नींव पर परिवारवाद की बुलंद इमारत मजबूती से खड़ी होती रहेगी. अगर सामाजिक न्याय की लड़ाई और उसकी अब तक की परिणति की समीक्षा की जाए तो धोखे का इतिहास मिलता है और उसके नेपथ्य में व्यक्तिगत 'सेटिंग' की गंदी तस्वीर. मुलायम सिंह का समाजवाद, लालू प्रसाद यादव की सामाजिक न्याय का दावा और मायावती का दलित प्रेम इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.
ये बात समर्थकों को कड़वी लगेगी और आलोचकों को गुदगुदाएगी लेकिन इस स्थिति के दोषी दोनों ही हैं. क्योंकि दोनों ही तरफ सिर्फ लाभ उठाने की मंशा रही, जिस समाज को सचमुच उत्थान की जरूरत थी और है वो आज भी वहीं खड़ा है जहां आज़ादी से पहले खड़ा था. उसकी स्थिति में कोई बहुत बदलाव नहीं आया. हां उनके तथाकथित नायकों ने उनके नाम पर अपनी 70 पुश्तों की तरक्की का इंतज़ाम जरूर कर लिया.
दरअसल देश जब अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था और सचमुच सामूहिक रूप से जाति-समाज के बंधनों से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था तब मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती जैसे नेताओं का भारतीय राजनीति में उदय हुआ और वो दबे-कुचले समाज के ज़ख्मों को सहलाकर मसीहा बन गए. असली कहानी इसके बाद शुरु होती है जिसे समझने के लिए वर्तमान को देखना होगा.
हाल ही में आयकर विभाग ने लालू प्रसाद यादव के परिवार की 170 करोड़ से ज़्यादा की संपत्ति जब्त की है जिसमें उनकी बेटी, बेटे और पत्नी के नाम पर दिल्ली से लेकर बिहार तक करोड़ों के फ्लैट्स और बेनामी संपत्ति है. ये अभी शुरुआत है. लेकिन उन्हें मालूम है कि वक्त आने पर वो इसे साजिश करार दे सकने में कामयाब हो जाएंगे. क्योंकि उन्हें मालूम है कि सामाजिक न्याय के नाम पर जो अफीम वो पिला चुके हैं उसकी बेहोशी दशकों तक नहीं टूटने वाली.
ये इस देश का दुर्भाग्य है कि एक सज़ायाफ्ता मुजरिम जो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद सदस्यता गंवाने वाला पहला व्यक्ति है वो सीना ठोंक कर गरीबी उन्मूलन और जातिवाद की लड़ाई भरने का दंभ भरता रहता है, चुनावों में प्रचार करता है, लेकिन कोई संवैधानिक संस्था इस बात पर आवाज़ नहीं उठाती कि एक मुजरिम स्वस्थ लोकतंत्र को किस तरह बढ़ावा दे सकेगा ? क्या वो पर्दा डालने के लिए किसी भी हद तक जाकर अपने पक्ष की सरकार बनाने के दबाव नहीं बनाएगा. लेकिन सब खामोश रहे. हत्या और दंगे भड़काने वाले लोगों से उसके रिश्ते उजागर होने पर भी वो लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी मीडिया को खुले आम धमकी देता फिरता है. वो खुलकर विकास की राजनीति को पागलपन करार देकर जातिवाद का लट्ठ गाड़ता है. देश का दुर्भाग्य ये भी है कि उसके अपराधी रक्त चरित्र के सामने सुशासन घुटने टेकर सत्ता चलाने को मजबूर हो जाता है. और जिस राज्य में चिकित्साव्यवस्था की हालत बद से बदतर हो वहां वो अपने घर में डॉक्टर्स की फौज से अपना व्यक्तिगत इलाज कराता रहता है, क्योंकि उसने अपने बाद अपनी पौध की भी राजनीतिक 'सेटिंग' कर ली है. जब बेटा स्वास्थयमंत्री हो तो विभाग तो पैर की जूती होगा ही.
लेकिन सामाजिक न्याय के नाम पर नफरत की अफीम चाटे झूमते वर्ग को ये न दिखता है न वो देखना चाहता है, और चालाक सियासी चरित्र पर्दे के पीछे परिवार की 'सेटिंग' करने में कामयाब होता रहता है. क्योंकि उसे ये भी पता है कि जब वो रसोई में बैठी बीबी के बेलन से सबको हांक सकता है तो कुछ भी कर सकता है. लेकिन दोषी सिर्फ वो नहीं नशे में झूमता वो वर्ग भी है जिसे अपनी गरीबी और बदहाली नहीं दिखती, वो अपने नेता की दिनों दिन ऊंची होती मीनारों को देख देखकर ही सामाजिक न्याय कि इतिश्री मान लेता है.
मुझे आजतक वो करिश्मा नहीं समझ आया जिसने दलित और पिछड़े वर्ग की देवी मायावती के भाई आनंद कुमार की संपत्ति को कुछ सालों में ही हज़ार गुना बढ़ा दिया. प्राप्त जानकारी के मुताबिक 2007 में मायावती के भाई की संपत्ति 7.5 करोड़ रुपए थी, 2014 तक वो संपत्ति 1 हज़ार 316 करोड़ से भी ज़्यादा हो गई. ज़रा सोचिए उन्होनें सार्वजनिक तौर पर खुद को देवी की तरह प्रस्तुत किया. अपने जीते-जी अपनी मूर्तियां बनवाईं. भारत रत्न भीमराव अंबेडकर के हाथों में लगी संविधान की किताब कब उनके तथाकथित अनुयायियों के हाथों का बटुआ बन गई किसी ने सोचा ही नहीं.
मुलायम सिंह यादव का तो परिवार ही समाजवाद की परिभाषा बन गया. सत्ता में उनके रहते या उनके बेटे के रहते उनके परिवार में लाल बत्ती बच्चों का खिलौना बन गई. मुलायम सिंह भी लोहिया के समाजवाद का नारा लगाते हुए सत्ता में आए थे और उन्होनें सबसे पहला काम उन सभी सामाजिक मूल्यों को तिलांजलि देने का काम ही किया. जब जब उनके समाजवाद की सरकारें आईं, जातिवाद इतना उग्र हुआ कि सांप्रदायिकता ने भी उसमें अपनी जड़ें पसारने की ज़मीन तलाश ली. ज़मीनों पर अवैध कब्ज़े, अवैध खनन और दंगों के दागों ने उत्तर प्रदेश को दागी कर दिया.
ज़रा सोचिए सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का ढोंग करने वाले इन तथाकथित मसीहों ने अपने समाज के लिए क्या किया, सिवाय उन्हें अपना वोट बैंक बनाकर अपने हित साधने के. सिवा नफरतों की खाई को और चौड़ा करने के. इनके घर भरते रहे लेकिन क्या किसी गरीब का पेट भरा, क्या किसी पिछड़े गरीब को इनकी वजह से सम्मान मिला. क्या सचमुच स्थिति में कोई बदलाव आया. मेरा जवाब है नहीं.
हालांकि कुछ कुछ बदलाव आना शुरु हुआ है लेकिन उसमें इनकी मसीहाई का कोई रोल नहीं वो प्राकृतिक बदलाव है तो निरंतर चलते रहने पर किसी भी समाज में आता है. लेकिन ये छोटे छोटे बदलाव ही इनकी छटपटाहट हैं क्योंकि इन्हें मालूम है जिस दिन सब बदल गया उस दिन इनकी व्यक्तिगत 'सेटिंग' भी बिगड़ जाएगी.
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