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Updated: 03 नवम्बर, 2016 07:35 PM
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समाजवादी रथ के दस पहिये महज एक किलोमीटर तक चल पाये और थक गये. अच्छी बात यही रही कि वे लोहिया पथ पर पहुंच चुके थे. इसलिए अखिलेश यादव इसे अपनी रथयात्रा के लिए शुभ शुरुआत समझ सकते हैं.

अपनी अपनी उपलब्धियां

सत्ताधारी समाजवादी पार्टी और पारंपरिक दावेदार बीएसपी के दरम्यान बीजेपी के खड़े हो जाने से यूपी में मुकाबला त्रिकोणीय हो चुका है. कोई अलग मोर्चा और खड़ा हुआ तो थोड़ी देर के लिए चतुष्कोणीय जैसी गफलत भी पाली जा सकती है. वैसे बेहतर होगा चौथे पक्ष को वोटकटवा ही समझा जाये. बहुत पहले टीवी पर अमिताभ बच्चन कहते देखे जाते रहे - यूपी में दम है क्योंकि जुर्म यहां कम है. ये समाजवादी पार्टी के ही मुलायम सिंह यादव का शासन था जिसे कार्यकर्ताओं के 'हल्ला बोल' के लिये कहीं ज्यादा याद किया जाता है. बस यही वो कमजोर कड़ी है जिस पर मायावती हमलावर और अखिलेश को डिफेंसिव होना पड़ता है.

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बात जब उपलब्धियों की आती है तो मायावती डंके की चोट पर कहती हैं उनके शासन में लॉ एंड ऑर्डर दुरूस्त रहता है. हर बार प्रेस कांफ्रेंस में भी मायावती यही लिख कर लाती हैं. कहीं कोई विकीलीक्स के खुलासे वाली बातें न पूछ ले इसलिए पढ़ कर चुपचाप बाकी बातों के लिए नो कमेंट्स वाले बॉडी लैंग्वेज प्रदर्शित करते हुए निकल लेती हैं.

इसी तरह मुलायम सिंह भी एक दिन दहाड़ते हुए निकले अपनी उपलब्धियां बताने - हां, मैंने कारसेवकों पर गोली चलवाई थी.

फिर क्या था मायावती घूम घूम कर मुसलमानों को समझाने लगीं - अपना वोट जाया मत होने देना. उधर, मुलायम भी बेटे अखिलेश के लॉ एंड ऑर्डर सुधार में मदद का जिम्मा भाई शिवपाल पर सौंपे - और उन्होंने कौमी एकता दल का विलय कर भतीजे की राह आसान कर दी.

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"यूपी में बहार हो, अखिलेशे कुमार हो!"

बताने के लिए बीजेपी के पास सबसे हॉट सर्जिकल स्ट्राइक है - और लेटेस्ट प्रोडक्ट रामायण म्युजियम. कांग्रेस के पास यूपी में बताने को लेकर कुछ खास बचा नहीं. सत्ता से दूर हुए लंबा अरसा गुजर चुका है, इसलिए बस अपने स्लोगन से ही काम चला रही है - 27 साल, यूपी बेहाल.

समाजवादी विकास यात्रा

रथयात्रा की पूर्व संध्या तक अखिलेश यादव से पूछ लिया गया - मुलायम सिंह तो आएंगे ना और उन्होंने पूरे विश्वास के साथ 'हां' कहा. मुलायम सिंह भी हरी झंडी दिखाने पहुंचे और कुछ शिकायती लहजे में बोले कि उन्होंने इस यात्रा का नाम 'विजय यात्रा' रखने की सलाह दी थी, लेकिन अखिलेश ने 'विजय' से पहले 'विकास' नाम रखा.

इस मसले पर सोफियाने ढंग से तस्वीर साफ करते हुए अखिलेश ने कहा भी - ये विकास से विजय का रथ है.

इस रथ पर अखिलेश और मुलायम सिंह यादव के अलावा राम मनोहर लोहिया, जनेश्वर मिश्र और जयप्रकाश नारायण की तस्वीरें तो लगी हैं लेकिन शिवपाल यादव सीन से पूरी तरह नदारद हैं, जबकि शिवपाल ही यूपी समाजवादी पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष हैं. फिर भी शिवपाल रथयात्रा के प्रस्थान के मौके पर पूरी मुस्तैदी से डटे रहे.

रथयात्रा के मौके पर बनाये गये मंच पर मुलायम सिंह, अखिलेश और शिवपाल के बीच में बैठे थे. शिवपाल ने शुभकामनाएं भी दीं - हमारी 'रजत जयंती' और उनकी 'रथयात्रा' दोनों सफल हों. लेकिन अखिलेश ने शिवपाल का नाम तक नहीं लिया. हर किसी के लिए कयास लगाने का मसाला दे दिया. अखिलेश ने बीजेपी को निशाने पर तो लिया लेकिन ज्यादा जोर अपनी सरकार के विकास के कामों के बखान पर रहा. अखिलेश ने कहा कि सीमाओं पर जान देने को तैयार जवानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है - उसके बाद वो लखनऊ मेट्रो, साइकल फुटपाथ और एक्सप्रेस वे जैसे अपने डेवलपमेंट प्रोजेक्ट पर फोकस रहे.

रथयात्रा शुरू होने से ऐन पहले इकनॉमिक टाइम्स से इंटरव्यू में अखिलेश यादव का कहना रहा - 'अब रथ जब चलेगा तो सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे.'

दावेदारी तो बनती है

इसी इंटरव्यू में ईटी की ओर से पूछा गया - 'राहुल गांधी मंदिरों में जा रहे हैं - और अमित शाह दलितों के घर खाना खा रहे हैं. आप क्या करेंगे?' अखिलेश यादव का जवाब रहा - 'हम लोगों को लैपटॉप और पेंशन दे रहे हैं. हम उससे बड़ा और उनके लिए जरूरी काम कर रहे हैं. खाना खा लिया और दलित का जीवन नहीं बदला तो क्या फायदा?'

सवाल ये है कि आखिर अखिलेश यादव को फिर से मुख्यमंत्री बनने का मौका क्यों मिले? जवाब भी सीधा और सवालनुमा ही है - आखिर अखिलेश यादव को फिर से ये मौका क्यों नहीं मिलना चाहिये?

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अखिलेश अपना कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं और अब तक उनकी छवि बेदाग है. न तो मुलायम सिंह की तरह आय से अधिक संपत्ति या मायावती की तरह वैसे आरोप लगे हैं - और न ही कोई बड़े घोटाले की बात सामने आई है. जहां तक कानून व्यवस्था की बात है तो मायावती से भले न हो लेकिन मोटे तौर पर अखिलेश के शासन को मुलायम सरकार से तो बेहतर ही कहा जा सकता है.

अखिलेश के सख्त और बागी तेवर अपनाने से पहले तक उन्हें 'आधा मुख्यमंत्री' कहा जाता रहा. उस हालत में भी अखिलेश ने न सिर्फ पार्टी की हल्ला बोल की छवि से निकलने की कोशिश की बल्कि डीपी यादव के लिए तो नो एंट्री और मुख्तार अंसारी की पार्टी के विलय का कड़ा विरोध भी जताया. एक मंच पर अतीक अंसारी को धक्का देते भी अखिलेश को देखा गया था. युवा पीढ़ी के नेताओं में राहुल गांधी भी तो दस साल से सिस्टम बदलने की ही कोशिश कर रहे हैं और बगैर किसी खास उपलब्धि के भी उन्हें नो-डाउट-पीएम-कैंडिडेट माना जाता है, जबकि राजनीति में पारिवारिक दबदबे की बात हो तो यादव परिवार गांधी परिवार पर भारी ही पड़ेगा. उधर आरजेडी की विरासत को आगे बढ़ा रहे तेजस्वी यादव भी तो जंगलराज के साये से आगे बढ़ने में जी जान से जुटे ही हैं.

अखिलेश का कहना है कि चुनावों में जो वादा किया था उसे पूरा किया. वैसे विकास के काम कोई भ्रष्टाचार तो है नहीं कि उस पर पर्दा डाला जा सकेगा - चाहे वो हाथी हों, पार्क हों या फिर मेट्रों और एक्सप्रेस वे. जो भी है सबके सामने है.

राजनीतिक विरोध की बात अलग है. जो जैसे चाहे हर किसी को सियासी जंग में नंगा कर सकता है. खुद उनके चाचा शिवपाल ने कार्यकर्ताओं को किसी भी तरीके से चुनाव जीतने के लिए तैयार रहने को कहा है - साम-दाम-दंड-भेद सभी तरीकों से चुनाव जीता जा सकता है. अगर ये तौर तरीके शिवपाल अपनाएंगे तो मायावती या फिर अमित शाह कहां से पीछे रहने वाले हैं. कौन बीस पड़ेगा और कौन उन्नीस इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है. अखिलेश को इन चुनौतियों से भी दो चार होना है, मालूम जरूर होगा.

वैसे उसी इंटरव्यू में अखिलेश ने एक ही लाइन में अपनी पूरी बात कह दी है - "लोग ट्रेनी कहते थे - जब ऐसे इतना किया तो अनुभवी होकर क्या करेंगे!"

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