चाय-पकौड़ी कच्चा वोट, दारू-मुर्गा पक्का वोट!
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं ख़बरें आनी शुरू हो जाती हैं कि फलां जगह से कैश बरबाद हुआ या फिर कहीं से पुलिस ने शराब जब्त की. कह सकते हैं कि नेता और प्रजा दोनों ही एक दूसरे की साइकोलॉजी समझते हैं. नेता जानते हैं कि वोट पिलाने खिलाने और खर्चा करने से ही मिलते हैं.
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चुनावों का मौसम चल रहा है. बेनामी नगदी और 'बड़ी मात्रा में शराब' पकड़े जाने का दौर भी चल पड़ा है. जैसे-जैसे मतदान के चरण करीब आते जाएंगे, जनता में शराब और नगदी बांटे जाने की खबरें भी तेज होती जायेंगी. हर बार का यही तमाशा है. ये खबरें सुनकर हमें नेताओं पर खूब गुस्सा आता है और मिनट भर में हम उन्हें लोकतंत्र का हत्यारा, भ्रष्ट और जाने क्या-क्या घोषित कर देते हैं. लेकिन हम भूल जाते हैं कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है. हम भूल जाते हैं कि ये वही लोकतंत्र है जिसमें लोगों को रिझाने के लिए जनार्दन मिश्रा जैसे नेता नंगे हाथों से सामुदायिक शौचालय साफ कर देते हैं. ऐसे में प्रत्याशी अगर मतदाताओं को रिझाने के लिए चोरी-छिपे शराब और पैसा बांटते भी हैं तो ये बिल्कुल आश्चर्यजनक नहीं है.
अक्सर ही हम चुनाव से पहले ये सुनते हैं कि रेड के दौरान भारी मात्रा में कैश जब्त किया गया
सामान्य मतदाता की यही समझ है कि नेता पांच सालों में सिर्फ एक बार उसके दरवाजे पर आता है. मतदाता भी समझता है कि अभी पूंछ दबी है तो जो भी उसकी मांग होगी, पूरी की जाएगी. तो मतदाता भी अपनी पूरी समझ और क्षमता से पांच सालों की कसर एक बार में ही निकालना चाहता है.
फ्रांस के विचारक वॉल्टेयर का कहना था कि कोई भी समाज जिस तरह के अपराध और अपराधी डिज़र्व करता है, पा जाता है. कमोबेश यही दशा शासन-प्रणाली और लोकतंत्र की भी है. और अगर मैं ये कहता हूं कि हर समाज और समूह जैसा लोकतंत्र और जैसा नेता डिज़र्व करता है, पा ही जाता है. तो ये गलत नहीं होगा.
Another massive seizure made by IT dept.
IT sources: Unaccounted cash of ₹ 14.54 crore (major portion of ₹13.80crore from four premises belonging to PSK Engg Construction Company) was seized today. #ITRaids #TamilNadu #CashSeizure pic.twitter.com/6ltQyZByCO
— Shilpa Nair (@NairShilpa1308) April 12, 2019
चुनावों में मौसम में गांव -देहात और शहरों की लोकल बस्तियों में भी ऐसे तमाम बिचौलिए सक्रिय हो जाते हैं जो प्रत्याशियों से मोटी रकम लेकर उन्हें अपने क्षेत्र के मतदाताओं का एकमुश्त वोट दिलाने का वादा करते हैं. मजे की बात तो ये है कि ये बिचौलिए अपने क्षेत्र के प्रायः सभी दलों के प्रत्याशियों से वोट के नाम पर उगाही करते हैं. जनता भी इस सच्चाई को जानती है. मैंने खुद पान और चाय की दुकानों पर लोगों को 'चाय पकौड़ी कच्चा वोट, मुर्गा दारू पक्का वोट' जैसी बातें बोलकर ठहाका मारते देखा है.
चुनाव से पहले सरकार को शराब भी खूब परेशान करती है
ये बात दरअसल उतनी सीधी है नहीं जितनी लग रही है. सोचकर देखिये, अगर किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्याशी टिकट से लेकर वोट तक सब कुछ पैसे देकर ही पाएंगे, तो चुनाव जीतकर पद पा जाने के बाद उनकी मूल प्राथमिकता अपने इन्वेस्टमेंट की भरपाई होगी या देश सेवा. ये समझना कोई बड़ी बात नहीं है. दुख की बात तो ये है कि प्रत्याशियों द्वारा वोट के बदले नोट कल्चर को, समाज के लगभग सभी हिस्सों से मूक सहमति मिली हुई है.
तमाम लोग अपने वोट के महत्त्व को समझने की बजाय उसके दाम को भुनाने में ज्यादा फायदा समझते हैं.
'खा-पीया डट के, वोट दीहा हट के'
जैसे छंदबद्ध मजाक इसका प्रमाण हैं. अभी हाल ही में हुए एक स्टिंग ऑपरेशन में तमाम प्रत्याशियों ने इन लोकसभा चुनावों में 10-15 करोड़ रूपये प्रति प्रत्याशी खर्च की बात स्वीकार की थी, जो चुनाव आयोग द्वारा खर्च की तय सीमा 70 लाख से कई गुना ज्यादा है.
असल में ये पैसा कहां खर्च होगा, मैं पहले ही बता चुका हूं. सच्चाई तो ये है कि चुनावों को दारू-मुर्गा का उत्सव और कमाई का मौका समझने वाले लोग उन प्रत्याशियों जितना ही भ्रष्ट हैं जो इन चीजों की आपूर्ति कर के चुनाव जीतना चाहते हैं. भ्रष्ट मैं उन लोगों को भी कहूंगा जो चाहे इन गतिविधियों में शामिल न हों, पर इन्हें मूक सहमति देते हैं. चुनावों में होने वाली इस फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार से जहां एक तरफ सत्ता गलत हाथों में चली जाती है, वहीं तमाम योग्य और नेतृत्व में सक्षम लोग चुनाव के भारी-भरकम खर्च को देखकर हतोत्साहित हो जाते हैं.
समझने की बात है कि अगर देश के अधिकांश राजनीतिक दल, प्रत्याशी और मतदाता; सभी खाने-खिलाने की राजनीति में भरोसा रखने वाले हैं, तो किसी मतदाता को कोई अधिकार नहीं है कि वो किसी नेता को भ्रष्ट कहे, क्योंकि हमाम में तो फिर सभी नंगे ही हैं.
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