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Updated: 30 जनवरी, 2018 09:56 PM
प्रवीण शेखर
प्रवीण शेखर
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बजट सत्र के शुरू होने पर संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव साथ साथ कराने की पेशकश की. इसके लिए यह तर्क दिया कि बार-बार चुनाव कराने से विकास की गति में बाधा आती है, क्योंकि अधिकारियों को चुनाव कराने में लगाया जाता है जिससे उनका ज्यादा समय व्यर्थ होता है.

एक साथ चुनाव कराने का मसला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिल के करीब है. उन्होंने बार बार इस बात को उठाया है और अब राष्ट्रपति के संबोधन के बाद ये अनुमान लगाया जाने लगा है कि 2019 लोकसभा चुनाव 2018 के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ कराया जा सकता है.

लेकिन अगर ऐसा होता है तो आइये जानें की यह विचार किन कारणों से असंवैधानिक, गैर-लोकतांत्रिक और अव्यवहारिक है:

1. एक साथ चुनावों के मुख्य पात्रों का तर्क है कि बार-बार चुनाव विकास और कल्याण में बाधा डालती है. क्योंकि सरकारें समय-समय पर चुनाव के कारण आचार संहिता की अधीन हो जाती हैं और राजनीतिक दल हमेशा चुनाव के मूड में बने रहते हैं. लेकिन चुनावी प्रक्रिया की अवधि कम करने के लिए उचित उपाय तैयार किए जा सकते हैं. उदाहरण के लिए, चुनावों में सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त अर्धसैनिक बलों की कमी के कारण अब चुनाव कई चरणों में आयोजित किए जाते हैं. एक या दो दिन में चुनाव आयोजित करने के लिए अर्धसैनिक बलों की तादाद बढ़ाई जा सकती है. चुनाव अभियान की अवधि भी कम हो सकती है.

2. एक बहु-पक्षीय राजनीतिक व्यवस्था में चुनावी मुद्दे और जनादेश राज्य से राज्य और राज्यों से राष्ट्र तक अलग-अलग होते हैं. विविध राजनीतिक स्पेक्ट्रम में मतदाताओं के लिए कई प्रकार के विकल्प उपलब्ध होते हैं. साथ-साथ चुनाव क्षेत्रीय दलों के लिए गंभीर नुकसान साबित होगा. क्योंकि राष्ट्रीय मनोदशा चुनाव के दृश्य पर हावी हो जाएगी और इस प्रकार राष्ट्रीय दलों को अनुचित राजनीतिक लाभ होगा.

Loksabha, vidhansabha, electionलोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना असंवैधानिक है

3. ऐसे प्रस्ताव के अधिवक्ताओं का तर्क है कि एक साथ चुनाव पैसे, समय और संसाधनों को बचाएगा. यदि यह स्वीकार किया जाता है, तो यह भी मांग हो सकती है कि चुनाव 20 साल में एक बार किया जाना चाहिए. क्योंकि इससे देश का अधिक समय और पैसा बचेगा. हालांकि, इलाज बीमारी से भी बुरा नहीं हो सकता है. लोकतंत्र की समस्याओं का समाधान लोकतंत्र और संवैधानिकता की भावना से बाहर नहीं हो सकता.

4. भारतीय संविधान के संस्थापक पिता और मां ने शासन के विभिन्न स्तरों की कल्पना की थी. 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन ने स्थानीय स्व-सरकार के रूप में सरकार की एक तीसरी परत बनाई. यह आधिकारिकता से बचने के लिए अलग-अलग स्तरों और विभिन्न खिलाड़ियों के बीच राजनीतिक सत्ता का वितरण करने का उद्देश्य था. इसलिए, एक साथ चुनाव संवैधानिक दृष्टि के विपरीत जाता है और निरंकुश प्रवृत्तियों को मजबूत करता है.

5. एक साथ चुनाव कराने का भाजपा सरकार का प्रस्ताव अलग से नहीं देखा जा सकता है. इससे पहले, पार्टी और उसके नेताओं ने केंद्र और राज्य विधानसभाओं के लिए एक निश्चित अवधि की घोषणा की, एक द्वि-पक्षीय प्रणाली, राष्ट्रपति प्रणाली और यहां तक की संविधान का पुनर्लेखन करने की भी वकालत की. इसलिए, एक साथ चुनाव कराने का यह प्रस्ताव भगवा ब्रिगेड के राजनीतिक प्रोजेक्ट का अभिन्न हिस्सा है.

ये सभी परिवर्तन भारतीय समाज और राजनीति की विविधता के खिलाफ होंगे. 1970 के दशक तक भारत में एक साथ चुनाव हुए थे. यह जानबूझ के नहीं हुआ था बल्कि इसे डिफ़ॉल्ट माना जा सकता है. क्योंकि उस समय एक पार्टी भारत की राजनीतिक व्यवस्था पर हावी थी. अब सोचना ये है कि क्या हमें अब ऐसे राजनीतिक परिदृश्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए?

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लेखक

प्रवीण शेखर प्रवीण शेखर @praveen.shekhar.37

लेखक इंडिया ग्रुप में सीनियर प्रोड्यूसर हैं

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