बीजेपी के लिए शुभ नही हैं बिहार-यूपी उपचुनाव के नतीजे
बिहार-यूपी के उपचुनाव परिणामों का सबक यही है कि राष्ट्र-फ़तह पर निकले नरेंद्र मोदी और अमित शाह को पहले अपने किले सुरक्षित रखने होंगे.
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बिहार और यूपी के उपचुनाव नतीजों से साफ़ है कि अगर बीजेपी के खिलाफ़ एक महागठबंधन की छतरी के नीचे अलग-अलग गठबंधन बनते हैं, तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उसके लिए राहें आसान नहीं होंगी और अब यह तय है कि महागठबंधन बनकर रहेगा. यूपी में तो सपा-बसपा-कांग्रेस तीनों साथ लड़ेंगी, जबकि बिहार में भी राजद, कांग्रेस और बीजेपी-जेडीयू से अलग कुछ छोटी-छोटी पार्टियों का महागठबंधन बन सकता है. और अगर 2019 के लिए विपक्षी पार्टियों का ऐसा महागठबंधन बनता है, तो बीजेपी की चुनौतियां केवल सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों के चलते ही नहीं, बल्कि इसलिए भी बढ़ जाएंगी, क्योंकि बड़ी संख्या में उससे सहानुभूति रखने वाले लोग भी सरकार के अब तक के परफॉरमेंस से खुश नहीं हैं. बीजेपी शायद अब तक यह समझ नहीं पाई है कि लोग हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की घुट्टी भी तभी पिएंगे, जब उनकी रोज़मर्रा की मुश्किलें हल होती हुई महसूस हों.
बिहार और यूपी में हुए उप चुनाव के बाद ये कहना गलत नहीं है कि भविष्य में बीजेपी की राहें जटिल होने वाली हैं
यह ठीक है कि इधर बीजेपी ने विधानसभा चुनावों में कई नए राज्य भी जीते हैं और उसकी सत्ता वाले राज्यों की गिनती बढ़ती ही जा रही है, लेकिन पुराने वर्चस्व वाले राज्यों में उसका हारना शुभ संकेत नहीं है. गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे उसके होल्ड वाले राज्यों के बाद अब बिहार और यूपी से आई ये चुनौती उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं. इन पांचों राज्यों में कुल 200 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से अकेले बीजेपी ने 170 सीटें जीती थीं. कुल 282 में से इन 170 सीटों का मोल आप समझ सकते हैं.
इसलिए 22 राज्यों में बीजेपी की सरकार होना एक बात है, लेकिन अगर उपरोक्त पांच राज्यों से ज़मीन खिसक गई, तो बाकी 17 राज्य अधिक काम नहीं आएंगे. इसके अलावा, अगर शिवसेना छिटकी तो महाराष्ट्र में भी उसके लिए मुश्किल हो सकती है, जहां की 48 में से 23 सीटें अभी उसके पास हैं. एनडीए में उसके अन्य कई सहयोगी दल ऐसे हैं, जो तेल देखेंगे और तेल की धार देखेंगे और फिर उस धार के हिसाब से अपना बहाव तय करेंगे.
माना जा रहा है कि पुराने वर्चस्व वाले राज्यों में पार्टी का इस तरह हारना शुभ संकेत नहीं है
तो बीजेपी के लिए ख़तरे की घंटी बज चुकी है, इसके बावजूद कि मोदी के मुकाबले विपक्ष के पास कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा. लेकिन रामो-वामो के पास कौन-सा नेता था? जब देवेगौड़ा और गुजराल प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो कौन जानता है कि बीजेपी को हटाने के लिए मायावती, मुलायम, ममता, राहुल किसी भी रबड़-स्टाम्प के नेतृत्व में महागठबंधन सरकार बनाने को तैयार हो जाएं.
इसलिए, बिहार-यूपी के उपचुनाव परिणामों का सबक यही है कि राष्ट्र-फ़तह पर निकले नेताओं को पहले अपने किले सुरक्षित रखने होंगे. और दूसरा सबक यह है कि कांग्रेस उनके ख़त्म करने से ख़त्म नहीं होगी, बल्कि तब ख़त्म होगी, जब सारी पार्टियां मिलकर कांग्रेस को ख़त्म करने का संकल्प ले ले. लेकिन ऐसा तो अभी दिखाई नहीं दे रहा. चाहे वह कितनी भी कमज़ोर हो गई हो, लेकिन बीजेपी की विरोधी सभी पार्टियां दिल्ली में उसकी ही गोदी में बैठती हैं.
बीजेपी को इसे इस तरह से भी समझना चाहिए कि देश में कांग्रेस का एकमात्र विकल्प अभी केवल वही है और अगर जनता बीजेपी का ही विकल्प ढूंढ़ने लगे, तो फिर वह कांग्रेस और सहयोगियों की शरण में ही जाएगी न? यूं भी एक बात मैं अक्सर कहता हूं कि लोकतंत्र के तो केवल 4 स्तम्भ हैं, लेकिन कांग्रेस के 40 स्तम्भ हैं. कांग्रेस अगर बीजेपी को अकेले नहीं पछाड़ सकती, तो अपने उन 40 स्तम्भों के सहारे अवश्य पछाड़ सकती है.
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