पहले दौर का कम मतदान है मोदी की वापसी का संकेत
भाजपा (एनडीए) को कम वोटिंग की स्थिति में ज़्यादा सीट मिलने का सीधा संबंध भाजपा के कैडर से है. कैडर की सांगठनिक क्षमताओं से यह तय करना आसान हो जाता है कि उनके अपने समर्थक वोट ज़रूर डालें.
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चुनावों के बीच जब वोटिंग हो रही हो तो वोटिंग प्रतिशत को देखकर संभावित विजेता का अनुमान लगाना बेहतरीन शगल है. 11 अप्रैल को जिन 91 लोकसभा सीटों पर वोटिंग हुई, उसमें 2014 में इनमें से 32 सीटें भाजपा ने जीती थीं. पश्चिम यूपी की जिन 8 सीटों पर मतदान हुआ, ये सभी सीटें भाजपा के पास थीं. उत्तराखंड की सभी 5, महाराष्ट्र की 7 में से 5, असम की 5 से 4, बिहार की 4 में 3 सीटें भाजपा ने जीती थी. लेकिन इस बार बिहार में इन चार सीटों में से महज एक सीट पर भाजपा चुनावी मैदान में है. बाकी तीन सीटों पर सहयोगी मैदान में हैं.
बहरहाल, आपकी दिलचस्पी इस बात में कतई नहीं होगी कि किस सीट पर कितने वोट पड़े. पर मैं शर्त बद कह सकता हूं कि आप (और मैं) इस बात में बराबर दिलचस्पी रखते हैं कि वोटिंग प्रतिशत कम या अधिक होने का पार्टियों के नतीजों पर कैसा असर पड़ता है.
मैं शुरुआत उत्तराखंड से करना चाहता हूं और मैं सिर्फ उन्हीं राज्यों की बात करूंगा जहां भाजपा मैदान में है क्योंकि सिर्फ उसी की जीत और हार से केंद्र सरकार का भविष्य तय होना है. उत्तराखंड की पांच सीटों पर 57.85 फीसदी मतदान हुआ जबकि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान 2014 में सूबे में 62.15 फीसदी मतदान हुआ था.
उत्तराखंड की पांच सीटों पर 57.85 फीसदी मतदान हुआ
उत्तर प्रदेश पर सबसे अधिक निगाहें टिकी हैं और यहां 63.69 प्रतिशत वोटिंग हुई है. 2014 के मुकाबले सहारनपुर में करीब 4 फीसदी, कैराना में करीब 9 फीसदी, मुजफ्फरनगर में करीब 3 फीसदी, बागपत में करीब 3 फीसदी कम मतदान हुआ है. मेरठ के मतदान प्रतिशत में अंतर नहीं आया और बिजनौर में पिछले चुनाव की तुलना में अधिक वोटिंग हुई है.
पहले चरण के मतदान वाले अन्य प्रमुख राज्यों में उत्तर प्रदेश की आठ सीटों पर 63.69 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. छत्तीसगढ़ की बस्तर सीट पर 56 प्रतिशत मतदान हुआ. पिछले चुनाव में इस सीट पर 69.39 प्रतिशत मतदान हुआ था. बिहार की 4 सीटों पर पिछली बार से औसतन डेढ़ फीसदी कम वोटिंग हुई है.
आम तौर पर किसी भी चुनाव में इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि आख़िर इतने कम या इतने ज़्यादा वोट क्यों पड़े और क्या ये किसी राजनीतिक बदलाव का इशारा दे रहे हैं. सवाल यह है कि क्या ज़्यादा या अधिक वोटिंग के आधार पर कुछ सियासी संकेत पकड़े जा सकते हैं?
उत्तर प्रदेश की आठ सीटों पर 63.69 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया
सवाल यह है कि क्या ज़्यादा वोट पड़ने से किसी ख़ास पार्टी को अन्य पार्टियों के मुकाबले ज़्यादा फ़ायदा मिल सकता है? अपनी किताब द वर्डिक्ट में चुनाव विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार प्रणय रॉय लिखते हैं, "ब्रिटेन में लंबे वक़्त तक माना जाता रहा कि फ़सल कटाई के दौरान चुनाव हों और कम वोट पड़ें तो इससे कंज़रवेटिव पार्टी को फ़ायदा होगा. तर्क यह था कि इन दिनों लेबर पार्टी के समर्थक यानी खेतों में काम करने वाले मज़दूर खेतों में व्यस्त होंगे और ज़्यादातर को कंज़रवेटिव पार्टी के ख़िलाफ़ जाकर वोट डालने का वक़्त नहीं मिलेगा. पिछले कुछ दशकों में बार-बार इस राय को परखा गया है."
कम वोटिंग के असर को समझना काफ़ी मुश्किल है. पहला सवाल तो यही है कि कम वोट पड़ने से किसे फ़ायदा होगा, सत्ताधारी पार्टी को या विपक्ष को? या फिर ज़्यादा वोट पड़ना किसी ख़ास तरह की पार्टियों को मदद करता है, फिर चाहे वे सत्ता में हों या विपक्ष में?
इनके उत्तर में एक संभावित और प्रक्षेपित निष्कर्ष निकलते हैं जो शायदा मोदी समर्थकों को खुश कर दें. पिछले तीन लोक सभा चुनावों यानी 2004, 2009 और 2014 के लोक सभा चुनावों के नतीजों पर गौर करें तो आम ट्रेंड सामने आता हैः पिछले तीनों चुनावों में भाजपा ने उन सभी सीटों पर बेहतर प्रदर्शन किया जिनमें वोटिंग कम हुई. साल 2004 और 2009 के चुनावों में सबसे ज़्यादा चौंकाने वाले नतीजे शायद यही रहे कि जिन सीटों पर मतदान अधिक हुआ वहां भाजपा को हार का सामना करना पड़ा थास, जबकि जिन सीटों पर कम वोट पड़े वहां भाजपा ने कांग्रेस पर बढ़त दर्ज़ की.
आंकड़े साबित करते हैं कि 2014 में जिन सीटों पर कम वोटिंग हुई थी वैसी करीबन 23 फीसदी सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस को पछाड़ दिया. 2009 में यह करीब 3.6 फीसद और 2004 में करीब 5 फीसदी सीटें थीं.
आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण सीटों पर भी कम वोट पड़ने की स्थिति में भाजपा कांग्रेस पर बढ़त बना लेती है.
भाजपा (एनडीए) को कम वोटिंग की स्थिति में ज़्यादा सीट मिलने का सीधा संबंध भाजपा के कैडर से है. कैडर की सांगठनिक क्षमताओं से यह तय करना आसान हो जाता है कि उनके अपने समर्थक वोट ज़रूर डालें.
ज़्यादातर चुनावों में भाजपा और आरएसएस यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि उनके अधिकतर समर्थक वोट डालें. जबकि दूसरी तरफ़ जो पार्टियां कैडर आधारित नहीं हैं, उनके पास अपने समर्थकों को पोलिंग बूथ तक लाने के लिए मज़बूत ढांचा नहीं होता, जिसके कारण ये पार्टियां बहुत ही कम समर्थकों को बूथ तक ला पाने में सफल हो पाती हैं.
कुछ मौकों पर कई बार कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे भी होते हैं जो स्विंग वोटों की शक्ल में भाजपा को फ़ायदा पहुंचाते हैं. संगठित समर्थकों के वोट में आ जुड़ने वाला इस तरह का स्विंग वोट पार्टी को और भी फायदा पहुंचाता है.
लेकिन भाजपा को असली फायदा तब होता है जब मतदाताओं में वोट डालने को लेकर उतना उत्साह नहीं होता और कम वोट पड़ते हैं. बीजेपी यहां सबसे बेहतर प्रदर्शन करती है. यहां पर लोग एक शक कर सकते हैं कि हो सकता है कि ग्रामीण इलाकों में शहरी इलाकों से अधिक मतदान होता है और इसलिए भाजपा के आधार शहरों में कम वोटिंग से भाजपा जीत जाती हो. पर आंकड़े यह जाहिर करते हैं कि ग्रामीण सीटों पर भी कम वोट पड़ने की स्थिति में भाजपा कांग्रेस पर बढ़त बना लेती है.
तो पहले दौर पर कम वोटिंग, खासकर जहां 60 फीसदी से कम मतदान हुआ है, वहां के भाजपा समर्थकों को उम्मीद रखनी चाहिए कि कोई सत्ताविरोधी रुझान नहीं है.
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