आखिर क्यों उद्धव ठाकरे ने छोटा भाई बनकर दूसरे नंबर पर रहना स्वीकार किया?
गठबंधन में हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रहने वाली शिवसेना इस बार छोटे भाई की भूमिका निभा रही है. अब सवाल ये उठता है कि आखिर क्यों उद्धव ठाकरे के पास भाजपा का ऑफर स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था?
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मंगलवार, 1 अक्टूबर 2019 को भाजपा ने इस बात की आधिकारिक घोषणा कर दी कि वह बड़े भाई की तरह शिवसेना के साथ गठबंधन कर रही है. पार्टी ने घोषणा की कि वह 164 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि शिवसेना 124 सीटों पर चुनावी मैदान में उतरेगी. 288 सीटों की महाराष्ट्र विधानसभा में अब भाजपा का पलड़ा भारी है. आपको बता दें कि 1966 में बनी शिवसेना ने 1989 में गठबंधन करना शुरू किया था और हमेशा ही भाजपा से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ी. दोनों के गठबंधन वाली पहली सरकार 1995 में बनी जब शिव सैनिक मनोहर जोशी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
2014 में दोनों ने अपने रास्ते अलग-अलग कर लिए. उस चुनाव में भाजपा 122 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और शिवसेना को महज 63 सीटें मिलीं. शिवसेना ने उसके बाद भाजपा को ही समर्थन दे दिया. भाजपा का दबदबा होने से शिवसेना के कार्यकर्ताओं में कुछ नाराजगी जरूरी है, लेकिन कहीं भी कोई प्रदर्शन देखने को नहीं मिला है. 1 अक्टूबर को शिवसेना ने 124 विधानसभा सीटों की लिस्ट जारी की, जिस पर वह चुनाव लड़ने जा रही है. अब सवाल ये उठता है कि आखिर क्यों उद्धव ठाकरे के पास भाजपा का ऑफर स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था, जिसकी कई वजहें भी हैं. यहां आपको बता दें कि उद्धव ठाकरे अपने बड़े बेटे आदित्य ठाकरे को चुनावी मैदान में उतार रहे हैं.
भाजपा ने घोषणा की कि वह 164 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि शिवसेना 124 सीटों पर चुनावी मैदान में उतरेगी.
2012 में पार्टी के संस्थापक बाला ठाकरे की मौत के बाद उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने पार्टी की कमान संभाली थी. अब वह अपने बड़े बेटे आदित्य ठाकरे को सामने ला रहे हैं, ताकि जनता उनसे जुड़ सके. शिवसेना प्रमुख पहले की तरह महाराष्ट्र में टूर करते हुए नहीं देख रहे हैं, जबकि चुनाव को अब महीने भर ही रह गए हैं. वहीं दूसरी ओर आदित्य ठाकरे राज्य में जगह-जगह दौरा करते नजर आ रहे हैं, लेकिन अभी उन्हें अपना लोहा मनवाना बाकी है. वह अपने परिवार से पहले शख्स होंगे, जो दक्षिण मुंबई की वर्ली सीट से चुनाव लड़ेंगे.
शिवसेना के एक सूत्र के मुताबिक उद्धव ठाकरे इस समय में कोई रिस्क नहीं लेना चाहते हैं, जिसके चलते वह अलग-थलग हो जाएं. वैसे भी, हिंदुत्व के एजेंडे पर राजनीति करने वाली पार्टी का सेक्युलर छवि वाली कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन करना सही नहीं होगा. उद्धव ठाकरे ने अपने चचेरे भाई और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे से भी गठबंधन किया था, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ था. बहुत सारे शिवसेना के नेताओं ने भी भाजपा के साथ गठबंधन का समर्थन किया था, ताकि सत्ता में बने रहा जा सके. एक वरिष्ठ शिवसेना नेता ने कहा कि उन्होंने एक गुस्ताखी भरा फैसला लिया है, जिसे 2014 में मिस कर दिया था. पिछली बार 2014 में दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन सिर्फ 3 सीटों के चलते टूटा था. भाजपा की ओर से शिवसेना को 148 सीटें दी जा रही थीं, लेकिन शिवसेना 151 पर अड़ी हुई थी.
इस बार उद्धव ठाकरे ये जानते थे कि भाजपा उन्हें 135 सीटें देने के मूड में नहीं है, जो संजय राऊत जैसे उनके साथी चाहते थे. मार्च में ठाकरे के साथ हुई एक ज्वाइंट प्रेस कॉन्फ्रेंस में फडणवीस ने कहा था कि भाजपा शिवसेना का साथ गठबंधन में एक बराबर सीटें लेगी और अपनी बाकी सहयोगी पार्टियों जैसे रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, राष्ट्रीय समाज पक्ष, शिव संग्राम और रायत क्रांति पक्ष के लिए कुछ सीटों का कोटा छोड़ा जाएगा.
राऊत ने इस बात को ये मतलब निकाला था कि फडणवीस शिवसेना को 135 सीटें ऑफर करेंगे, जबकि 18 सीटें छोटी सहयोगी पार्टियों के लिए छोड़ी जाएंगी. जबकि फडणवसी ने इंडिया टुडे से बात करते हुए ये साफ किया था कि उन्हें बराबर सीटें कहते हुए कोई आंकड़ा नहीं दिया था. उन्होंने इशारा किया कि 18 सीटें हटाने के बाद बची 170 सीटों में से भाजपा के खाते में 122 और शिवसेना के पास 63 सीटों पर पहले से ही सिटिंग विधायक हैं. बची हुई 85 सीटों को बराबर बांटा जाएगा.
अगर फडणवीस के कैल्कुलेशन के हिसाब से देखते हुए सीट शेयरिंग फॉर्मूले को देखा जाए तो ये साफ होता है कि भाजपा ने 18 सीटों का बलिदान दिया है. हालांकि, भाजपा ने मुंबई, पुणे, नासिक और नागपुर को अपने हाथ से नहीं जाने दिया है, जबकि शिवसेना का काफी दबाव था. ठाकरे मुंबई की 36 विधानसभा सीटों का बराबर बंटवारा चाहते थे, लेकिन उन्हें कम सीटें (17) मिलीं. लेकिन इसमें भी एक ट्विस्ट है.
2014 में भाजपा ने पुणे, नासिक और नागपुर की सभी विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी. इस साल ठाकरे ने मांग की थी कि भाजपा इन जगहों पर कम से कम एक सीट शिवसेना के लिए छोड़ दे, ताकि उनकी अहमियत बनी रहे. लेकिन भाजपा ने उनकी मांग को सिरे से खारिज कर दिया. अब सेना इस चुनावी मैदान में दूसरे नंबर पर खेलती नजर आएगी.
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