विपक्ष के सरेंडर से पहले ही तय हो गया था एग्जिट पोल की जरूरत नहीं पड़ेगी
हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव (Maharashtra-Haryana Assembly Election) से पहले विदेश जाने से लेकर रैलियां ना करने तक, राहुल गांधी और कांग्रेस से जितना बन पड़ा उतना किया, जो पार्टी को हार की ओर बढ़ा सके.
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महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर बुरी तरह से हार चुकी है. चलिए मान लिया कि अभी नतीजे नहीं आए, लेकिन एग्जिट पोल तो आ चुके हैं. वैसे एग्जिट पोल को भी छोड़ दीजिए. चुनावों से पहले ही विपक्ष ने अपनी हरकतों से इस बात का संकेत दे दिया था कि वह ये चुनाव हारने के लिए लड़ रहे हैं. और अपनी हार सुनिश्चित करने के लिए विपक्ष ने कोई कसर भी नहीं छोड़ी. चुनाव से पहले विदेश जाने से लेकर रैलियां ना करने तक, कांग्रेस से जितना बन पड़ा उतना किया, जो उसे हार की ओर बढ़ा सके. अक्सर ये तो देखा गया था कि राज्यों में एंटी-इनकंबैंसी हो जाती है. यानी सत्तापक्ष के खिलाफ लोग वोट कर देते हैं, लेकिन यहां तो एंटी-इनकंबैंसी भी विपक्ष के खिलाफ ही हुई नजर आ रही है. इसी का नतीजा है कि आखिरकर भाजपा जीत रही है और कांग्रेस हार रही है.
कांग्रेस ने तो चुनावों से पहले ही सरेंडर कर दिया था, हार तो तय ही थी.
एग्जिट पोल की नहीं थी जरूरत !
हर चुनाव के बाद लोगों में एक क्रेज होता है ये जानने का कि कौन सी पार्टी जीत रही है और किसे कितनी सीटें मिल सकती हैं. इसके लिए लोग एग्जिट पोल का इंतजार करते हैं. इस बार भी एग्जिट पोल आया, लेकिन शायद किसी को भी उसका इंतजार नहीं था. इसकी वजह यही थी कि जनता भी पहले से ही जानती थी कि कौन जीतेगा और किसका हारना तय है. कांग्रेस तो पहले ही सरेंडर कर चुकी थी, जिसे देखकर ही साफ हो गया था कि इस बार के चुनावों के लिए एग्जिट पोल की कोई जरूरत नहीं है.
चुनाव अभियान से पहले ही कांग्रेस ने दिया हार का संकेत
अभी हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों की तारीखें ही आई थीं कि पता चला राहुल गांधी विदेश यात्रा पर चले गए हैं. कोई बता रहा था कि बैंकॉक गए हैं, तो किसी का कहना था वह कंबोडिया में विपश्यना के लिए गए हैं. सवाल ये है कि राहुल गांधी को विपश्यना करने का ध्यान उस वक्त क्यों आया, जब चुनाव सिर पर थे. जिस वक्त उन्हें देश में रहकर महाराष्ट्र और हरियाणा जाकर रैलियां करनी चाहिए थीं, अपने कार्यकर्ताओं का हौंसला बढ़ाना चाहिए था, उस वक्त वह विदेश में पता नहीं कहां थे. वो कांग्रेस की हार की पहली कड़ी जैसा ही था.
प्रचार के दौरान हारने के लिए की 'कड़ी मेहनत'
जब बात आई प्रचार की तो राहुल गांधी ने दोनों राज्यों में कुल मिलाकर 7 रैलियां कीं. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं, जिन्होंने एक भी रैली नहीं की. अब जरा सिक्के का दूसरा पहलू देखिए. पीएम मोदी ने हरियाणा में सिर्फ 7 रैलियां कीं, जबकि अमित शाह और राजनाथ सिंह ने करीब 15 रैलियां की थीं. वहीं दूसरी ओर, पीएम मोदी ने महाराष्ट्र में अकेले ही 10 रैलियां कीं, अमित शाह ने करीब 30 रैलियां और फडणवीस भी बहुत सारी रैलियां करते दिखे. भाजपा की सहयोगी शिवसेना के आदित्य ठाकरे भी रैलियां करते दिखे, जबकि शिवसेना इससे पहले कभी चुनावी अखाड़े में नहीं उतरी थी. यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस जीतना चाहती ही नहीं थी. अगर वह जीतना चाहती तो जरा सी मेहनत तो जरूर करती.
अब लोकसभा चुनाव को ही ले लीजिए. मोदी जगह-जगह जाकर खुद को चौकीदार कहते रहे और राहुल गांधी ने तमाम रैलियां कर के उन्हें चोर कहा. हर कोशिश की कि मोदी सरकार पर निशाना साधा जा सके और कांग्रेस के लिए वोट बटोरे जाएं, लेकिन इस बार तो राहुल गांधी की नीरसता चरम पर पहुंच गई. चलिए मान लिया कि राहुल गांधी का राजनीति में मन नहीं लग रहा, लेकिन सोनिया गांधी को क्या हो गया? कांग्रेस के दिग्गज कहां चले गए? युवाओं की पसंद सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रियंका गांधी ने भी रैलियां नहीं कीं, ना ही अंतरिम अध्यक्ष या अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने किसी को रैली के लिए मैदान में उतरने को कहा. कांग्रेस तो चुनाव से पहले ही सरेंडर कर बैठा था.
चुनावों के दौरान 'हार सुनिश्चित' कर ली
दिन पर दिन बीतते गए और आखिरकार 21 अक्टूबर आ गया, चुनाव का दिन. यूं तो हर चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में अधिक से अधिक लोगों को मतदान बूथ तक पहुंचाने में लगे रहते हैं, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. भाजपा इस बात से निश्चिंत थी कि उनका जीतना तय है और कांग्रेस इस लिए कोई चिंता नहीं कर रही थी कि कुछ कर के भी क्या मिल जाएगा, हारना तो तय ही है. बस... आखिरी दिन जो मेहनत की जा सकती थी, वो भी नहीं कर के कांग्रेस ने अपनी हार सुनिश्चित कर ली.
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