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Updated: 21 दिसम्बर, 2020 04:34 PM
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मुश्किलें जहां भी होती हैं, उनका असर कभी एकतरफा नहीं होता. किसी के लिए थोड़ा कम तो किसी और के लिए थोड़ा ज्यादा हो सकता है. मुश्किलें जब दो विरोधियों के बीच हथियार के रूप में जगह पा जाती हैं तो दुधारी तलवार का शक्ल अख्तियार कर लेती हैं - और फिर नुकसान भी दोनों तरफ होते हैं. बस थोड़ा कम या थोड़े ज्यादा का फर्क रहता है.

पश्चिम बंगाल में बीजेपी नेता अमित शाह (Amit Shah) और ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के सामने ऐसी ही मुश्किलें हैं जो चुनौती बनी हुई हैं. ममता बनर्जी निश्चित तौर पर इस वक्त ज्यादा नुकसान उठा रही हैं, लिहाजा बीजेपी फायदे में है - लेकिन चुनाव तक ऐसा ही माहौल होगा. ममता बनर्जी ही घाटे में रहेंगी और बीजेपी को फायदा होगा, ऐसी गारंटी भी तो नहीं है.

अमित शाह पश्चिम बंगाल चुनाव (West Bengal Election 2021) में भी वैसे ही आगे बढ़ते चले जा रहे हैं जैसे इसी साल के शुरू में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में. जैसे दिल्ली में अमित शाह और उनके साथी अरविंद केजरीवाल के खिलाफ आक्रामक रूख अख्तियार किये हुए थे, ममता बनर्जी के खिलाफ भी करीब करीब वैसा ही माहौल बन चुका है.

बीजेपी के सामने दिल्ली में जो सबसे बड़ी चुनौती रही, पश्चिम बंगाल में भी वैसी ही है - कौन बनेगा बीजेपी का मुख्यमंत्री?

अमित शाह को ऐलान करना पड़ा है कि अगर चुनावों में बीजेपी की जीत होती है तो अगला मुख्यमंत्री बंगाल की मिट्टी से ही होगा. अब तक के भाषणों में अमित शाह बंगाल से जुड़े बीजेपी नेताओं के नाम तो लेते हैं, लेकिन संदेश यही होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही बीजेपी पश्चिम बंगाल चुनाव में लड़ रही है.

बीजेपी में चेहरे का संकट

पश्चिम बंगाल के बोलपुर में बीजेपी समर्थकों की भीड़ उमड़ पड़ी थी - और ये देख कर अमित शाह बोल पड़े कि ऐसा रोड शो तो जीवन में नहीं देखा. अमित शाह ने कहा कि बीजेपी अध्यक्ष रहते भी कई रोड शो किये, लेकिन बंगाल के बोलपुर जैसा सैलाब नहीं देखा.

बीजेपी नेता अमित शाह ने रोड शो की भीड़ और सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन कर रहे नेताओं 'बंगाल में बदलाव की तड़प' बताया है. अमित शाह बंगाल के लोक मानस पर ममता बनर्जी के ही औजार का इस्तेमाल कर रहे हैं - परिवर्तन. परिवर्तन के नाम पर ही ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल से लेफ्ट की सत्ता का सफाया कर अपना राज कायम किया - और अब उसे काफी बड़ी चुनौती मिलने लगी है. ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस में भगदड़ मची हुई है और वो अपने उन नेताओं को भी साथ रख पाने में नाकाम साबित हो रही हैं जो कभी उनके लिए एक पैर पर खड़े रहा करते थे - उनकी हर बात को पत्थर की लकीर माना करते थे.

mamata banerjee, amit shahबीजेपी की सबसे बड़ी चुनौती ममता बनर्जी के मुकाबले मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा नहीं है

ये तो सबको मालूम है कि ममता बनर्जी अपने राजनीतिक जीवन के बेहद मुश्किल दौर से गुजर रही हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं कि ये कोई नयी बात है. ममता बनर्जी हमेशा ही ऐसी चुनौतियों से जूझती रही हैं. कई बार तो सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता है तो भी ममता बनर्जी अपने सामने चुनौतियां खड़ी कर लेती हैं और इसके पीछे अक्सर तुनकमिजाजी में लिए उनके फैसले होते हैं.

तस्वीर के दूसरे पहलू पर नजर डालें तो ममता बनर्जी को मुश्किल में डालने के बावजूद बीजेपी के सामने भी चुनौतियों की कमी नहीं है - सबसे बड़ी मुश्किल तो ये है कि बीजेपी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसे वो ममता बनर्जी के मुकाबले खड़ा कर सके. ठीक ऐसा ही दिल्ली विधानसभा चुनाव में देखने को मिला था.

बीजेपी की दिक्कत ये होती है कि स्थानीय नेताओं को भी वो फ्रंट पर निर्भीक होकर लड़ने नहीं देती.

दिल्ली चुनाव में बीजेपी चाहती तो पार्टी की बैठकों में साफ साफ बोल देती कि कोई भी पहले से खुद को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार मान कर न चले, लेकिन ये बात दिल्ली के लोगों को नहीं बताती. तो भी काम चल जाता. मनोज तिवारी चुनावों के दौरान दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे. ग्लैमर के मामले में मनोज तिवारी में कोई कमी तो है नहीं. रही बात स्थानीय राजनीति पर पकड़ की तो बीजेपी उनके संसदीय क्षेत्र की सीटें भी गंवा बैठी थी.

अमित शाह ने ये समझाने में ही इतनी ऊर्जा खत्म कर दिया कि मनोज तिवारी तो बीजेपी के सत्ता हासिल करने पर मुख्यमंत्री नहीं बनने वाले. जब से मनोज तिवारी को दिल्ली बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया था वो लगातार अरविंद केजरीवाल के खिलाफ आक्रामक बने रहे. तभी अमित शाह ने अरविंद केजरीवाल को प्रवेश वर्मा के साथ बहस करने के लिए चैलेंज कर दिया. लोगों को कन्फ्यूज होना ही था. हो गये और फैसला सुना दिये.

पश्चिम बंगाल में भी वही हाल है. मान लेते हैं कैलाश विजयवर्गीय तो मध्य प्रदेश से जाकर पश्चिम बंगाल के प्रभार की रस्म निभाते हैं. वैसे भी उनका दिल मध्य प्रदेश में लगा रहता है और दिमाग पश्चिम बंगाल में लगाना पड़ता है. प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष और राज्यपाल जगदीप धनखड़ बारी बारी तो कभी साथ ही साथ ममता बनर्जी को घेरे रहते हैं.

ढोल बाजे के साथ बीजेपी में आने वाले शुभेंदु अधिकारी के बारे में भी सबको मालूम है कि वो तो बीजेपी के सत्ता में आने पर भी मुख्यमंत्री बनने से रहे, भले ही आगे चल कर वो बीजेपी में असम वाले हिमंता बिस्वा सरमा जैसा जौहर ही क्यों न दिखाने लगें - मुख्यमंत्री तो वही बनेगा जो संघ का प्रचारक रहा होगा.

असम में भी 2016 के चुनाव के लिए पहले से ही बीजेपी ने सर्बानंद सोनवाल को भेज दिया था. तब वो केंद्र सरकार में मंत्री हुआ करते थे, लेकिन उनको पहले से ही मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया था. शायद ये 2015 में दिल्ली और बिहार चुनाव में बीजेपी को मिली हार के चलते एहतियाती उपाय भी था. हालांकि, उसके बाद यूपी में बीजेपी बगैर चेहरे के ही लड़ी - और चुनाव जीतने के कई दिनों बाद तक सस्पेंस बने रहने के बाद योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद की शपथ लिये.

बीजेपी की जो भी मजबूरी रहती हो, लेकिन जैसे जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती जाएगी, बीजेपी को मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर हमेशा ही सफाई देती रहनी पड़ सकती है - और ये पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी के लिए बहुत बड़ी बाधा है.

दिल्ली वाला ही एजेंडा है

पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम मतदाता है और ये ममता बनर्जी के कोर-वोटर माने जाते हैं. साफ है बाकी बचे 70 फीसदी हिंदुओं में ही बीजेपी अपना भविष्य देख रही होगी. अनुपात तो बहुत बड़ा है, लेकिन ममता बनर्जी का वोटर एकजुट होगा. हो सकता है असदुद्दीन ओवैसी उसमें कुछ खलल डालकर वोट काटने की कोशिश करें. ये भी हो सकता है ओवैसी की पार्टी AIMIM कुछ सीटें जीत भी ले और कई सीटों पर बिहार में चिराग पासवान की तरह बंगाल में ममता बनर्जी की जड़ें खोदने में कामयाब भी रहे, लेकिन ये सब बाद की बातें हैं.

ऐसा भी तो नहीं कि सारे हिंदू ममता बनर्जी के खिलाफ ही होंगे और सब के सब एकजुट होकर बीजेपी को वोट दे देंगे. याद रहे 2019 की मोदी लहर में भी बीजेपी को 18 सीटें ही मिली हैं, जबकि 22 सीटों पर ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का कब्जा बरकरार है.

यही वजह है कि दिल्ली की ही तरह बीजेपी ममता बनर्जी पर तुष्टिकरण के आरोप लगा रही है. हो सकता है चुनाव आते आते अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा जैसे नेता भी पश्चिम बंगाल में मोर्चा संभाल लें और अरविंद केजरीवाल की ही तरह ममता बनर्जी को आतंकवादी साबित करने में जुट जायें. बीजेपी नेताओं के इस हमले का जबाव अरविंद केजरीवाल ने बड़ी ही संजीदगी से दिया था - 'अगर आतंकवादी मानते हो तो 8 फरवरी को बीजेपी को वोट दे देना.'

ध्यान देने वाली बात है कि बीजेपी नेताओं के हमले को काउंटर करने वाली लाइन अरविंद केजरीवाल को उनकी चुनावी मुहिम संभाल रहे प्रशांत किशोर ने ही सुझायी होगी - वही प्रशांत किशोर ममता बनर्जी का इलेक्शन कैंपन भी काफी पहले से ही संभाल रहे हैं.

और परदे के पीछे PK

दिल्ली और पश्चिम बंगाल चुनावों में बीजेपी के हिसाब से फर्क ये दिखा है कि जैसे तृणमूल कांग्रेस छोड़ने पर उतारू नेताओं की लंबी कतार है, दिल्ली आप के साथ ऐसा नहीं था. वैसे दिल्ली में भी तो आप से कुछ नेताओं ने पाला बदल कर बीजेपी ज्वाइन किया ही था.

दिल्ली में कपिल मिश्रा के तेवर भी तो शुभेंदु अधिकारी जैसे ही रहे. पूरे चुनाव के दौरान अपने बयानों को लेकर दिल्ली में जो दो-तीन नेता छाये रहे उनमें से एक कपिल मिश्रा भी तो रहे, लेकिन नतीजे आये तो मालूम हुआ खुद अपनी सीट भी नहीं बचा पाये.

माहौल चुनाव नतीजों पर असर पड़ता है, लेकिन वो महज एक फैक्टर होता है. माहौल उन वोटर को ज्यादा प्रभावित करता है जो आखिर तक फैसला नहीं ले पाते कि किसे वोट देना है. कई बार वे निर्णायक भी साबित होते हैं.

लेकिन ये भी तो है कि चुनाव सिर्फ एक ही चीज के बूते न लड़े जाते हैं और न ही जीते जाते हैं. पूरी चुनाव के दौरान ऐसे कई उतार चढ़ाव आते हैं जिनको बड़ी ही चतुरायी के साथ हैंडल करना होता है. प्रशांत किशोर ऐसी ही मर्ज की दवा हैं और जिस तेवर वाले अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी नेता हैं पीके उनकी कमियों को छिपा कर मजबूत बना देते हैं.

बीजेपी नेताओं ने अरविंद केजरीवाल को पूरे चुनाव शाहीन बाग के नाम पर खूब उकसाया. बीजेपी की कोशिश रही कि एक बार अरविंद केजरीवाल शाहीन बाग घूम आयें, फिर तो बाजी पलट ही देंगे. परदे के पीछे काम कर रहे प्रशांत किशोर ऐसी ही छोटी छोटी चीजों पर गौर करते हैं और गाइड करते हैं कि कब चुप रहना है और कब बोलना है - और बोलना भी है तो कितना और क्या?

ममता बनर्जी के हाव भाव और भाषणों में काफी दिनों से प्रशांत किशोर का असर देखा जा रहा है - बीजेपी पर तो वो हमलावर और आक्रामक रहती ही हैं, लेकिन बाकी सब से हंसते मुस्कुराते मिलती हैं. ऐसा आम चुनाव के दौरान नहीं था. तब तो आलम ये रहा कि चलते चलते कहीं जय श्रीराम का नारा सुन लेतीं तो गाड़ी रोक कर वहीं बिफर पड़ती थीं.

परदे के पीछ रह कर प्रशांत किशोर कदम कदम पर ममता बनर्जी की राजनीति को तराश रहे हैं - और बीजेपी के सामने खड़ी चुनौतियों में ये भी एक है.

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