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Updated: 26 दिसम्बर, 2021 10:39 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के लिए पूरे दस साल बाद 2021 शानदार रहा. बेहद शानदार कहें तो बेहतर होगा. 2011 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने में और 2021 में लगभग वैसी ही परिस्थितियों में कायम रखने में कामयाब रहीं - अब सामने पूरा 2022 है और उसका जितना ज्यादा इस्तेमाल हो उतना भी मुफीद रहेगा.

हाथ-पांव तो ममता बनर्जी ने 2019 में भी खूब मारे थे, लेकिन 2021 विधानसभा चुनाव की जीत ज्यादा ही आत्मविश्वास बढ़ाने वाली रही - तभी तो दिल्ली की बड़ी कुर्सी पर नजर जा टिकी है. कांटे तो कुर्सी पर भी होंगे ही, लेकिन पहले रास्ते में भी कंटीला जंगल है जिसे काट कर ही आगे बढ़ा जा सकता है.

ममता बनर्जी खुद को फाइटर बताती हैं और हरदम उसी अंदाज में रहती भी हैं. कई बार हालात लोगों को फाइटर बना देते हैं, लेकिन ममता बनर्जी, दरअसल, मन से फाइटर हैं. ऐसे फाइटर को मौके की ही तलाश नहीं होती, वो किसी भी मौके को अपने लिए पंचिंग बैग बना ही लेता है - कई बार ऐसा बेवजह भी हो जाता है, लिहाजा नतीजे भी नुकसानदेह ही होते हैं.

ममता बनर्जी ऐसी फाइटर हैं जो आगे बढ़ते वक्त टीम से ही आगे निकल जाती हैं. इतना आगे कि मोर्चे पर अकेले पड़ जाती हैं - पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद से ममता बनर्जी के साथ कदम कदम पर ऐसा ही हो रहा है.

ममता बनर्जी को लगता है कि प्रशांत किशोर और शरद पवार के रूप में उनके पास इंडिया की बेस्ट टीम हो गयी है. रथ पर सवार होकर वो आगे बढ़ती भी है. मान कर चलती हैं डबल सारथी के साथ निकली हैं. एक आगे, एक पीछे. लेकिन जिन्हें सारथी समझती हैं उनकी आंखें तो घोड़ों की तरह ऐसे ढंकी नहीं होतीं कि सिर्फ सामने देखें और अगल बगल नजर न पड़े - रास्ते में मृग मरीचिका नजर आते ही वे भटक जाते हैं.

जैसे राहुल गांधी के बुलाने पर प्रशांत किशोर 12, तुगलक लेन पहुंच गये थे, सोनिया गांधी का बुलावा आते ही शरद पवार भी 10, जनपथ पहुंच जाते हैं - और जिस यूपीए को मुंबई की सिल्वर ओक की दो बैठकों के बूते ममता बनर्जी खारिज कर चुकी होती हैं, वो फिर से रास्ते की दीवार बन जाता है.

संघ-बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के साथ साथ अमित शाह से तो बाद में मुकाबला होगा, पहले तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी से ही लोहा लेना होगा - और ये तभी संभव हो पाएगा जब विपक्षी खेमे के बाकी नेताओं की भी ममता बनर्जी की फाइटर छवि में दिलचस्पी बरकरार रहे.

जो बीत गया, वो बीत गया. बीत जाने का ये भी मतलब नहीं होता कि कुछ बचा नहीं. बीती बातें अगर सबक नहीं बन पातीं तो आगे भी कोई 'पोरिबोर्तन' नहीं होन वाला - अगर 2022 में एक आम जनमानस के माफिक एक ठोस प्लान (Resolution 2022) के साथ ममता बनर्जी आगे बढ़ती हैं तो सफर भी थोड़ा आसान हो सकता है और मंजिल भी काफी करीब होगी.

1. इलेक्शन मॉडल नहीं चलेगा

2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने दिल्ली की तरफ कदम बढ़ाया तो बताने के लिए गुजरात मॉडल हुआ करता था. बेशक ममता बनर्जी भी मोदी की ही तरह लगातार तीसरा विधानसभा चुनाव जीतने के बाद दिल्ली का मन बनाया है. बेशक ममता बनर्जी की तीसरी पारी की जीत मोदी के चुनावी सलाहकार रहे प्रशांत किशोर ने ही सुनिश्चित की है - और बेशक 2014 में मोदी के लिए चाय पर चर्चा कराने वाले पीके ही आने वाले दिनों में भी ममता बनर्जी को मंजिल तक पहुंचाने का ठेका लिये हुए हैं, लेकिन ममता बनर्जी के पास बताने के लिए कौन सा मॉडल है.

mamata banerjeeममता बनर्जी को भी मंजिल हासिल करने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ सकता है

गुजरते वक्त के साथ बीजेपी ने भी गुजरात मॉडल को पीछे छोड़ दिया और जमाने के साथ कदम बढ़ते हुए नया अपग्रेड वर्जन लाया है - अयोध्या मॉडल. अयोध्या की ही तरह एक मॉडल वाराणसी मॉडल भी है - और पाइपलाइन में मथुरा मॉडल भी है.

नाम से भले ही इनमें हिंदुत्व की झलक दिखायी पड़ती हो, लेकिन ममता बनर्जी को समझ लेना चाहिये कि ये ही नये मिजाज के विकास के मॉडल हैं. ऐसा विकास मॉडल जो हिंदुत्व की राजनीति को भी सूट करता हो.

मुकाबले में पेश करने के लिए ममता बनर्जी के पास क्या है?

सिर्फ इलेक्शन मॉडल से अब काम नहीं चलने वाला. सिर्फ यही कि ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस की नेता हैं जो पश्चिम बंगाल में लगातार तीन चुनाव जीत चुकी है - पहली बार तब की सबसे ताकतवर लेफ्ट को शिकस्त देकर और तीसरी बार मौजूदा दौर की सबसे मजबूत बीजेपी को हरा कर.

निश्चित तौर पर ये चुनावी जीत का सफलतम मॉडल हो सकता है. ये विपक्षी खेमे में बताने, भरोसा दिलाने और अपनी बात मनवाने के लिए तो ठीक हो सकता है, लेकिन बाहर नहीं चलने वाला. सवाल तो ये भी है कि ये विपक्षी खेमे में भी कहां चल पा रहा है?

पश्चिम बंगाल के शासन से ममता बनर्जी के पास ऐसा क्या है जो वो बंगाल से बाहर के लोगों को दे सकती हैं या दिखा सकती हैं?

ममता बनर्जी को 2022 में ऐसी ही चीजों पर काम करने की जरूरत होगी. जरूरी नहीं कि वो गुजरात या अयोध्या मॉडल जैसा ही हो, लेकिन कोई एक होना तो चाहिये ही!

2. मिसफिट आइडियोलॉजी भी नहीं

संघ और बीजेपी ने बेहतरीन परसेप्शन मैनेजमेंट के जरिये ऐसा नैरेटिव गढ़ा है कि बाकी सारी आइडियोलॉजी फेल है. राष्ट्रवाद के साथ हिंदुत्व का विकास मॉडल - बस यही नये मिजाज की आइडियोलॉजी है, बाकी सब बेकार किताबी बातें हैं. बाकियों का अकादमिक इस्तेमाल हो सकता है, सेमिनार और ऐसे मिलते जुलते मंचों पर बहस भी की जा सकती है, लेकिन चुनावी राजनीति में तो बाकी सब मिसफिट हैं. मिसफिट आइडियोलॉजी भी नहीं चलेगी.

हिंदुत्व और हिंदुत्ववादी की बहस में उलझा कर राहुल गांधी भले भी संघ और बीजेपी से अलग अपनी आइडियोलॉजी समझाने की कोशिश करें, लेकिन राजनीति तो वो भी हिंदुत्व की ही शुरू कर चुके हैं. अगर अब भी राहुल गांधी बतायें कि संघ और बीजेपी के साथ उनका आइडियोलॉजी अलग होने का फर्क है, लेकिन सच तो ये है कि फर्क सिर्फ सत्ता में होने और न होने का रह गया है. अगर सत्ता भी राजनीति में किसी आइडियोलॉजी की ही तरह है तो फर्क अपनेआप खत्म हो जाता है, फिर चाहे जितना भी समझाते फिरें. फर्क ही क्या पड़ता है?

और ममता बनर्जी के आइडियोलॉजिकल फ्रेंड अरविंद केजरीवाल तो हनुमान चालीसा पढ़ते पढ़ते हनुमान जी को थैंकू बोलने तक ही नहीं रुक - अब तो विज्ञापन देकर जय श्रीराम के नारे लगाने शुरू कर चुके हैं. वही नारा जो सुन कर ममता बनर्जी भड़क जाती हैं.

ये भी सत्ता की राजनीति के चलते ही हो रहा है. ये तो ममता बनर्जी भी समझ ही चुकी होंगी कि अभी का आम जनमानस पहले जैसा नहीं रहा. आगे जो भी हो, लेकिन अभी तो नहीं ही है - राजनीतिक जागरुकता के नाम पर व्हाट्सऐप और बाकी सोशल मीडिया के जरिये जो जो ब्रेन वॉश हुआ है, कोई सुनने को तैयार तो नजर नहीं आ रहा है - और ये तब तक चलता रहेगा जब तक बहुमत का मोहभंग नहीं हो जाता.

जब तक कोरोना काल के संकट को भी यूं ही भुलाते रहेंगे. जब तक कानून-व्यवस्था की समझ खुद में नहीं बन जाती. जब तक लोग सत्ता पक्ष को पूरी तरह सही और बाकियों को पूरी तरह गलत मान लेने की आदत नहीं छोड़ते, कुछ भी नहीं होने वाला है. तभी तो मीडिया भी निशाने पर है - भले ही जिम्मेदारी भी मीडिया की ही हो.

एक बार संपर्क फॉर समर्थन मुहिम चलायी जाती है. उसके बाद से अब कदम कदम पर वॉलंटियर उग आये हैं. जैसे वे ऑटोमोड में रहते हों. जो बात आईटी सेल के जरिये समझाया जाता है - वो मानते भी हैं और चाहते हैं कि बाकी लोग भी मान लें. ऐसा न होने पर या फिर विरोध होने पर वे झगड़ा करने लगते हैं - ये भी नहीं देखते कि सामने वाला दोस्त है, घर परिवार का है या फिर कोई और.

ममता बनर्जी अगर ऐसे मोर्चों पर चूक जाती हैं तो कुछ भी हासिल नहीं होने वाला - और अगर सटीक काउंटर मेकैनिज्म नहीं है तो भी भाग दौड़ से कोई फायदा नहीं होने वाला है.

3. कम्यूनिकेशन स्किल में सुधार भी जरूरी

कम्यूनिकेशन स्किल सिर्फ वही नहीं है जो ममता बनर्जी बंगाली समाज को समझा लेती हैं - और ये भी जरूरी नहीं है कि ममता बनर्जी अगर शुद्ध हिंदी में भाषण नहीं देंगी तब तक कोई समझ नहीं पाएगा.

हिंदी बोलना और ठीक से समझना भी जरूरी है. और मणिशंकर अय्यर की तरह हिंदी के नाम पर बाद में बहानेबाजी भी नहीं चलेगी. टूटी फूटी हिंदी में भी कोई मतलब की बात बोलेगा तो सुनने वाला समझ ही लेता है. बशर्ते वो सुनने वाले के मन की बात हो. ये बात अलग है कि लोग जिसे पसंद करते हैं उसके मन की बात भी मन लगाकर सुनते हैं.

ममता बनर्जी ने बोल तो दिया था, 'यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है,' लेकिन क्या असर हुआ? राजनीति में कम्यूनिकेशन स्किल का ज्यादा मतलब पॉलिटिकली करेक्ट होने से है. शरद पवार ने कुछ नहीं कहा, लेकिन अगले ही दिन शिवसेना के मुखपत्र सामना में लंबा चौड़ा चिट्ठा आ गया. आगे क्या हुआ सबने देखा ही.

ममता बनर्जी को ये तो सीखना ही होगा. बंगाल की चुनावी रैलियों वाले भाषण नहीं चलेंगे. वे अगले चुनावों में काम के हो सकते हैं, लेकिन अभी तो हरगिज नहीं. ममता बनर्जी ये पक्ष जितना जल्दी सुधार लें - उत्तम होगा.

4. टीम वर्क भी सीखना ही होगा

जब भी ममता बनर्जी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलती हैं तो भूल जाती हैं कि वैसे ही सवाल उन पर भी उठते रहे हैं. राहुल गांधी तो पश्चिम बंगाल चुनाव की अपनी एकमात्र रैली में यही समझाते रहे. राहुल गांधी ने कहा था, 'हिंदुस्तान में नरेंद्र मोदी लोकतंत्र पर आक्रमण कर रहे हैं और यहां पर ममता जी कर रही हैं.'

ममता बनर्जी की राजनीति में टीम वर्क हमेशा ही चुनौती पूर्ण रहा है. मजबूरी में ही ममता बनर्जी भी किसी के साथ होती हैं और कोई और भी उनके साथ मजबूरी में ही होता है. पश्चिम बंगाल में चूंकि वही नेता हैं, लिहाजा सारे मातहत सुन कर चुप हो जाते हैं. करें भी तो क्या करें, लेकिन गठबंधन की राजनीति में कोई किसी को ऐसे बर्दाश्त भी एक हद तक ही कर पाता है.

चाहे ममता बनर्जी एनडीए में बीजेपी के साथ रही हों या फिर यूपीए में कांग्रेस के साथ - ऐसा कोई मौका शायद ही रहा हो जब ममता बनर्जी ने अपना विरोध न जताया हो. गठबंधन की राजनीति में भी और सरकारी कामकाज में भी ये देखने को मिलता है. अमृत महोत्सव के तहत प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रम को लेकर भी ममता बनर्जी नाराज हैं कि दो घंटे उनको बिठाये रखा गया और बोलने नहीं दिया गया. कोविड की पहली और दूसरी लहर के दौरान मुख्यमंत्रियों की बैठकों में और भी मुख्यमंत्रियों की ऐसी शिकायतें होती थीं, लेकिन विरोध का झंडा हमेशा ही ममता बनर्जी के हाथ में ही नजर आता था.

अगर ममता बनर्जी दिल्ली में भी पश्चिम बंगाल के नेताओं जैसा ही व्यवहार खोज रही हैं तो, बेहतर होगा जैसे नीतीश कुमार पटना लौट कर कुंडली मार कर बैठ गये, वैसा ही रास्ता देख लें. ममता बनर्जी को ये भी नहीं भूलना चाहिये कि अब वो पहले की तरह किसी गठबंधन का हिस्सेदार नहीं, बल्कि नेता बनने की कोशिश कर रही हैं - ऐसे में चाहें तो कभी वक्त निकाल कर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से टिप्स ले लें. दूसरा रास्ता ये है कि पहले प्रधानमंत्री मोदी की तरह गठबंधन को स्वीकार करें और बाद में मौका मिलने पर ऐसा मैंडेट हासिल करें कि गठबंधन की अहमियत ही न रह जाये.

5. बतायें विकल्प क्यों हैं

2019 में ही साफ हो चुका है बहुमत बीजेपी और मोदी के साथ हो गया है - और बंगाल में हुए आम चुनाव में वो ममता बनर्जी के मोहपाश में भी नहीं रह पाया. बंगाल में बीजेपी का दो से 18 सीटों पर पहुंचना उसी का उदाहरण है. साफ है राष्ट्रीय स्तर पर लोगों की पंसद अलग है और स्टेट लेवल पर अलग - बंगाल से दिल्ली तक यही नजारा है.

भले ही ममता बनर्जी लोगों को बताती फिरें कि बीजेपी सब गलत कर रही है, लेकिन कोई सुने तब तो. कोई सुनने, समझने और मानने वाला भी तो होना चाहिये - जब तक लोग ये न समझ लें और मान लें ममता बनर्जी गुस्सा होने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकतीं.

और इसके लिए सबसे जरूरी है कि ममता बनर्जी लोगों के बीच बेहतर विकल्प लेकर पहुंचे. लोगों से बात करें. समझायें कि उनके पास बीजेपी से बेहतर क्या प्रोग्राम हैं. जो लोग 2014 से पहले कांग्रेस को वोट देते रहे, वे ही तो अब बीजेपी को सिर और आंख पर बिठाने के बाद दिलों में बसा चुके हैं. अगर ममता बनर्जी कोई बेहतर विकल्प पेश करें तो पाला बदलते देर नहीं लगेगी. ये पब्लिक है और पब्लिक मेमरी हमेशा ही शॉर्ट होती है. जैसे लोग भूल जा रहे हैं कि 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ जंग जीतने वाली इंदिरा गांधी कांग्रेस की नेता रहीं, सर्जिकल स्ट्राइक भूलते भी देर नहीं लगेगी - लेकिन पहले ममता बनर्जी खुद को बेहतर विकल्प के तौर पर पेश तो करें!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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