ममता कहीं पवार और PK की महत्वाकांक्षाओं का टूल तो नहीं बनती जा रही हैं
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) को आगे बढ़ने से पहले ये समझना होगा कि कहीं वो शरद पवार (Sharad Pawar) और प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) की रणनीतियों में पिसने तो नहीं लगी हैं - जिनके पीछे दोनों के निजी हित और राजनीतिक महत्वाकांक्षा हो सकती है.
-
Total Shares
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की हालिया सक्रियता बता रही है कि वो कांग्रेस मुक्त विपक्ष जैसी कोई मुहिम चला रही हैं. मुश्किल ये है कि जिनके सपोर्ट से वो आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं, वे लोग ही उनकी रणनीति से सहमत नहीं हैं. सहमत की कौन कहे, बल्कि वे लोग कड़ा ऐतराज जताने लगे हैं.
ममता बनर्जी के महाराष्ट्र दौरे के बाद ये तस्वीर ज्यादा साफ नजर आने लगी है. ममता बनर्जी ने शरद पवार के साथ मीटिंग में कांग्रेस को लेकर जो सलाह दी उस पर वो कुछ बोले नहीं, लेकिन उसके बाद शिवसेना के मुख पत्र सामना के संपादकीय में जो कुछ लिखा गया, लगा जैसे वो एनसीपी नेता के ही मन की बात हो. सामना के मुताबिक, कांग्रेस को हटा कर विपक्ष के एकजुट होने का आइडिया ही सही नहीं है.
ये तो साफ है कि कांग्रेस को लेकर ममता बनर्जी के विचार से शरद पवार (Sharad Pawar) इत्तेफाक नहीं रखते - और ममता बनर्जी के चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर अपनी रणनीति के हिसाब से खुद भी चल रहे हैं और जाहिर है ममता बनर्जी को भी वैसा ही सब अच्छा लग रहा है. वैसे भी जिन मुश्किल हालात में ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल चुनाव जीता है, प्रशांत किशोर तो मसीहा लग ही रहे होंगे.
ऐसा क्यों लगता है जैसे ममता बनर्जी किसी पॉलिटिकल ट्रैप में फंसती जा रही हैं - और उसके पीछे प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) और शरद पवार की अपनी अपनी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हो सकती हैं. अगर ममता बनर्जी और उनके पुराने सलाहकार ध्यान दें तो सामने जो कुछ चल रहा है, उसके पीछे की चीजें और मंशा भी समझी जा सकती है.
शरद पवार और प्रशांत किशोर का कांग्रेस को लेकर स्टैंड तो सीधे सीधे, आमने सामने टकरा रहा है. अगर ये दोनों ममता बनर्जी के वास्तव में हितैषी हैं तो मतभेदों के बावजूद ऐसा कोई रास्ता खोजते तो कॉमन हो और ममता बनर्जी के लिए फायदेमंद हो, लेकिन जो कुछ चल रहा है वो तो ऐसा लग रहा है जैसे ममता बनर्जी को निजी हितों के लिए हथियार बनाया जा रहा हो - और बैलेंस या ऐडजस्ट करने में ममता बनर्जी ही मिसफिट हो जा रही हों.
कांग्रेस को लेकर प्रशांत किशोर और शरद पवार के मकसद बिलकुल अलग अलग हैं - प्रशांत किशोर यानी PK डाटा पॉलिटिक्स करते हैं, तो शरद पवार के पास के पास राजनीति के खांटी दांवपेंच का बरसों का प्रैक्टिकल अनुभव है. हाल फिलहाल ऐसे दो मौके देखने को मिले जब शरद पवार ने ये साबित भी किया. एक बार, जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले उनको ईडी का नोटिस मिला था - और दूसरी बार, जब मूसलाधार बारिश में सतारा के मंच पर चढ़ कर भाषण दिये और बीजेपी के दिग्गज उम्मीदवार की हार पहले ही सुनिश्चित कर डाली.
प्रशांत किशोर अपने प्लान के मुताबिक, अगर सब कुछ मन माफिक होता तो पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद ही कांग्रेस ज्वाइन कर चुके होते - और शरद पवार महाराष्ट्र में गठबंधन की सरकार बनवाने के बाद ही यूपीए के अध्यक्ष न सही, किसी विपक्षी फोरम के संयोजक बने होते, लेकिन दोनों में से किसी का भी काम अब तक नहीं बना है.
जब निजी तौर पर कोई किसी टास्क को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाता तो उसके लिए खास टूल की जरूरत होती है - और अभी तो ऐसा ही लगता है जैसे शरद पवार और प्रशांत किशोर दोनों ही को ममता बनर्जी की राजनीति में एक बेहतरीन टूल नजर आ रहा है.
शरद पवार की ख्वाहिशें
1. ममता बनर्जी की मुहिम किधर जा रही है: बेशक ममता बनर्जी महाराष्ट्र में कांग्रेस को गठबंधन सरकार से आउट करने का इरादा लेकर शरद पवार के पास पहुंची थीं, लेकिन न सिर्फ एनसीपी नेता ने ऐसा करने से मना कर दिया, बल्कि - सामना के जरिये शिवसेना ने भी ऐसे प्रयासों को आगे के लिए भी खारिज कर दिया है.
लेकिन क्या ममता बनर्जी वास्तव में कांग्रेस को पूरी तरह रास्ते से हटा देना चाहती हैं? तृणमूल कांग्रेस सांसद डेरेक ओ'ब्रायन की बातों से तो लगता है कि ममता बनर्जी भी ऐसा नहीं चाहतीं. ममता बनर्जी अलग अलग जगह अलग रणनीति पर काम के पक्ष में हैं.
शरद पवार पूरे विपक्ष को एकजुट करना चाहते हैं, लेकिन अगर प्रशांत किशोर तीसरे मोर्चे के पक्षधर हैं तो ममता बनर्जी को एक बार ठंडे दिमाग से खुद भी सोचना चाहिये कि उनको क्या पसंद है?
कांग्रेस को खत्म करने जैसी बातों को डेरेक पूरी तरह गलत बताते हैं. वो चाहते हैं कि पर्सनल संबंधों को अलग रख कर देखा जाना चाहिये - और इसके लिए वो कांग्रेस ही नहीं केजरीवाल का भी उदाहरण देते हैं. डेरेक ये भी समझाते हैं कि कैसे ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की राजनीति में कोई तुलना नहीं हो सकती है. दिल्ली में महज सात लोक सभा सीटें हैं और केजरीवाल के पास एक भी नहीं हैं, जबकि बंगाल में टीएमसी हर तरीके से मजबूत है - और ममता बनर्जी लंबे समय तक सांसद भी रही हैं.
डेरेक एक इंटरव्यू में बताते हैं - जैसे टीएमसी महाराष्ट्र या यूपी नहीं जा रही है, वैसे ही राजस्थान और एमपी भी तो नहीं जा रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि टीएमसी को लगता है कि दोनों ही राज्यों में बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस मजबूत स्थिति में है. ध्यान रहे राजस्थान में कांग्रेस की ही सरकार है और लॉकडाउन से पहले तक मध्य प्रदेश में भी ऐसा ही था, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ते ही कमलनाथ सरकार गिर गयी और बीजेपी सत्ता पर काबिज हो गयी. फिर भी डेरेक की मानें तो ममता बनर्जी की नजर में मध्य प्रदेश में दखल देने जैसी जरूरत नहीं लगती.
त्रिपुरा, गोवा और मेघालय को तृणमूल कांग्रेस सांसद एक ही कैटेगरी में रख कर पेश करते हैं - जहां विपक्ष कमजोर है. डेरेक का विपक्ष से आशय उन सभी राजनीतिक दलों से है जो बीजेपी के खिलाफ हैं.
2. शरद पवार की रणनीति क्या है: थोड़ी देर के लिए तो ये भी लगता है जैसे शरद पवार भी जेपी की तरह सोच रहे हों - हालांकि, शरद पवार की रणनीति में निजी राजनीतिक नफा नुकसान भी समझा जा सकता है. शरद पवार की एक कोशिश अपनी बेटी सुप्रिया सुले के लिए भी कोई कारगर इंतजाम करना जरूरी है. वो अब तक न तो महाराष्ट्र की राजनीति में फिट हो पायी हैं, न दिल्ली की राजनीति में ही.
जेपी यानी जय प्रकाश नारायण की तरह वो कुछ नहीं कर सके तो इतनी कोशिश तो होगी ही कि विपक्षी मोर्चे का संयोजक बन कर वो सुप्रिया सुले के लिए कोई सम्मानजनक इंतजाम तो कर ही दें.
अगर ममता बनर्जी को भी लगता है कि 80 साल की उम्र में शरद पवार प्रधानमंत्री पद की होड़ में उनके लिए राह का रोड़ा नहीं बनेंगे, लेकिन क्या राजनीति की आखिरी पारी वो राष्ट्रपति भवन में गुजारने के भी ख्वाहिशमंद नहीं होंगे? फिर तो जरूरी है कि वो वक्त रहते ऐसा कोई इंतजाम कर लें जो उनको मंजिल तक पहुंचा सके.
जैसे जेपी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल करने का इरादा कर लिया था, शरद पवार भी तो कुछ कुछ वैसा ही सोचते हैं. ये सब महाराष्ट्र में बीजेपी से शिवसेना को अलग कर सरकार बनवाने के उनके प्रयास ही बताते हैं. कहा तो ये भी जाता है कि उद्धव ठाकरे सरकार का रिमोट कंट्रोल भी शरद पवार के पास ही रहता है.
शरद पवार चाहते हैं कि महाराष्ट्र की ही तर्ज पर देश के बाकी हिस्सों और दिल्ली में भी राजनीतिक मोर्चेबंदी हो सके और सब मिल जुल कर बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने के लिए एकजुट होकर कोशिश करें.
3. कांग्रेस इतनी महत्वपूर्ण क्यों: शरद पवार भी ममता बनर्जी की ही तरह कांग्रेस से निकल कर आये हैं - और महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार की तैयारियों के दौरान की गतिविधियों को याद करें तो कांग्रेस के प्रति शरद पवार का नजरिया भी समझा जा सकता है. शिवसेना के साथ बातचीत में पहले शरद पवार एनसीपी के साथ साथ कांग्रेस की तरफ से भी डील कर रहे थे - जब सोनिया गांधी ने कुछ कांग्रेस नेताओं को उद्धव ठाकरे के पास भेजा तो मालूम हुआ कि डील की कई बातें तो कांग्रेस को न तो मालूम है, न वैसी कोई पहल ही हुई है.
ममता बनर्जी और शरद पवार अलग अलग तरीके से सोचते हैं. ममता बनर्जी फटाफट फैसले लेती हैं, बस वो ये नहीं भूलतीं कि उनकी पॉलिटिकल लाइन क्या है - और वो लाइन भी ज्यादातर सामने वाले के प्रति विरोध ही होती है. शरद पवार ने लंबी दुनिया देखी है और काफी सोच समझ कर कदम उठाते हैं.
ममता बनर्जी को लगता है कि कांग्रेस उनके लिए बाधा है तो फौरन रास्ते से हटाने पर अड़ जाती हैं, लेकिन शरद पवार को लगता है कि लंबे रेस में सबकी जरूरत होती है - क्योंकि टीम में किसी का निष्क्रिय होना भी ताकत देता है, लेकिन खिलाफ जाने पर वही डबल डैमेज भी कर सकता है.
PK की स्ट्रैटेजी क्या है
प्रशांत किशोर रह रह कर अपने तरीके से बहस की शुरुआत करते हैं. अक्सर ये सब वो अपने तात्कालिक क्लाइंट के लिए करते हैं, लेकिन इस बार खुद उनको ही ऐसी जरूरत आ पड़ी है - क्योंकि अब वो सेटल होना चाहते हैं. खुल ये बातें बता भी चुके हैं कि वो अब चुनाव कैंपेन का काम नहीं करना चाहते.
1. बिजनेस या पॉलिटिक्स: संयुक्त राष्ट्र का काम छोड़ने के बाद प्रशांत किशोर ने पॉलिटिक्स को ही बिजनेस बनाया, ये एक तरीके से मुख्यधारा की राजनीति में हाई लेवल पर फिट होने का बढ़िया नुस्खा भी हो सकता है. जब बीजेपी में बात नहीं बनी तो नीतीश कुमार को तैयार किया और जेडीयू में उनके बाद नंबर दो यानी उपाध्यक्ष बन गये, लेकिन ये पैराशूट एंट्री पहले से नंबर दो की पोजीशन महसूस कर रहे लोगों को बर्दाश्त नहीं हुई - और आखिरकार बाहर कर दिये गये.
पॉलिटिक्स का बिजनेस तो चलता रहा, लेकिन मुख्यधारा की पॉलिटिक्स से प्रशांत किशोर दूर हो गये हैं. ये दूरी खत्म करने के लिए उनको फिर से एक पोजीशन की सख्त जरूरत महसूस हो रही है.
जेडीयू जैसी पोजीशन तो अब तृणमूल कांग्रेस में भी संभव नहीं है क्योंकि नंबर दो पर तो अभिषेक बनर्जी को पहले से ही बिठा दिया गया है - हां, नंबर तीन प्रशांत किशोर जरूर बन सकते हैं, लेकिन प्रशांत किशोर को बीजेपी और जेडीयू का फर्क समझ में आ चुका है और टीएमसी की भी अभी वैसी ही स्थिति है - ऐसे में पीके की नजर अब कांग्रेस पर टिकी हुई है.
2. कांग्रेस को मजबूर करने कोशिश लगती है: कांग्रेस को अगर किसी तरह झुका कर ममता बनर्जी नेता बन जाती हैं, तो प्रशांत किशोर के लिए भी काम आसान हो जाएगा. प्रशांत किशोर के लिए कांग्रेस के साथ बेहतर बारगेन के लिए माहौल बन जाएगा.
प्रशांत किशोर के कांग्रेस ज्वाइन करने की डील करीब करीब फाइनल हो चुकी है - और ऐसा लगता है जैसे दोनों पक्ष एक अच्छे माहौल का इंतजार कर रहे हैं. ऐसा माहौल तो 2022 के शुरुआती विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद ही बनेगा.
अगर उससे पहले ममता बनर्जी के बढ़ते कदमों से कांग्रेस को इतना मजबूर कर दिया जाये कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए प्रशांत किशोर की सेवाएं - प्रत्यक्ष या परोक्ष लेने के अलावा कोई विकल्प ही न बचे, फिर तो काम आसानी से बन जाएगा. जब कांग्रेस वैसी स्थिति में पहुंच जाएगी तो पीके अपने तरीके से खुल कर सौदेबाजी कर सकेंगे - राजनीति में होता तो यही सब है. है कि नहीं?
तीसरे मोर्चे की कोशिश फेल ही होती है
ममता बनर्जी अगर कांग्रेस को अलग करके किसी विपक्षी गठबंधन का आइडिया लेकर चल रही हैं तो ये तीसरे मोर्चे की ही कवायद ही समझी जाएगी - जो एक-दो बार नहीं बल्कि बार बार फेल हो चुकी है.
अगर बीजेपी और कांग्रेस किसी विपक्षी गठबंधन से अलग होंगे तो तीसरे मोर्चे के अलावा भला क्या नाम दिया जाएगा. आम चुनाव से पहले ऐसी कोशिशें अरसे से होती रही हैं. 2014 में बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद मुलायम सिंह 2015 के बिहार चुनाव के दौरान 2019 के लिए तीसरे मोर्चे की तैयारी कर रहे थे. बिहार में महागठबंधन तो बन गया, लेकिन तीसरा मोर्चा खड़ा होने से पहले ही ढेर हो गया.
2019 के पहले भी तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर ऐसी ही कोशिशों को लेकर फटाफट कई मुलाकात किये थे. वो भी ममता बनर्जी से मिले थे और चाहते थे कि ममता बनर्जी सार्वजनिक तौर पर कोई बयान दें, लेकिन ममता ने ऐसा नहीं किया और फिर वो शांत होकर बैठ गये.
कोशिशें तो चंद्रबाबू नायडू ने भी बहुत की थी, लेकिन उसमें कांग्रेस को साथ रखा था. चुनाव खत्म होने और नतीजे आने से पहले भी नायडू खासे एक्टिव देखे गये. ममता बनर्जी से कोलकाता जाकर मिलने से पहले वो राहुल गांधी से एनओसी लेने दिल्ली भी रुके, लेकिन ममता बनर्जी ने प्रस्तावित मीटिंग में शामिल होने से इनकार कर दिया - क्योंकि उसके पहले ममता की बातें मानने को राहुल गांधी तैयार नहीं हुए थे. ममता बनर्जी चाहती थीं कि कांग्रेस बंगाल में टीएमसी के साथ भले न आये, लेकिन लेफ्ट के साथ न जाये. दिल्ली में कांग्रेस आप के साथ और आंध्र में टीडीपी के साथ चुनावी गठबंधन कर ले. राहुल गांधी ने क्षेत्रीय नेताओं के नाम पर बहाना बना लिया था - और फिर ममता बनर्जी को भी मनमानी करने का मौका मिल गया.
अगर ममता बनर्जी को दिल्ली में भी बंगाल की जीत दोहराने की इच्छा है तो सबसे पहले नीर-क्षीर विवेकी बन कर छोटी-छोटी बातों और साथियों के इरादे समझने होंगे. वरना, शरद पवार और प्रशांत किशोर की जोर आजमाइश में जल्दी ही थक जाएंगी - नीतीश कुमार एक बेहतरीन मिसाल हैं. राजनीति तो चलती ही रहती है.
इन्हें भी पढ़ें :
'कांग्रेस मुक्त विपक्ष' की तरफ बढ़ने लगी देश की राजनीति!
5 कारण, टीएमसी कभी कांग्रेस की जगह नहीं ले सकती
विपक्षी एकजुटता के लिए ममता बनर्जी ने तय कर लिया है कि कांग्रेस का क्या करना है
आपकी राय