'कांग्रेस मुक्त विपक्ष' की तरफ बढ़ने लगी देश की राजनीति!
ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने संकेत तो पहले ही दे दिया था, लेकिन राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की मीटिंग से दूरी बनाकर दो टूक संदेश भी दे डाला है - क्या देश की राजनीति अब 'कांग्रेस मुक्त विपक्ष' (Congress-less Opposition Politics) की तरफ बढ़ने लगी है?
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राज्य सभा के 12 सांसदों का निलंबन ही ऐसा मुद्दा बचा है जिस पर विपक्ष साथ खड़ा है. अगर तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना के सांसदों के खिलाफ राज्य सभा सभापति की तरफ से एक्शन नहीं लिया गया होता कांग्रेस के साथ ये दोनों पार्टियां तो नहीं ही नजर आतीं.
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सांसदों के निलंबन के मुद्दे पर तब कांग्रेस पूरी तरह अलग थलग पड़ी नजर आती, लेकिन तब कांग्रेस के साथ विपक्ष के वे नेता ही खड़े देखने को मिलते जो अभी तक ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के राष्ट्रीय राजनीति में उभार को बर्दाश्त या हजम नहीं कर पा रहे हैं.
जब सभापति एम. वेंकैया नायडू ने सांसदों का निलंबन वापस लेने की मांग खारिज कर दी तो कांग्रेस सहित ज्यादातर विपक्षी दलों ने सदन से वॉक आउट किया, लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया. जब संसद परिसर में विपक्ष की तरफ से निलंबन को लेकर विरोध प्रदर्शन हुआ तो टीएमसी सांसद डोला सेन और शांता छेत्री शामिल जरूर हुए - तृणमूल कांग्रेस की ये रणनीति है, लेकिन वो पूरी तरह संकोच छोड़ नहीं पा रही है. ये सब ममता बनर्जी की रणनीति तो दर्शाता है, लेकिन उनकी मजबूरी भी छिपा नहीं पाता.
संसद सत्र के पहले दिन कांग्रेस की तरफ से विपक्षी दलों की मीटिंग पहले से ही बुलायी जा चुकी थी. मीटिंग की अध्यक्षता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने की लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने दूरी बना ली. राहुल गांधी ने विपक्षी नेताओं से अपील की कि सारे मतभेदों को भूल कर देश हित में संसद के भीतर एकजुट होकर खड़े हों. राहुल गांधी की मुश्किल ये है कि जब उनकी बातों को न कांग्रेस के भीतर गौर से नहीं सुना जाता तो बाहर कहां संभव है.
विपक्षी नेताओं की एक और भी बैठक हुई, जिसमें तय हुआ कि राज्य सभा से निलंबित 12 सांसद मौजूदा संसद सत्र के आखिर तक गांधी प्रतिमा के पास धरना देंगे - लेकिन एक बार फिर तृणमूल कांग्रेस ने बैठक से खुद को अलग रखा - और ये कांग्रेस नेतृत्व को संदेश देने का ही एक और तरीका समझ में आता है.
विपक्षी एकजुटता में दरार तो ममता बनर्जी के चुनाव बाद पहले ही दौरे में ही महसूस की जाने लगी थी, लेकिन हालिया दौरे में ममता बनर्जी ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर जो बयान दिया, स्थिति ज्यादा स्पष्ट नजर आने लगी - और अब तो उसके सैंपल भी सामने आने लगे हैं. ममता बनर्जी का कहना रहा कि हर बार उनका सोनिया गांधी से मिलना क्यों जरूरी है.
ममता बनर्जी का नया अंदाज अभी ये तो नहीं जता रहा कि वो कांग्रेस को विपक्षी खेमे से पूरी तरह आउट करना चाह रही हैं, लेकिन ये तो साफ है कि वो अपनी शर्तों पर ही विपक्ष की चाहती में शामिल होना चाहती हैं - और तृणमूल कांग्रेस नेता की ताजा रणनीति में 'कांग्रेस मुक्त विपक्ष' (Congress-less Opposition Politics) की अवधारणा काफी गहरी और ज्यादा गंभीर दिखायी दे रही है.
एक विपक्ष के कई टुकड़े - कोई यहां गिरा, कोई वहां
संसद के शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन विपक्ष के 12 राज्य सभा सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया - ये सत्ता पक्ष की तरह से विपक्ष के खिलाफ उठाया गया बड़ा और सख्त कदम रहा. निलंबित सांसदों में शिवसेना की प्रियंका चतुर्वेदी और टीएमसी की डोला सेन सहित कांग्रेस के छह, तृणमूल कांग्रेस के दो, शिवसेना के दो, सीपीआई के एक और सीपीएम के भी एक सांसद शामिल हैं.
ममता बनर्जी की बदली रणनीति से सकते में कांग्रेस, विपक्षी खेमे में नयी हलचल
ये कोई नया मामला नहीं है, बल्कि ये वे सांसद ही हैं जिन्होंने पिछले सत्र में किसान आंदोलन और कुछ अन्य मुद्दों को लेकर संसद में हंगामा मचाया था - और तब राज्य सभा क उप सभापति हरिवंश पर कागज भी फेंके गये थे. इनमें से कई सांसद टेबल पर चढ़ गये थे और सभी के खिलाफ एक्शन की मांग की जा रही थी. सभापति वेंकैया नायडू को फैसला लेना था और नये सत्र के पहले दिन उन्होंने सुना भी दिया - बस यही एक मामला है जो बुरी तरह बंटे हुए विपक्ष के लिए परदे का काम कर रहा है.
1. न पक्ष, न विपक्ष - और न ही तटस्थ: देश के मौजूदा राजनीतिक समीकरण में सत्ता पक्ष और विपक्ष का ही ठीक ठीक बंटवारा नहीं है, तो पूरे विपक्ष के कंसेप्ट को कैसे परिभाषित किया जा सकता है - राष्ट्रीय स्तर पर दो गठबंधन आमने सामने देखे जरूर जा सकते हैं, लेकिन क्षेत्रीय दलों के रुख ने काफी घालमेल कर रखा है.
क्षेत्रीय दलों के नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से पहले भी सत्ता पक्ष के साथ न होते हुए भी तमाम मुद्दों पर खामोश देखा जाता रहा है. अब भी परिस्थितियां कुछ राज्यों में ऐसी ही हैं - यही वजह है कि सत्ता पक्ष का हिस्सा न होते हुए भी बीजेपी नेता मायावती की बातें बीजेपी के फायदे वाली लगती हैं और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी तो खुल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपोर्ट करते हैं, जबकि ये दोनों ही सत्ताधारी गठबंधन एनडीए का हिस्सा नहीं हैं.
जगनमोहन रेड्डी ही नहीं, जम्मू-कश्मीर की महबूबा मुफ्ती की पीडीपी, ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बीजेडी, असम की बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ और असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM जैसी पार्टियां मॉनसून सत्र के पहले और संसद के मौजूदा सत्र के पहले भी विपक्षी खेमे से बाहर रहीं - लेकिन ज्यादा हैरानी हुई शिवसेना और झारखंड मुक्ति मोर्चा का नया स्टैंड देख कर.
2. ये तो विपक्ष में भी विपक्ष बन गया है: कांग्रेस ने ये सोच कर सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष की मीटिंग बुलायी होगी कि मिलजुल कर सरकार को घेरने की रणनीति तैयार की जाएगी. ममता बनर्जी के तेवर को देखते हुए उसे तृणमूल कांग्रेस को लेकर भी अंदाजा हो ही गया होगा. आम आदमी पार्टी तो वैसे भी कांग्रेस के मेहमानों की लिस्ट में कभी जगह नहीं बना पाती - और यूपी चुनाव को देखते हुए समाजवादी पार्टी से भी कोई अपेक्षा नहीं रही होगी. करीब करीब वैसे ही ख्याल मायावती की बहुजन समाज पार्टी को लेकर भी आये होंगे.
लेकिन कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा झटका शिवसेना और झारखंड मुक्ति मोर्चा का विपक्षी खेमे की बैठकों से परहेज करना है. शिवसेना के साथ जहां कांग्रेस महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार का हिस्सा है, वहीं झारखंड में कांग्रेस JMM की सहयोगी पार्टी के तौर पर सत्ता में शामिल है - लेकिन नये दौर में ये दोनों ही पार्टियां कांग्रेस नेतृत्व को आंखे दिखाने लगी हैं.
यूपी में तो कांग्रेस मुक्त विपक्ष 2019 के आम चुनाव में ही खड़ा हो गया था जब सपा-बसपा गठबंधन बना और कांग्रेस को वैसे ही अछूत की तरह ट्रीट किया गया जैसे अब तक राष्ट्रीय स्तर पर गांधी परिवार अरविंद केजरीवाल के साथ पेश आता रहा है. हालांकि, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा सार्वजनिक तौर पर मायावती और अखिलेश यादव पर सीधे हमले से बचते रहे. वैसे कांग्रेस ने अपनी तरह से गठबंधन को डैमेज करने में कोई कसर भी बाकी नहीं रखी - अब तो बिहार में भी उपचुनावों के दौरान जो नजारा दिखा लगता तो ऐसा ही ही आरजेडी ने भी कांग्रेस मुक्त विपक्ष की राह चल दी है.
कैसा होगा 'कांग्रेस मुक्त विपक्ष'
देश की स्वाभाविक राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी हैं जिसमें कांग्रेस विपक्ष के नेतृत्व का झंडा थामे हुए हैं. ऐसा इसलिए भी क्योंकि नंबर के हिसाब कांग्रेस ही विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी पार्टी है - पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी और बाकी राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बुरी तरह हुई हार के बाद विपक्ष के झंडे को लेकर छीनाझपटी मच गयी है.
1. कांग्रेस मुक्त विपक्ष की नौबत क्यों: पश्चिम बंगाल में लगातार तीन चुनाव जीत कर सरकार बनाने के पहले से ही ममता बनर्जी ने अपना इरादा जगजाहिर कर दिया था - एक पैर से बंगाल और दो पैरों से दिल्ली जीतेंगे. तय प्लान के मुताबिक ममता बनर्जी ने दिल्ली में जोरदार दस्तक भी दी, लेकिन तभी राहुल गांधी रास्ते में दीवार बन कर खड़े हो गये. फिर भी ममता बनर्जी ने 10, जनपथ जाकर सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी से मुलाकात की. जाते जाते ममता बनर्जी का मन खट्टा हो चुका था और ये भी देखा कि जब वो गोवा गयीं तो वहां भी राहुल गांधी धावा बोल दिये.
ममता बनर्जी जब दोबारा दिल्ली पहुंची तो सोनिया गांधी से न मिल कर मैसेज तो दिया ही, मेघालय में मुकुल संगमा को टीएमसी का नेता बना कर कांग्रेस को करीब करीब पैदल कर दिया - और ये तृणमूल कांग्रेस नेता की तरफ से कांग्रेस नेतृत्व को नमूने के साथ बहुत बड़ा संदेश था.
2014 से पहले ही बीजेपी ने 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा दिया था - और 2019 आते आते ममता बनर्जी भी 'भाजपा मुक्त भारत' की परिकल्पना समझाने लगी थीं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर उनका 'एक्सपाइरी डेट पीएम' कहना लोगों को अच्छा नहीं लगा - और बीजेपी को पहले के मुकाबले ज्यादा बहुमत के साथ दिल्ली भेज कर जनता ने ममता बनर्जी और सोनिया गांधी को अपने जैसे अपने मन की बात सुना दी थी. राहुल गांधी की अमेठी में हार भी एक संदेश ही लगता है.
पश्चिम बंगाल में जीत का हैट्रिक लगाने के बाद ममता बनर्जी को लगने लगा कि 2024 के आम चुनाव में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने में कांग्रेस ही आड़े आ रही है. ऐसा भी नहीं कि ये ममता बनर्जी सिर्फ अपने लिए महसूस कर रही हैं, बल्कि असल बात तो ये है कि कांग्रेस को लेकर विपक्षी खेमे के कई दलों के नेताओं के मन में यही सवाल है. यही वजह है कि कांग्रेस मुक्त विपक्ष की परिकल्पना को मूर्त रूप देने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं.
2. लोकतंत्र के हिसाब से कैसा है विपक्ष का नया रूप: सत्ता में आने के बाद तो बीजेपी विपक्ष मुक्त भारत की मुहिम में ही जुट गयी थी, लेकिन 2015 में बिहार, 2019 में विशेष परिस्थितियों महाराष्ट्र और 2021 में पश्चिम बंगाल में देश की जनता ने बीजेपी को बार बार ये भी समझाने की कोशिश की कि ये तो नहीं ही चलेगा.
क्योंकि लोकतंत्र में विपक्ष की जरूरत अभी खत्म नहीं हुई है और शायद आगे भी न हो पाये - क्योंकि एक मजबूत विपक्ष की सत्ता पक्ष के कितने भी ज्यादा मजबूत हो जाने पर बैलेंसिंग फैक्टर होता है और वही लोकतंत्र को मजबूत बनाये रखता है.
लगातार दो आम चुनावों में जनता ने कांग्रेस को ठुकराया जरूर लेकिन इतना भी नहीं कि वो विपक्ष के नेतृत्व लायक न रहे. कांग्रेस को लोग लगातार दो बार ये मौका दे चुके हैं, लेकिन तीसरी बार के लिए अभी से खतरा मंडराने लगा है.
कहा तो ये भी नहीं जा सकता कि कांग्रेस कूप-मंडूक बैठी हुई है, लेकिन ये तो हर कोई मानेगा कि कांग्रेस विपक्ष के नेतृत्व की अपनी काबिलियत पर सवाल खड़े करने का मौका भी खुद देने लगी है.
3. ममता बनर्जी की रणनीति बदली है: अभी जो बंटा हुआ विपक्ष है, उसके लिए कांग्रेस तो काफी हद तक जिम्मेदार नजर आती ही है. आदर्श स्थिति तो कुदरत में ही नहीं बन पाती, लेकिन अगर विपक्षी दलों में संभव एकजुटता वास्तव में बन गयी तो लोकतंत्र के लिए अच्छा जरूर माना जाएगा.
मॉनसून सत्र से पहले के प्रयासों में ममता बनर्जी ने कांग्रेस को विपक्षी खेमे से दूर रखने की कोशिश की थी - और शीत कालीन सत्र से पहले कांग्रेस के गठबंधन साथियों को ही उससे दूर रखने में सफलता हासिल कर रही है. पिछले सत्र की शुरुआत में दौरान ममता बनर्जी दिल्ली में थीं, लेकिन इस बार सत्र शुरू होने से पहले ही दिल्ली से लौट गयीं और शीत कालीन सत्र के शुरू होने पर मुंबई पहुंच गयीं - ये तो साफ तौर पर समझ में आ रहा है कि ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे और हेमंत सोरेन को अपनी तरफ खींच पाने में अभी भले ही कामयाब न हों, लेकिन कांग्रेस से दूर करने में तो सफल ही लग रही हैं.
ये भी ममता बनर्जी की बदली रणनीति का ही हिस्सा है कि वो दिल्ली में चल रही विपक्षी कवायद के बीच मुंबई पहुंच गयी हैं, ताकि शरद पवार को भी मैनेज कर सकें. पिछली बार दिल्ली से लौटते वक्त शरद से मुलाकात न होने पर ममता बनर्जी ने गहरा अफसोस जाहिर किया था - तब ममता बनर्जी राजनीति का शिकार हो गयी थीं, इस बार ममता बनर्जी ने रणनीति बदल कर बदला ले लिया है.
विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी चुनौती नेतृत्व रही है - और नेतृत्व पर कांग्रेस का सदाबहार रिजर्वेशन. असल में विपक्षी खेमे में नेतृत्व का मतलब प्रधानमंत्री की कुर्सी होती है और ने 2014 के बाद से वहां राहुल गांधी का नाम लिख रखा है.
ममता बनर्जी के मन में जो भी हो, लेकिन वो बार बार कह रही हैं कि विपक्ष में नेतृत्व पर उलझने के बजाये केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को बेदखल करने पर फोकस करना चाहिये. पूछे जाने पर ममता बनर्जी खुद के भी नेता पद के दावेदारों की होड़ से बाहर बताती हैं. फिलहाल ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र के सत्ताधारी गठबंधन का ही नहीं, देश में विपक्ष के संभावित गठबंधन के रिमोट पर भी शरद पवार की नजर बनी हुई है - और ममता बनर्जी ही नहीं, बहुत सारी चीजें शरद पवार के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आ रही हैं.
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