यूपी में लोगों ने जमकर वोट दिया, लेकिन किसको ?
विधानसभा चुनावों में इस बार के बंपर वोटिंग हुई है. 65% वोटिंग होना सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी और उनके प्रमुख विरोधी बीजेपी के लिए क्या कोई खुशखबरी है ?
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विधानसभा चुनावों में इस बार के बंपर वोटिंग हुई है. 65% वोटिंग होना सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी और उनके प्रमुख विरोधी बीजेपी के लिए क्या कोई खुशखबरी है?
चारों तरफ आजकल इसी बात पर चर्चा हो रही है. इस लिस्ट में से यूपी की प्रमुख पार्टियों में से एक बहुजन समाजवादी पार्टी का नाम नहीं है. लोग बसपा को अब देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले प्रदेश के चुनावों में सत्ता का दावेदार नहीं मान रहे हैं. यूपी के 15 ज़िलों के 73 चुनाव-क्षेत्रों में इस बार मुस्लिम वोटरों की भागीदारी ज्यादा रहने की खबरें आ रही हैं.
ये बीजेपी के लिए तो कहीं से खुश होने की खबर नहीं है. यूपी में बीजेपी मुख्य तौर पर सपा और बसपा के टक्कर में बंटने वाले मुस्लिम वोटों पर अपनी नज़रें टिकाए हुए थी. बसपा सुप्रीमो मायावती राज्य के मुस्लिम वोटरों से लगातार अपील कर रही हैं कि सपा को वोट ना दें. लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में शनिवार को हुए मतदान के बाद राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना था कि मायावती के उन अपीलों का शायद उल्टा ही असर होगा.
मेरठ यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा कि- 'मायावती का बार-बार मुस्लिमों से समाजवादी पार्टी को वोट ना करने की अपील करना ही उनके दांव को उल्टा कर गया. ऐसा करने से लोगों के सामने उनकी छवि को कमजोर कर गया. लोगों को लग रहा है कि मायावती ने खुद ही अपनी हार मान ली है. और इस कारण इस बार मुस्लिमों के वोट से बसपा को निराशा ही हाथ लगेगी.'
मायावती को मुस्लिमों का साथ इस बार शायद ना मिले
2012 में बसपा ने इन्ही 73 चुनाव-क्षेत्रों में से 23 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था. वहीं सपा को 24 और बीजेपी को 11 सीटें मिलीं थीं. बसपा इस बार अपने लिए वोट सिर्फ एक ही शर्त पर बटोर सकती थी अगर वो सपा पर सीधा-सीधा हमला करती. जिससे मायावती ने पूरी तरह परहेज किया.
वहीं अंतिम क्षणों में कांग्रेस से हाथ मिलाना सपा के पक्ष में लहर बनाने में कामयाब रहा. इस गठबंधन ने लोगों में आस जगाई कि बीजेपी को टक्कर बस यही दे सकते हैं.
मायावती के लिए एक और चीज जो हानिकारक हो गई वो थी यूपी के दो प्रमुख मौलानाओं की बसपा को वोट देने की अपील. दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने सबसे पहले मायावती के लिए वोट की मांग की. बुखारी पहले ही मुस्लिमों के बीच अपनी साख खो चुके हैं. पिछले पांच सालों से वो सपा सु्प्रिमो मुलायम सिंह यादव से अपने दामाद के लिए जमीन तैयार करने की मांग करते आ रहे थे.
2012 में उन्होंने सबसे पहले विधानसभा चुनाव में टिकट की मांग की थी. चुनाव हारने के बाद बुखारी ने अपने दामाद को विधान परिषद् के रास्ते सत्ता में इंट्री कराई. इसके बाद वो मंत्री भी बनाए गए. मुलायम सिंह यादव ने उसे तब तक मंत्री बनाए रखा जब तक की हाई-कोर्ट ने अपने एक आदेश में उनकी तरह के सभी मंत्रियों को हटाने का आदेश दिया.
दूसरे शिया मौलाना कालबे जवाद ने भी मायावती को वोट करने की अपील की थी. शिया समुदाय में इनकी खुद की पकड़ बहुत ही कमजोर है. उधर मायावती ने मुसलमानों को लुभाने के लिए इस बार चुनावों में ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करने की भी बात कही थी. अखिलेश-राहुल की जोड़ी ने भी मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए रणनीति बनाई. और मुस्लिमों में अपना भरोसा कायम करने में सफल भी हुए.
यूपी में किसकी सरकार?
उधर बीजेपी की हर अपील घुम-फिरकर हिदुत्व के दरवाजे पर आ खड़ी होती. यहां तक की प्रधानमंत्री मोदी भी कम्यूनल कार्ड या हिंदू-मुस्लिम कार्ड से बच नहीं पाए. बीजेपी के कई नेताओं ने कैराना से हिंदुओं के भगाए जाने को कम्यूनल रंग देने की कोशिश की थी. लेकिन खुद बीजेपी के ही एक नेता हुकुम सिंह ने इनकी मिट्टी पलीद कर दी. हुकुम सिंह ने कहा कि- 'कैराना से हिन्दू लोग सांप्रदायिकता के कारण नहीं भागे थे बल्कि उन्हें अपराधी परेशान कर रहे थे.'
हैरानी की बात ये है कि 2016 में खुद हुकुम सिंह ने ही कैराना से हिंदुओं के पलायन का मुद्दा उठाया था और इसे सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश भी की थी. लेकिन मीडिया ने जब उनके इस झूठ का पर्दाफाश कर दिया तो वो पीछे हट गए. हालांकि इससे बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कोई सीख नहीं ली और अपने चुनावी घोषणापत्र में इस बात को जगह देने से गुरेज नहीं किया.
पहले चरण के चुनाव के बाद भले ही सभी पार्टी के नेता अपनी जीत का दावा कर रहे हैं लेकिन 11 मार्च को रिजल्ट आने तक कुछ भी कहना बेकार है. रिजल्ट के आने तक सब अपने-अपने हिसाब से सपने देखते और संजोते रहें.
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