New

होम -> सियासत

 |  3-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 29 अप्रिल, 2015 12:14 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

खुदकुशी समाज में कायराना हरकत मानी जाती है. खुदकुशी को कानूनन जुर्म है. और किसान की खुदकुशी सरकारी आंकड़ों का महज हिस्सा भर है.

'जो सुसाइड करते हैं, वो कायर लोग होते हैं. यह अपराध होता है और सरकार ऐसे लोगों के साथ नहीं है.'

ठीक ही कहा साहब. भला सरकार अपराधियों का साथ कैसे दे सकती है? सही बात है, कोई मंत्री भला किसी अपराधी का साथ कैसे दे सकता है? फिर तो हरियाणा के कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ का ये बयान कानूनी तौर पर सही ही है.

अब आत्महत्या अगर अपराध है तो वाकई देश में अपराध बढ़ रहा है. साल दर साल ये अपराध बढ़ रहा है.

पिछले ही महीने केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री मोहनभाई कुंडेरिया ने लोक सभा को बताया कि 2014 में किसानों की आत्महत्या के मामलों में 26 फीसदी इजाफा हुआ है. कुंडेरिया के अनुसार 2013 में 879 किसानों ने आत्महत्या की थी, जबकि 2014 में ये आंकड़ा 1109 तक पहुंच गया.

सरकार का काम है कानून की हिफाजत करना - यानी अपराध पर काबू पाना. अब सरकार किसान को कायर समझे, अपराधी समझे या कुछ और? आखिर कायदे कानून होते किसलिए हैं?

दिसंबर, 2014 में खुफिया ब्यूरो ने किसानों की बढ़ती आत्महत्या पर केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी. इस रिपोर्ट में ‘अनिश्चित मानसून, कर्ज, कम ऊपज, फसल की बर्बादी और ऊपज की कम कीमत’ को किसानों की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार माना गया था.

किसान की आत्महत्या को कानूनी नजर से देखे जाने की बात उठी है. कानूनी तौर पर हर आत्महत्या करने वाला किसान नहीं होता. चाहे उसकी मौत किसी खेत में फसल की चिता में जलकर हुई हो, या किसी पेड़ से लटक कर फांसी लगाने से. या फिर भरी महफिल में, किसी सियासी रैली में ही मौत क्यों न हुई हो? भले ही वो मौत टीवी चैनलों की लाइव रिपोर्ट में दर्ज क्यों न हुई हो? वाकया चाहे महाराष्ट्र का हो, उत्तर प्रदेश या फिर देश की राजधानी का ही क्यों न हो?

कानूनी तौर पर किसान वो है जो जमीन का मालिक हो. सरकारी नीतियों के अनुसार जमीन उसके नाम से सरकारी दस्तावेजों में दर्ज होनी जरूरी है. इस पैरामीटर के तहत, आमतौर पर, महिलाएं किसान नहीं होतीं. हां, अगर किसी महिला के नाम जमीन हो तो उसे खुद को किसान साबित करने में आसानी हो सकती है.

अब भी इस देश में 40 फीसदी किसानों को कर्ज इलाके के साहूकार या कहें सूदखोरों से लेनी पड़ती है. ये सूदखोर किसानों से 24 से लेकर 50 फीसदी की दर से ब्याज वसूलते हैं. किसान कर्ज भले ही एक बार लिया हो, ब्याज उसकी पीढ़ियां भरती रहती हैं.

अगर इस तरह कर्ज में डूबे किसान के परिवार का कोई और सदस्य तंगी से ऊब कर आत्महत्या जैसा आखिरी रास्ता अख्तियार कर ले तो वो भी सरकारी आंकड़ों का हिस्सा नहीं बन सकता - क्योंकि वो किसान की कैटेगरी में नहीं आता.

आत्महत्या के सरकारी आंकड़ों में दलित और आदिवासी किसानों को शायद ही कभी जगह मिल पाती हो. वजह वही कायदे कानून हैं - उनके नाम कोई कागज नहीं होता. कागज उनके नाम भी नहीं होता जो 'अधिया', 'बटइया' या 'सिकमी' खेती - यानी दूसरों की जमीन पर खेती करते हैं. ये खेती करते तो हैं लेकिन किसान बनना उनके नसीब में ताउम्र नहीं होता.

ऐसे खेतिहरों को समाज भले ही किसान मान ले, लेकिन कानून नहीं मानता. फिर न तो उनकी फसल की बर्बादी मुआवजे की हकदार होती है न उनकी मौत सरकारी आंकड़ों का हिस्सा बन पाती है.

जंतर मंतर पर गजेंद्र सिंह की मौत का मामला शायद इसका अपवाद है. थोड़ा गौर करें तो 'खुदकुशी' नहीं बल्कि 'खुदकुशी की कोशिश' जुर्म के दायरे में होती है. काश! गजेंद्र सिंह की जान बचा ली गई होती, भले ही उन्हें 'अपराधी' या 'कायर' करार दिया जाता. आखिर ऐसे अपराधियों की बदौलत ही तो देश जिंदा है.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय