यूपी में बीजेपी का 'चिराग' हैं मायावती
मायावती (Mayawati) की यूपी में जो पोजीशन है वो बिहार में चिराग पासवान (Chirag Paswan) के मुकाबले ज्यादा प्रभावी है, लेकिन चुनावी राजनीति में दोनों की भूमिका काफी मिलती जुलती है - और ये बात ही बीजेपी (BJP) के लिए फायदेमंद साबित होती है.
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मायावती (Mayawati) को यूपी की सत्ता से बाहर हुए दस साल हो गये हैं - और इस बार भी मुकाबले से बाहर हैं. शुरू से ही सत्ताधारी बीजेपी (BJP) को चैलेंज करने के मामले में समाजवादी पार्टी आगे रही है. मायावती की पार्टी बीएसपी कई बार तो कांग्रेस से मुकाबला करते नजर आती है.
40 फीसदी महिला उम्मीदवार और संघर्ष की प्रतीक प्रत्याशियों जैसे नये आइडिया के बूते प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस के हिस्से में क्या जुटा पाती हैं, उनको भी अभी शायद ही कोई अंदाजा हो. 2019 के आम चुनाव में प्रियंका गांधी अक्सर ही मायावती को लेकर कोई टिप्पणी करने से बचती रहीं. ऐसा समझा गया कि राहुल गांधी ने ये फैसला लिया था कि कांग्रेस का कोई भी नेता न तो मायावती के खिलाफ और न ही अखिलेश यादव के खिलाफ जो भी बोलेगा, संयम बरतते हुए.
लेकिन सीएए विरोधी आंदोलन और फिर लॉकडाउन के दौरान कांग्रेस पर बीएसपी नेता के हमलों से तंग आकर प्रियंका गांधी ने मायावती को बीएसपी का अघोषित प्रवक्ता बता डाला था. पहले तो मायावती के निशाने पर कांग्रेस की हुआ करती रही, लेकिन जैसे जैसे यूपी चुनाव आखिरी दौर की तरफ बढ़ने लगा - मायावती धीरे धीरे समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव के खिलाफ आक्रामक रुख अख्तियार करती चली गयीं.
अखिलेश यादव जहां अंबेडकरवादियों को समाजवादियों के साथ आने की अपील कर रहे हैं, मायावती पूर्व मुख्यमंत्री का भगोड़ा बताने लगी हैं. ये समझाने की कोशिश होती है कि आजमगढ़ का सांसद विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भाग कर करहल चला गया और हार के डर से बुजुर्ग पिता को भी चुनाव प्रचार में झोंक दिया.
मौजूदा चुनावी राजनीति को अगर यूपी के दायरे से थोड़ा बाहर ले जाकर देखें तो मायावती का अखिलेश यादव पर अटैक भी बिहार चुनाव में चिराग पासवान (Chirag Paswan) के नीतीश कुमार को निशाने पर लेने जैसा ही लगता है. बिहार चुनाव में तो चिराग पासवान की सक्रियता से बीजेपी को काफी मदद मिली थी - क्या यूपी चुनाव में बीजेपी के लिए मायावती वैसी ही मददगार साबित हो रही हैं?
जैसे नीतीश के खिलाफ चिराग रहे
ये तो साफ है कि यूपी चुनाव के बाद भी चिराग पासवान के मुकाबले मायावती बेहतर स्थिति में होंगी, लेकिन महत्वपूर्ण सवाल ये है कि क्या मायावती की बदौलत बीजेपी को यूपी में भी बिहार जैसा ही फायदा हो सकता है?
मायावती और चिराग पासवान में एक ही चीज कॉमन है - दोनों को अगले चुनाव का इंतजार है!
जो भूमिका बिहार चुनाव में चिराग पासवान की नजर आयी थी, यूपी में चुनाव में मायावती को भी करीब करीब वैसे ही बीजेपी की मददगार के तौर पर देखा गया है. पश्चिम यूपी में बीजेपी को किसानों की नाराजगी भारी पड़ रही थी. अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी के साथ हाथ मिला रखा है. असर ये देखा गया कि आरएलडी की वजह से जाटों के वोट और अखिलेश यादव के सपोर्ट में मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी के गठबंधन को मजबूत बना रहे थे.
तभी मायावती ने जगह जगह ऐसे उम्मीदवार उतार दिये जो वोटकटवा बन कर बीजेपी की राह थोड़ी आसान बनाने की कोशिश करें. हाल ही में अमित शाह के इंटरव्यू में मायावती की तारीफ का मकसद भी यही समझा गया था.
बिहार चुनाव में चिराग पासवान भी तो यही कर रहे थे. नीतीश कुमार के खिलाफ तो चुनाव के बहुत पहले से ही हमलावर रहे, चुनाव आने पर जेडीयू उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार दिये और वे जेडीयू उम्मीदवारों की हार का कारण बन गया. नीतीश कुमार तो शुरू से ही चिराग पासवान की गतिविधियां रोकने के लिए बीजेपी पर दबाव बनाये हुए थे, चुनाव बाद तो कई जेडीयू नेताओं के बयान भी आये कि चिराग पासवान की वजह से ही उनकी पार्टी की काफी कम सीटें आयीं.
सिर्फ पश्चिम यूपी ही कौन कहे, पूर्वांचल में भी मायावती ने बीएसपी के साथ वैसा ही खेल खेला है. अव्वल तो मायावती चुनावी रणनीति पर काफी पहले से ही काम शुरू कर देती हैं. सबसे पहले मायावती विधानसभा प्रभारियों की घोषणा करती हैं - और आगे चल कर किसी तरह के बदलाव की जरूरत नहीं पड़ी तो वे ही पार्टी के उम्मीदवार बन जाते हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि उम्मीदवार की घोषणा हो जाने के बाद भी बदल दिये जाते हैं.
जैसे बैरिया में बीजेपी ने बागी विधायक सुरेंद्र सिंह के खिलाफ बलिया से आनंद स्वरूप शुक्ल को उम्मीदवार बना कर भेज तो दिया, लेकिन चुनावी राह काफी मुश्किल लग रही थी. क्योंकि अखिलेश यादव ने वहां से जय प्रकाश अंचल को टिकट दे दिया. समाजवादी पार्टी का प्रभाव कम करने के मकसद से मायावती ने फटाफट अपना उम्मीदवार बदल डाला और अपने ही पुराने विधायक सुभाष यादव को टिकट दे दिया.
बीजेपी छोड़ कर सपा में गये स्वामी प्रसाद मौर्य के खिलाफ मायावती ने इलियास अंसारी को उतार दिया. ठीक वैसे ही जहूराबाद सीट पर ओम प्रकाश राजभर के खिलाफ शादाब फातिमा को उतार दिया है. मुस्लिम वोट में बंटवारे की मायावती की साफ रणनीति यूपी की कई सीटों पर देखी जा सकती है. अयोध्या के रुदौली से सपा के दो बार विधायक रहे अब्बास अली रुश्दी को बीएसपी का टिकट देने का मकसद भी वही है. शबाना खातून भी टांडा में सपा के टिकट की दावेदार थीं और मौका मिलते ही मायावती ने बीएसपी का टिकट देकर अपनी चाल चल दी.
ये खेल तो अंदर अंदर चल ही रहा था, ज्यादा असरदार बनाने के लिए अमित शाह ने मायावती की तारीफ कर दी कि बीएसपी की प्रासंगिकता अभी खत्म नहीं होने जा रही है. अमित शाह ने ये भी कहा कि जाटव वोट ही नहीं बल्कि मुस्लिम वोट भी मायावती के साथ ही जा रहा है. प्रतिक्रिया में मायावती ने इसे अमित शाह की महानता करार दिया.
मुस्लिम वोट के बंटवारे में मायावती की भूमिका
मायावती अब अखिलेश यादव के खिलाफ काफी आक्रामक हो चुकी हैं. अखिलेश यादव या तो संकेतों में बात करते हैं या फिर बगैर मायावती का नाम लिये, लेकिन समाजवादी पार्टी के नेता खुल कर आरोप लगा चुके हैं कि कई सीटों पर बीएसपी के वोट बीजेपी में ट्रांसफर कराने की कोशिश चल रही है.
मायावती ये सुनते ही बिफर पड़ती हैं. वो समाजवादी पार्टी पर मुसलमानों के साथ गद्दारी का इल्जाम लगा देती हैं. मायावती मुस्लिम आबादी को समझा रही हैं कि जिन सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, उन्हें टिकट नहीं दिया गया.
मायावती कहती हैं कि बीएसपी उम्मीदवारों को हराने के लिए समाजवादी पार्टी के नेता बीजेपी को वोट देने की बात कर रहे हैं. 28 फरवरी को मायावती आजमगढ़ पहुंची थीं जहां लोगों को समझा रही थीं कि कैसे उनका सांसद उन्हें छोड़ कर सुरक्षित सीट की तलाश में मैनपुरी के करहल पहुंच गया. वैसे करहल सीट पर मायावती ने वो नहीं किया है जो पूरे यूपी में किया है. मायावती चाहतीं तो मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर अखिलेश यादव को मिलने वाले वोटों में बीजेपी के एसपी सिंह बघेल के लिए सेंध लगा सकती थीं, लेकिन बीएसपी की तरफ से दलित को टिकट दिया गया है. बिहार में भी चिराग पासवान पूरे राज्य में बीजेपी के मददगार बने रहे, लेकिन तेजस्वी यादव की सीट पर कमजोर उम्मीदवार उतार कर उनके लिए ही मददगार बन गये.
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