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Updated: 22 जुलाई, 2021 04:37 PM
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मायावती (Mayawti) के हाथ बारह साल बाद उत्तर प्रदेश में कुछ हाथ लगा था, फिर भी अखिलेश यादव के साथ गठबंधन तोड़ डालीं. सपा-बसपा गठबंधन तोड़ने के पीछे मायावती के फैसले का आधार जो भी रहा हो, लेकिन दलित राजनीति के लिए ठीक नहीं लगा.

2007 में यूपी की 403 में से 206 सीटें जीतने वाली मायावती ने 2012 में न सिर्फ सत्ता गंवा दिया, बल्कि 2014 के आम चुनाव में बीएसपी को एक सीट भी नहीं दिला पायीं - और वही पांच साल बाद 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके 10 लोक सभा सीटें जीत कर दलित राजनीति को लेकर उम्मीदें बढ़ा दी. अखिलेश यादव के हिस्से में सिर्फ पांच ही सीटें आने की और भी वजहें रहीं, लेकिन गठबंधन को लेकर उनका विश्वास जरूर कायम रहा होगा.

अब वही अखिलेश यादव नये सिरे से मायावती के निशाने पर हैं. ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की तरफ से उनका फोकस अखिलेश यादव की तरफ शिफ्ट हो गया है - और बिहार के जेल में बंद पप्पू यादव की तरफ चिढ़ाने लगी हैं - तुमसे ना हो पाएगा.

अव्वल तो ब्लॉक प्रमुख चुनाव के नामांकन के दौरान यूपी के 19 जिलों में हिंसा और लखीमपुर खीरी में एक महिला नेता के साथ हुए दुर्व्यवहार को लेकर मायावती का गुस्सा सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ होना चाहिये, लेकिन अखिलेश यादव को टारगेट कर बीएसपी नेता ने प्रियंका गांधी के बयान की याद दिला दी ही है - मायावती तो बीजेपी की अघोषित प्रवक्ता हैं.

पशुपति कुमार पारस (Pashupati Kumar Paras) चाहे जैसे भी जुगाड़ लगा कर मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री बन गये हों, लेकिन उससे दलित राजनीति का कोई भला होने वाला हो, ऐसा तो नहीं लगता. भले ही खुद को रामविलास पासवान के राजनीतिक वारिस होने का दावा करें, लेकिन दलित राजनीति का कोई चेहरा बन पाएंगे, उसमें भी संदेह है.

चुनाव दर चुनाव जनाधार के साथ साथ साथी नेताओं को गंवाने के बावजूद मायावती अब भी दलित राजनीति का बड़ा चेहरा बनी हुई हैं - लेकिन यूपी चुनाव 2022 के बाद भी उनका यही दबदबा कायम रह पाएगा - मौजूदा हालात और बीएसपी नेता के स्टैंड को देखते हुए यकीन नहीं होने देता.

बीएसपी नेता ने भले ही पंजाब चुनाव से पहले दलित राजनीति की दखल के चलते पंजाब में अकाली दल के साथ गठबंधन कर रखा हो, लेकिन मायावती को अच्छी तरह मालूम होना चाहिये कि जिस हिसाब से बीजेपी दलित राजनीति (Dalit Politics) को तहस नहस करने में जुटी है - यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में सिर्फ मायावती या बीएसपी ही नहीं, बल्कि दलित राजनीति का अस्तित्व भी दांव पर लगने जा रहा है.

दांव पर दलित राजनीति

बीजेपी को मालूम है कि उत्तर प्रदेश में यादव और जाटव वोट बैंक में सीधे सीधे सेंध लगाना आसान नहीं है, इसीलिए वो शुरू से ही गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित वोटों पर फोकस कर रही है. मकसद साफ है, अखिलेश यादव अपने कोर यादव वोटों तक सिमट कर रह जायें और मायावती जाटव वोट बैंक तक - लेकिन ऐसा होने पर भी शत-प्रतिशत वोट सपा या बसपा के ही खाते में जाएंगे, इस बात की भी तो कोई गारंटी नहीं है.

yogi adityanath, mayawati, pashupati parasपशुपति पारस तो नमूना भर हैं, बीजेपी मायावती के खिलाफ भी वैसा ही खेल खेलने वाली है

मायावती और अखिलेश यादव का चुनावों में हाथ मिलाना बीजेपी के लिए खतरे की घंटी थी. बीजेपी ने गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनावों में देख लिया था कि दोनों नेताओं के हाथ मिलाने का असर क्या होता है, फिर भी ठीक से 2019 के आम चुनाव के नतीजे आने के बाद ही हो सका. मायावती ने चाहे जिन राजनीतिक हालात में गठबंधन को लेकर कदम पीछे लेने का फैसला किया हो, लेकिन अकेले लड़ी होतीं तो 2014 जैसे नतीजे दोहराये जाने की ही ज्यादा संभावना थी. 2017 के यूपी चुनाव में बीएसपी को मिले वोट भी इस बात के सबूत हैं.

मायावती ने 2022 में पूरे यूपी और उत्तराखंड में भी बगैर किसी गठबंधन के अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है. ये बात मायावती ने हाल ही में AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी के साथ बीएसपी के गठबंधन की खबरों को खारिज करते हुए ट्विटर पर शेयर की थी.

और अब तो साइकिल यात्रा पर निकले भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद रावण भी यूपी की सभी 403 सीटों पर अपने राजनीतिक दल आजाद समाज पार्टी के बैनर तले लड़ने का ऐलान कर चुके हैं. मायावती ने शुरुआती दौर को छोड़ कर हमेशा ही चंद्रशेखर आजाद की राजनीति को खारिज किया है.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सत्ता में वापसी की तैयारियों के मुकाबले जिस तेवर के साथ चंद्रशेखर आजाद पश्चिम यूपी में राजनीतिक तौर पर एक्टिव हैं, कहीं ऐसा न हो मायावती के लिए वो भी चिराग पासवान साबित हों - और नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू की तरह बीएसपी को भी वैसे ही नुकसान उठाना पड़े.

सपा-बसपा गठबंधन के दौरान मायावती और अखिलेश यादव दोनों ने ही माना था कि कांग्रेस ने उनके अच्छे खासे वोट काट दिये. अब चंद्रशेखर आजाद भी उसी राह पर चल रहे लगते हैं. चूंकि अभी तक चंद्रशेखर आजाद का कोई भी चुनावी प्रदर्शन ध्यान खींचने वाला नहीं रहा है, हाल के पंचायत चुनावों में भी, इसलिए आने वाले विधानसभा चुनाव में कोई चमत्कार हो सकता है, ऐसा तो नहीं लगता - लेकिन वोटकटवा तो कोई भी हो सकता है.

ऐसे में जबकि 500-1000 वोटों से हार जीत का फैसला होने लगा हो, वोटकटवा उम्मीदवारों के खाते में गया एक-एक वोट महत्वपूर्ण साबित होने लगा है. अभी तक तो चंद्रशेखर आजाद का प्रियंका गांधी वाड्रा की वजह से कांग्रेस की तरफ ही थोड़ा बहुत रुझान दिखा है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व उनके साथ भी वैसे ही पेश आता रहा है जैसे गुजरात में हार्दिक पटेल के साथ.

गुजरात से जिग्नेश मेवाणी युवा दलित नेता के तौर पर ऊभरे जरूर थे, लेकिन गुजरते वक्त के साथ लगता है वो भी भीड़ में खोते जा रहे हैं - और अपने इलाके के महज विधायक बन कर रह गये हैं. अगले ही साल गुजरात में भी चुनाव होने वाले हैं और जिग्नेश मेवाणी को भी कड़े इम्तिहान से गुजरना पड़ सकता है.

दलित राजनीति का बीजेपी के बढ़ते रसूख के बीच कैसे दम घुट रहा है, लोक जनशक्ति पार्टी की डांवाडोल स्थिति बेहतरीन नमूना है. जैसे पहले चिराग पासवान बीजेपी नेतृत्व के इशारों पर नाचते रहे, अब वही काम उनके चाचा पशुपति कुमार पारस करने लगे हैं. निश्चित तौर पर चिराग पासवान को मिलने वाला मंत्री पद छीन लेना पशुपति कुमार पारस की राजनीतिक उपलब्धि हो सकती है - हाई कोर्ट से स्पीकर के फैसले को चैलेंज करने वाली चिराग पासवान की याचिका खारिज होना राहत की या तात्कालिक फायदे की बात हो सकती है - लेकिन असल बात तो यही है कि लोक जनशक्ति पार्टी या तो बीजेपी या फिर जेडीयू नेताओं के इशारे पर नॉन स्टॉप नृत्य कर रही है.

मायावती के बाद दलित राजनीति का बड़ा चेहरा कौन?

राम विलास पासवान दलित राजनीति में मायावती जितना बड़ा चेहरा तो नहीं रहे, लेकिन एक छोर से खड़े होकर अपने होने का एहसास तो कराते ही रहे. मायावती भी तो यूपी की करीब 20 फीसदी दलित आबादी में 12 फीसदी जाटवों की ही नेता रह गयी हैं क्योंकि बाकी वोट खिसक चुके हैं. राम विलास पासवान की पार्टी भी बिहार में 16 फीसदी दलित आबादी में 6 फीसदी से कुछ ही ज्यादा पासवान समुदाय का प्रतिनिधित्व करती आयी है.

पशुपति पारस बता जरूर रहे हैं कि चिराग पासवान तो सिर्फ बेटे हैं, राम विलास पासवान के असली राजनीतिक वारिस वो ही हैं. पशुपति पारस ये दावा बीजेपी और जेडीयू के हाथों में खेलते हुए कर रहे हैं, न कि रामविलास पासवान की तरह जैसे वो अपनी अलग हैसियत बनाये हुए थे.

वो लाख दावा करते फिरें लेकिन जिस लीक पर पशुपति पारस की राजनीति आगे बढ़ रही है, लगता तो नहीं कि वास्तव में वो रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को उसी अंदाज में आगे बढ़ाने की स्थिति में भी हो पाएंगे. आने वाले दिनों में तो ऐसा ही लगता है कि पशुपति पारस या तो बीजेपी के हो जाएंगे या फिर उपेंद्र कुशवाहा का रास्ता अख्तियार करते हुए पूरी तरह नीतीश कुमार के होकर रह जाएंगे - और अगर ऐसा किसी दिन हुआ तो ये दलित राजनीति के लिए बुरा दिन ही समझा जाएगा.

रामविलास पासवान के बाद राष्ट्रीय फलक पर फिलहाल तो एक ही चेहरा दिखायी देता है - आरपीआई नेता रामदास आठवले. पहले एक नाम उदित राज का भी हुआ करता था, लेकिन बीजेपी में डुबकी लगाने के बाद जब से कांग्रेस में चले गये, ट्विटर पर ही सिमट कर रह गये लगते हैं.

दलित राजनीति के हिसाब से देखा जाये तो रामदास आठवले का स्टैंड भी मायावती से ही मिलता जुलता है, भले वो उनके कद के नेता न हों - जब बीजेपी के पक्ष में बयानबाजी के अलावा रामदास आठवले का कोई अलग योगदान तो नजर नहीं आता. कभी कंगना रनौत के साथ खड़े नजर आते हैं तो कभी उद्धव ठाकरे को गठबंधन छोड़ कर बीजेपी से हाथ मिला लेने का सुझाव देते देखे जा सकते हैं.

मायावती की राजनीति भले ही बीजेपी के निशाने पर हो, लेकिन बीएसपी की सबसे बड़ी दुश्मन वो खुद बन चुकी हैं. जमाने के साथ बदलना और दलितों की जरूरत समझना तो दूर, मायावती ने अपने सिवा दलितों का वास्तव में भला कभी सोचा हो, लेकिन कुछ किया हो ऐसा तो नहीं लगता. मूर्तियां लगवाने के सिवा मायावती के पास है भी क्या दलितों पर एहसान जताने के लिए.

आज चंद्रशेखर आजाद दलितों के लिए जो मुद्दे उठा रहे हैं, मायावती की दिलचस्पी तो शायद ही कभी दिखाने की कोशिश भी की हो. हां, ये जरूर है कि दलितों से जुड़ी किसी घटना के बाद शोर मचाने में आगे जरूर नजर आती हैं - लेकिन उसमें भी ज्यादातर दलित की बेटी बन कर विक्टिम कार्ड का प्रदर्शन ही अक्सर देखने को मिलता रहा है.

यूपी की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए चंद्रशेखर आजाद युवाओं को रोजगार, अपराध पर नियंत्रण, महिला सशक्तिकरण, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा का अधिकार जैसे मुद्दे गिना रहे हैं, लेकिन मायावती तो उस मोड़ से आगे बढ़ने को राजी ही नहीं हैं जहां से राजनीति की शुरुआत की थी.

जिन मुद्दों की मायावती को परवाह नहीं है, चंद्रशेखर आजाद उनका नाम लेकर ही युवाओं के बीच तेजी से पैठ बनाते जा रहे हैं. टाइम मैगजीन से मिले सम्मान के बाद सोशल मीडिया पर दलित समाज से आने वाली नयी पीढ़ी की रिएक्शन देखते ही बना था - चंद्रशेखर आजाद ने दलितों की नयी जमात में रोल मॉडल बन कर जो उम्मीद जगायी है, उसे मायावती ने शायद ही कभी अहमियत दी हो.

मायावती के राजनीतिक की सबसे बड़ी खामी भी यही है कि बीएसपी में अपने बाद दूसरी पंक्ति का नेता भी किसी को बनने नहीं दिया. जो भी कांशीराम के जमाने के नेता या कार्यकर्ता रहे, धीरे धीरे या तो बीएसपी छोड़ते गये या फिर मायावती ने असुरक्षा की भावना से निकाल बाहर किया. चाहे स्वामी प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक या फिर नसीमुद्दीन सिद्दीकी कोई भी हों बारी बारी सभी मायावती का साथ छोड़ चुके हैं - ले देकर कर एक सतीशचंद्र मिश्रा बचे हुए हैं. या तो खुद वो इतने काबिल हैं कि मायावती के हर तिकड़म से वाकिफ हैं या फिर मायावती को उनसे कोई खतरा कभी महसूस नहीं हुआ.

ऐसे ही कांशीराम के जमाने के एक नेता को चंद्रशेखर ने आजाद समाज पार्टी के यूपी की कमान सौंपी है - सुनील कुमार चित्तौड़. सुनील कुमार चित्तौड़ कभी मायावती के इतने भरोसेमंद हुआ करते थे कि यूपी विधान परिषद में उनको बीएसपी का नेता बनाया गया था. बीएसपी में रहते सुनील कुमार कई जगह कोऑर्डिनेटर भी रह चुके हैं.

अब तो ऐसा लगता है जैसे आने वाले यूपी चुनाव में मायावती का राजनीतिक अस्तित्व ही नहीं, दलित राजनीति का भविष्य भी दांव पर लगा हो - वोट बैंक पर नजर बीजेपी की टिकी हो.

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