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Updated: 27 जून, 2021 09:38 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मायावती (Mayawati) ने ऐलान किया है कि बहुजन समाज पार्टी 2022 में यूपी चुनाव (UP Election 2022) अपने बूते लड़ेगी - और ये रणनीति उत्तराखंड चुनाव में भी लागू रहेगी. मतलब, मायावती उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल से गठबंधन नहीं करने जा रही हैं.

मायावती ने ये रिएक्शन मीडिया के उन खबरों पर दी है जिनमें बीएसपी के असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की पार्टी AIMIM के साथ गठबंधन का जिक्र हो रहा था. ऐसा इसलिए भी क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों दल चुनाव पूर्व गठबंधन के साथ मैदान में उतरे थे, लेकिन पूरे गठबंधन में फायदे में सिर्फ ओवैसी की पार्टी ही रही जिसे एक झटके में 5 सीटें मिल गयीं.

मायावती ने वैसे तो 2019 के आम चुनाव के बाद सपा-बसपा गठबंधन को एकतरफा तोड़ने के बाद भी कहा था कि आगे वो अकेले ही चुनावों में हिस्सा लेंगी. ये बताने के साथ ही शायद जताने के लिए मायावती ने अपनी रणनीति के खिलाफ जाते हुए आम चुनाव के बाद हुए उपचुनावों में भी हिस्सा लिया था.

मायावती के चुनावी गठबंधन करने की संभावना इसलिए भी लग रही थी क्योंकि हाल ही में बीएसपी ने अकाली दल के साथ पंजाब में चुनावी गठबंधन किया है. बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने अकाली नेता सुखबीर सिंह बादल के साथ इस गठबंधन की घोषणा भी की थी.

बीते बरसों में बीएसपी की राजनीति को देखें तो मायावती खुद को दलित की बेटी के रूप में प्रोजेक्ट करते हुए यूपी के यूपी के दलित वोट बैंक के हिस्से राजनीति में टिकी हुई हैं. बाद में मायावती के साथ सिर्फ उनकी बिरादरी के वोट ही उनको मिल पाते हैं. अकेले उनके भरोसे विपक्ष की राजनीति तो चल सकती है, सत्ता की राजनीति तो संभव ही नहीं है.

सत्ता हासिल करने के लिए मायावती को कभी गठबंधन की मदद लेनी पड़ी है तो कभी सोशल इंजीनियरिंग का सहयोग लेना पड़ा है, बगैर इसके मायावती को लंबे संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा है - और फिलहाल तो मायावती के सामने सबसे बड़ा चैलेंज भी यही है.

अब अगर मायावती चुनावी गठबंधन के कंसेप्ट को पूरी तरह खारिज कर रही हैं, मतलब - या तो मायावती सत्ता की राजनीति में कुछ खास मजबूरियों के चलते सिर्फ रस्म अदायगी भर करना चाहती हैं या फिर आजमाये हुए सोशल इंजीनियरिंग के ही किसी नुस्खे को फिर से आजमाने की तैयारी में लगती हैं - फिर तो देखना होगा कि मायावती के पिटारे से आने वाले दिनों में क्या निकल कर आता है?

मुस्लिम वोट से मोहभंग या चुनावी गठबंधन से?

मायावती 2022 का पंजाब चुनाव तो अकाली दल के साथ गठबंधन करने लड़ेंगी, लेकिन यूपी चुनाव में कोई गठबंधन नहीं करेंगी - और हां, उत्तराखंड के बारे में भी बीएसपी नेता ने ऐसा ही कहा है.

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में मायावती गठबंधन के साथ ही उतरी थीं - और खास बात ये रही कि बिहार के जिस चुनावी गठबंधन में मायावती शामिल थीं, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM भी उसका हिस्सा रही. यूपी की एक और पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी उसी गठबंधन में शामिल थी - ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट. फ्रंट के नेता उपेंद्र कुशवाहा रहे जो चुनाव बाद अपनी पार्टी के साथ नीतीश कुमार की जेडीयू में शामिल हो गये. फिलहाल वो जेडीयू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष हैं.

mayawati, asaduddin owaisiगठबंधन से मायावती का परहेज तो सोशल इंजीनियरिंग के ही संकेत दे रही हैं - क्योंकि बीएसपी अभी अपने बूते सत्ता हासिल कर पाएगी, ऐसा तो नहीं लगता!

मायावती ने ट्विटर पर ही ओवैसी के साथ चुनावी गठबंधन की खबरों को खारिज किया है - और लगे हाथ मीडिया से अपील की है कि बहुजन समाज पार्टी से जुड़ी कोई भी खबर हो तो पहले सतीश चंद्र मिश्र से सही जानकारी जरूर लें, ताकि पार्टी अपना पक्ष रख सके. ट्विटर के जरिये ही मायावती ने ये भी बताया है कि सतीश चंद्र मिश्र को बीएसपी के मीडिया सेल का राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर बनाया गया है.

असदुद्दीन ओवैसी के साथ गठबंधन को लेकर मायावती ने बड़े ही सख्त लहजे में रिएक्ट किया है और ये बात थोड़ी अजीब लगती है. आखिर मायावती को ओवैसी के साथ भी अखिलेश यादव जैसा ही कोई गठबंधन का कड़वा अनुभव हुआ है या फिर वो मुस्लिम समुदाय के बीएसपी का साथ न देने से खफा हैं.

2012 में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के हाथों सत्ता गंवाने के बाद से मायावती ने कम से कम दो चुनावों में बड़ी उम्मीद के साथ मुस्लिम वोट बैंक को साधने की शिद्दत से कोशिश की - 2014 के आम चुनाव और 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में भी.

2019 में भी देवबंद की एक रैली में मायावती के भाषण पर काफी विवाद हुआ था - और बीजेपी की तरफ से चुनाव आयोग में शिकायत भी की गयी थी. तब बीजेपी नेता जेपीएस राठौर ने मायावती पर वोट के लिए धार्मिक उन्माद भड़काने जैसे बेहद गंभीर आरोप लगाये थे.

बीएसपी नेता के जिस भाषण पर बवाल मचा था, उसमें मायावती कह रही थीं, 'मैं खासतौर पर मुस्लिम समाज के लोगों से ये कहना चाहती हूं कि आपको भावनाओं में बहकर, रिश्ते-नातेदारों की बातों में आकर वोट बांटना नहीं है - बल्कि, एकतरफा वोट देना है.' तब मायावती सपा-बसपा गठबंधन के लिए वोट मांग रही थीं और साफ साफ कह रही थीं कि कांग्रेस को वोट न देकर वे सिर्फ गठबंधन को वोट दें ताकि बीजेपी को सत्ता से बेदखल किया जा सके.

2017 के चुनाव में मायावती को बीजेपी को लेकर कोई संभावना तो रही नहीं होगी, इसलिए सारा फोकस अखिलेश यादव को दोबारा सत्ता में आने से रोक कर खुद लौटने की कोशिश रही. तब बीएसपी को मुस्लिम वोट दिलाने के लिए मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को जिम्मेदारी दे रखी थी और पूर्वी यूपी के मुस्लिम वोट के लिए मुख्तार अंसारी को सुधरने के नाम पर एक और मौका दिया था. नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे उन दिनों बीएसपी के लिए वोट मांग रहे थे, वैसे ही फिलहाल सलमान खुर्शीद की अगुवाई में कांग्रेस के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.

अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन तोड़ते वक्त मायावती ने एक खास वजह भी बतायी थी - वोट ट्रांसफर न होना. असल में, गोरखपुर, फूलपुर और उसके बाद कैराना उपचुनाव में मायावती ने समाजवादी पार्टी के कैंडीडेट को सपोर्ट किया था और तीनों उपचुनावों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत की वजह वो बीएसपी के वोटों का ट्रांसफर होना मान कर चल रही थीं - और शायद ये बात ही 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का प्रमुख आधार भी रही होगी.

सवाल ये है कि मायावती समाजवादी पार्टी के किस वोट के ट्रांसफर होने की बात कर रही होंगी - यादव वोट या मुस्लिम वोट? कहीं मायावती को ये तो नहीं लगा कि अखिलेश यादव मुस्लिम वोट बीएसपी को ट्रांसफर नहीं करा पाये? 2014 में जीरो बैलेंस में रहीं मायावती ने 2019 में 10 संसदीय सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन अखिलेश यादव की पार्टी को महज 5 ही सीटें मिली थीं. मायावती के मैनपुरी पहुंच कर वोट मांगने से या जैसे भी मुलायम सिंह यादव तो संसद पहुंच गये, लेकिन डिंपल यादव चुनाव हार गयीं.

बाद में भी मायावती को अक्सर बीजेपी के सपोर्ट में खड़े देखा गया. लगता तो ऐसा ही है जैसे मायावती के शब्द भले अलग हों, लेकिन उनके स्टैंड खुल कर बीजेपी के एजेंडे के सपोर्ट में हो गया है - और ये ऐसा है जो मुस्लिम समुदाय को बीएसपी से दूर ही ले जा सकता है, नजदीक आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.

जब यूपी में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहा और पुलिस एक्शन के शिकार मुस्लिम परिवारों से प्रियंका गांधी मिलने जातीं तो बीजेपी से पहले मायावती ही कांग्रेस महासचिव के खिलाफ धावा बोल देतीं. जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के मामले में भी मायावती ने खुल कर मोदी सरकार का सपोर्ट किया. आलम ये रहा कि धारा 370 पर सरकार के स्टैंड के खिलाफ बोलने पर मायावती ने दानिश अली को लोक सभा में बीएसपी के नेता के पद से भी हटा दिया.

ऐसे कई मौकों पर कांग्रेस विरोध के नाम पर मायावती का स्टैंड बीजेपी के सपोर्ट में ही नजर आया, जो मुस्लिम समुदाय को कभी मंजूर नहीं हो सकता. तभी तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मायावती को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता तक करार दिया है.

आम चुनाव के दौरान मायावती खुद को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर भी पेश कर रही थीं - और एक रैली में मायावती समझा रही थीं कि अगर चुनाव बाद उनको लखनऊ से कहीं दिल्ली शिफ्ट हो जाना पड़ा और बीएसपी के लिए नया नेता चुनना पड़ा तो वो दलित नहीं तो मुस्लिम ही होगा. मुलायम सिंह और लालू यादव की तरह मायावती का ये दलित-मुस्लिम गठजोड़ प्रयोग रहा लेकिन बार बार असफल साबित हुआ.

फिर से सोशल इंजीनियरिंग की तैयारी है क्या?

जिस रैली में मायावती ने बीएसपी में दलितों के बाद मुस्लिम समुदाय को महत्व दिये जाने की बात की थी, उसी दौरान एक तरीके से ब्राह्मणों को लेकर भी एक मैसेज दिया था. मायावती ने समझाया था कि मुस्लिम समुदाय ये न सोचे कि उनके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद दलित नेता के अभाव में कोई ब्राह्मण बीएसपी को लीड करेगा.

मायावती ने रैली में समझाया था कि वो जहां कहीं भी जाती हैं तो सतीश चंद्र मिश्र को साथ रखने की वजह और ही होती है - ताकि कहीं कोई कानूनी पचड़ा हो तो वकील होने के नाते सतीश चंद्र मिश्र मोर्चा संभाल लें.

सतीश चंद्र मिश्र ही अब तक मायावती के भरोसेमंद साथी बने हुए हैं क्योंकि स्वामी प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक, नसीमुद्दीन सिद्दीकी और राम अचल राजभर जैसे नेताओं का मायावती से साथ छूट चुका है. हां, मायावती अपने भाई को बीएसपी का उपाध्यक्ष बनाने और हटाने जैसे प्रयोगों के बाद भतीजे आकाश आनंद को लायी हैं. तृणमूल कांग्रेस में अभिषेक बनर्जी की तरह ही बीएसपी में आकाश आनंद को मायावती के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता है.

मायावती के अब तक के सबसे सफल सोशल इंजीनियरिंग एक्सपेरिमेंट के जो आर्किटेक्ट रहे हैं, सतीश चंद्र मिश्र भी उनमें से एक हैं. 2007 में 206 सीटों के साथ सतीश चंद्र मिश्र के दलित-ब्राह्मण गठजोड़ की बदौलत ही मायावती अपने बूते मुख्यमंत्री बन पायी थीं, लेकिन उसे पांच साल से आगे नहीं बढ़ा पायीं - और तब से मायावती की राजनीति हाशिये की तरफ ही बढ़ती जा रही है. 2012 में हुए अगले ही चुनाव में बीएसपी 80 सीटों पर पहुंच गयी - 2017 में तो ये नंबर 19 हो गया था.

मायावती ने जिस तरीके से दानिश अली को हटाकर रितेश पांडे को लोक सभा में बीएसपी का नेता बनाया वो भी दिलचस्प लगता है. अंबेडकर नगर से सांसद रितेश पांडे बीएसपी में सतीश चंद्र मिश्र के बाद नया ब्राह्मण चेहरा बन गये हैं. रितेश के पिता राकेश पांडे भी बीएसपी के सांसद रहे हैं. लंदन से इंटरनेशनल बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाले रितेश 2017 में बीएसपी के टिकट पर यूपी विधानसभा और 2019 में संसद पहुंच गये.

पहले विधायक और फिर सांसद बनने के साल भर के भीतर ही रितेश पांडे को लोक सभा में बीएसपी का नेता बना देना भी क्या मायावती के मिशन 2022 का कोई हिस्सा हो सकता है?

अभी पिछले साल अगस्त में ही परशुराम जयंती के मौके पर मायावती ने सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की मांग का समर्थन किया था - और कहा कि अगर बीजेपी सरकार ऐसा नहीं करती तो बीएसपी की सरकार बनने पर वो जरूर करेंगी. मायावती ने तभी ये भी वादा किया कि सत्ता में आने पर वो परशुराम की मूर्ति बनवाने के साथ साथ अस्पताल और गेस्ट हाउस भी बनवाएंगी.

क्या मायावती फिर से दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला अपनाने जा रही हैं. देखें तो अब तक मायावती का यही एक प्रयोग सफल भी रहा है. परशुराम जयंती के मौके पर मूर्तियां बनाने को लेकर मायावती और अखिलेश यादव में जो होड़ मची देखी गयी - कहीं वही मायावती की नयी रणनीति की नींव की ईंट तो नहीं?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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