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Updated: 20 जुलाई, 2017 09:37 PM
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मायावती के लिए लालू प्रसाद का खुला ऑफर है. बिहार से राज्य सभा में भेजने का. फिर अब तो कोई नहीं कह सकता है कि मायावती के लिए आगे से राज्य सभा का रास्ता भी बंद हो चुका है. लेकिन सवाल है कि क्या मायावती को ऐसा ऑफर मंजूर होगा? मायावती की इसको लेकर जो भी सोच हो, इतना तो साफ है कि उनके लिए एकला चलो का रास्ता मोदी-योगी वाली बीजेपी की बाढ़ में बह चुका है.

मायावती के इस्तीफे पर दलितों ने कैसे रिएक्ट किया होगा? इसके लिए उनकी मन की बात सुननी होगी जो किसी न किसी चुनाव में ही सुनने को मिलेगी. रैलियों से कुछ भी पता नहीं चलता. पिछले पांच साल में मायावती की किसी भी रैली में बाकियों की तरह खाली जगह या कुर्सियां नहीं दिखीं, लेकिन सच तो यही है कि वो भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हुई.

बहरहाल, मायावती का इस्तीफा मंजूर हो चुका है. हालांकि, इसके लिए उन्हें दोबारा एक लाइन का इस्तीफा भेजना पड़ा. पहली बार उन्होंने कारण सहित इस्तीफा भेजा था जिस पर सभापति पीजे कुरियन ने ये भी कहा कि सदन चाहता है कि मायावती अपना इस्तीफा वापस ले लें.

वैसे बोलना क्या था?

मायावती ने इस्तीफा देते हुए कहा कि राज्य सभा में उन्हें बोलने नहीं दिया गया. वैसे बोलना क्या था? घंटी तो तीन मिनट बाद ही बजी थी, लेकिन उसमें वो कुछ भी नहीं बोल पाईं, ऐसा क्यों लगता है उन्हें?

कहीं ऐसा तो नहीं कि मायावती उसी तरह की नोकझोंक चाहती थीं जैसा रोहित वेमुला के मामले में हुआ था. कहीं इस बार भी उन्हें स्मृति ईरानी का ही इंतजार तो नहीं रहा जो उठ खड़ी हों और बोलें, "अगर मायावती जी मेरे जवाब से संतुष्‍ट नहीं होंगी तो मैं अपना सिर काटकर आपके चरणों में रख दूंगी."

मायावती के इस्तीफे पर दलित विचारक कंवल भारती की बीबीसी पर टिप्पणी है - 'अब वे राज्य सभा से इस्तीफा देकर अपनी उंगली काटकर शहीद बनना चाहती हैं. लेकिन उन्हें शहीद बनने की जरूरत नहीं है.'

mayawati saharanpurकब तक चुप रहूंगी?

सहारनपुर को लेकर तो मायावती लगातार कन्फ्यूज नजर आईं. उन्होंने सहारनपुर का दौरा किया जरूर था. दलितों पर अत्याचार की बात भी की थी, लेकिन भीम आर्मी को लेकर वो लगातार बयान बदलती रहीं. सहारनपुर जाकर मायावती ने बगैर नाम लिये कहा कि लोग अलग से आंदोलन करने की बजाय बीएसपी के बैनर तले करें तो उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता. बाद में उन्होंने भीम आर्मी को बीजेपी से जोड़ने की कोशिश की. मायावती को शायद अंदाजा नहीं था ये रवैया कितना घातक हो सकता है.

मायावती तो कांशीराम की बोई फसल काटने में इतनी मशगूल रहीं कि उनके साथी छोड़ कर जाते रहे उन्हें फर्क ही नहीं पड़ा. दलितों के लिए कांशीराम ने जो सपना देखा था मायावती ने उसका रुख बदल दिया. कांशीराम के सपने में आंदोलन के जरिये दलितों को संगठित कर सत्ता में पहुंचाना और उन्हें उनका हक दिलाना था, लेकिन मायावती का सपना जैसे तैसे सत्ता हासिल करने तक सीमित हो गया. नये दौर में मायावती का सत्ता की कुर्सी पर बैठना दलितों का सम्मान और उनके खिलाफ किसी की कोई टिप्पणी दलितों का अपमान बन कर रह गया. इंडिया इज इंदिरा का स्लोगन तो किसी और ने दिया था, लेकिन मायावती ने तो अपने लिए ऐसी व्यवस्था खुद ही गढ़ ली थी.

मायावती शायद ये भी भूल गयीं कि कांशीराम पर निजी तौर पर न तो कभी भ्रष्टाचार और न ही परिवारवाद के आरोप लगे, लेकिन मायावती तो अब ये दोनों आरोप लग चुके हैं. मायावती की मुश्किल ये है कि ये बात उन्हें बहुत देर से मालूम हो पाई है कि उनके वोटर भी शौकीन और पढ़े-लिखे हैं. भीम आर्मी के समर्थक इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं.

परिवर्तन संसार का नियम है

यूपी की एक चुनावी रैली में मायावती समझा रही थीं कि अगर कहीं संयोग से उन्हें प्रधानमंत्री बनना पड़े तो उनका उत्तराधिकारी कोई दलित या मुस्लिम ही होगा - कोई ब्राह्मण नहीं. वहीं उन्होंने सतीश मिश्रा के बैठे होने का कारण भी समझाया. मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का एक्सपेरिमेंट एक बार तो काम कर गया लेकिन दोबारा नहीं चला. दलित और मुस्लिम गठजोड़ का गणित तो उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा. बेहतर तो यही है कि मायावती बाहर भटकने की बजाय अंदर ही अपने आप को मजबूत करें. दलितों को ही दोबारा विश्वास दिलायें. मायावती की भाषा में सुधार तो आया है, लेकिन अब भी वो उनके साथ वैसा ही सलूक करती हैं जैसा बाकी तबका अब तक करता आया है.

मायावती ये तो समझ चुकी हैं अब अकेले चलना मुश्किल है. इसीलिए उन्होंने अखिलेश से हाथ मिलाने और लालू प्रसाद की रैली में उनके साथ मंच शेयर करने की हामी भरी है. इसी रणनीति के तहत अब वो कांग्रेस के भी साथ हैं. मायावती को समझ आ गया है कि उनका वोट न तो समाजवादी पार्टी को जा रहा है और न कांग्रेस को ट्रांसफर हो पा रहा है, बल्कि सब का सब बीजेपी की ओर शिफ्ट हो जा रहा है. ये बात उन्हें तब समझ में आई जब 2007 में सत्ता हासिल करने के बाद, 2012 में मिली 80 विधानसभा सीटें 2017 में 19 पर सिमट गयीं.

हाल ही में सुना था बीजेपी से मुकाबले के लिए राहुल गांधी गीता और उपनिषद पढ़ रहे हैं. मायावती का पसंदीदा ग्रंथ मनुस्मृति रहा है जिसके हिसाब से वो विरोधियों को जब तब मनुवादी बताती रही हैं. गीता पढ़ना जरूरी तो नहीं, लेकिन मायावती को भी ये समझना होगा कि परिवर्तन संसार का नियम है. इस नियम के तहत खुद भी बदलना पड़ता है और तमाम तौर तरीकों को भी.

अगर मायावती को ये लगता है कि मीडिया या सोशल मीडिया की उन्हें जरूरत नहीं है तो अब भी मुगालते में हैं. अगर उन्हें अपने विरोधियों के प्रोपेगैंडा को चैलेंज करना है तो उन्हें अपनी पूरी सोच और सिस्टम को नये सिरे से अपग्रेड करना होगा. ध्यान रहे, इस चक्कर में जड़ें बची रहें. राहुल गांधी की ही तरह मायावती चाहें तो अरविंद केजरीवाल से भी सीख सकती हैं. अपनी 49 दिन की सरकार के लिए केजरीवाल ने पूरी दिल्ली घूम घूम कर माफी मांगी थी - और जैसी माफी उन्हें उसके लिए तो दुनिया का हर नेता ताउम्र तरसता होगा. चुनावों में लगातार नकार कर दलितों ने जता दिया है कि अब उन्हें सिर्फ मायावती को हेलीकॉप्टर में उड़ते देखना या जैसे तैसे सत्ता में बने रहने में कोई दिलचस्पी नहीं रही. अब वो खुद भी तरक्की में हिस्सेदार बनना चाह रहे हैं. आखिर क्यों जो दलित वोटर सिर्फ मायावती के नाम पर किसी को भी वोट दे देते रहे अब वो बीएसपी के उम्मीदवारों को भी वोट नहीं दे रहे?

दरअसल, मायावती को अभी दो-दो मोर्चों पर भिड़ना है. एक तरफ मोदी की सेना है तो दूसरी तरफ दलित नौजवानों की भीम आर्मी भी लगातार चुनौती दे रही है. संसद छोड़ कर मायावती को अब सिर्फ सड़क पर उतरने के बाद मायावती के सामने राजनीतिक तौर पर कुछ बचा नहीं है - अगर वो पुराने तौर तरीके नहीं बदलतीं.

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