मायावती को बहुत महंगा पड़ेगा मुलायम के लोगों को नसीहत देना
मायावती की नजर में समाजवादी पार्टी के लोगों को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है. सही बात है सबको हमेशा ही सीखने की जरूरत होती है - लेकिन मायावती को ये कैसे लगता है कि मुलायम सिंह के समर्थक बीएसपी कार्यकर्ताओं से सीखने को राजी होंगे?
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मायावती काफी अनभवी हैं - और अखिलेश यादव मायावती के राजनीतिक अनुभव के खासे कायल हैं. लेकिन लगता है मायावती का अनुभव अब अखिलेश यादव को भारी पड़ने वाला है. सपा-बसपा गठबंधन में भी मायावती अपनी छवि के मुताबिक रंग दिखाने लगी हैं जैसा उनका व्यवहार पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ हुआ करता है. मुश्किल ये है कि मायावती ये भूल जा रही हैं कि दोनों दलों के कार्यकर्ताओं में बहुत बड़ा फर्क है.
मायावती ने समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को बीएसपी कार्यकर्ताओं से सीखने की सलाह दी है - बड़ा सवाल ये है कि क्या मुलायम सिंह यादव के लोग मायावती की नसीहत को स्वीकार कर पाएंगे?
मायावती की अनुशासन की पाठशाला
मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव और रामपुर में मोहम्मद आजम खां के लिए वोट मांगने के बाद मायावती फिरोजाबाद पहुंची थीं - अक्षय यादव के लिए वोट मांगने. अक्षय यादव, मुलायम सिंह के भाई रामगोपाल यादव के बेटे हैं और इस बार चुनाव मैदान में शिवपाल यादव भी उतर आये हैं. चाचा भतीजे की तल्खी सपा-बसपा गठबंधन की रैली में भी सुनायी देती है. अखिलेश यादव कहते हैं, 'फिरोजाबाद से चुनाव लड़ने वाले एक नेता कह रहे हैं कि हमने उनको घर से निकाल दिया. सच्चाई ये है कि वह भाजपा के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. वो रात में भाजपा के नेताओं से मिलते हैं और उन्हीं के सहारे अपनी राजनैतिक लड़ाई लड़ना चाहते हैं.' शिवपाल यादव को बीजेपी का आदमी भी मायावती ने ही बताया था और अखिलेश यादव उसी लाइन को आगे बढ़ा रहे हैं.
रैली में मायावती के भाषण के बीच ही समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता नारे लगाने लगे. ऐसा हर रैली में होता है और नेता भाषण रोक कर उनसे संवाद करने लगते हैं. मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की रैलियों में भी ये होता रहा है. मायावती को ऐसी नारेबाजी की आदत नहीं रही है. वो तो चाहती हैं कि जब वो भाषण पढ़ती हैं तो समर्थक पूरी तन्मयता से चुपचाप सुनें.
मायावती को समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं को नसीहत देने के बाद लेने के देने पड़ सकते हैं...
फिरोजाबाद में जब समाजवादी कार्यकर्ताओं की नारेबाजी नहीं थमी तो मायावती को भाषण रोकना पड़ा. गुस्सा स्वाभाविक था. मायावती बोलीं, 'आपलोग ये जो बीच में... जो नारेबाजी लगाते हैं... हल्ला करते हैं... आप लोगों को थोड़ा बीएसपी के लोगों से सीखना चाहिए कि कैसे वे अपनी बात रखते... मेरी बात सुनते हैं.'
मायावती यहीं नहीं रुकीं, नसीहत देते देते वो कई कदम आगे बढ़ गयीं, 'मेरे ख्याल से समाजवादी पार्टी के लोगों को भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है.'
#WATCH BSP Chief Mayawati in joint SP-BSP-RLD rally in Firozabad earlier today: Aaplog ye jo beech mein, jo naarebaazi lagate hain, halla karte hain, aaplogon ko thoda BSP ke logon se sikhna chahiye.......Samajwadi Party ke logon ko bhi bahut kuch sikhne ki zaroorat hai abhi pic.twitter.com/EWfknhWo21
— ANI UP (@ANINewsUP) April 20, 2019
ये सारा वाकया अखिलेश यादव की मौजूदगी में हुआ. अखिलेश यादव भी उस वक्त मंच पर ही बैठे हुए थे. बोले कुछ नहीं. बोलते भी क्या? लेकिन क्या कभी नहीं बोलेंगे? आखिर कब तक चुप रहेंगे? लेकिन क्या उनके चुप रह जाने से समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता भी चुप रह जाएंगे?
1. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का 'हल्ला बोल' हर किसी ने देखा है. 1994 में मुलायम सिंह ने जब यूपी के दो अखबारों के खिलाफ हल्ला बोल का नारा दिया तो वे टूट ही पड़े. तब तो उत्पात किया ही, आगे भी जहां कहीं भी उनकी मर्जी के खिलाफ कुछ होता, 'बोल मुलायम हल्ला बोल' के साथ धावा बोल देते.
2. सैफई में एक बार कार्यकर्ता इतने उत्साहित हो गये कि मुलायम सिंह से भी कंट्रोल नहीं हो पा रहे थे. तब वे मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर रहे थे. बेकाबू होते कार्यकर्ताओं से मुलायम सिंह ने अनुशासन बनाये रखने की अपील की और हंसते हंसते कहा - 'शांत रहोगे तभी तो प्रधानमंत्री बनेंगे... ऐसे ही अनुशासन तोड़ोगे तो कैसे प्रधानमंत्री बनेंगे?' फिर कार्यकर्ता शांत हो गये, लेकिन उन्हें शांत कराने वाले भी मुलायम सिंह यादव ही थे - कोई और नहीं.
3. 2017 में विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान एक रैली में उत्साहित समाजवादी कार्यकर्ता मंच पर चढ़ने लगे तो डिंपल यादव को गंभीर होकर मना करना पड़ा था.
4. ये मायावती ही हैं जो समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के उत्पात को गुंडई की संज्ञा देती रही हैं. भला मायावती को ये कैसे लगने लगा कि वे सब उनकी हर बात मान लेंगे?
मायावती के नसीहत देने पर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता केक लूट कांड की याद दिलाने लगे हैं. समाजवादी कार्यकर्ता पूछ रहे हैं कि जब अमरोहा में बीएसपी कार्यकर्ता मायावती के बर्थडे पर केक लूट रहे थे तब उनका अनुशासन कहां चला गया था?
#WATCH: People loot cake during an event in Amroha, on Bahujan Samaj Party (BSP) chief Mayawati's 63rd birthday today. pic.twitter.com/8Q4bDWdr66
— ANI UP (@ANINewsUP) January 15, 2019
मुगालते में तो नहीं हैं मायावती
2015 में बिहार में जो महागठबंधन बना था उसमें शुरुआती दौर में मुलायम सिंह यादव भी खासे सक्रिय रहे. बल्कि तब तक डटे रहे जब तक कि महागठबंधन का नेता घोषित नहीं हो गया. तात्कालिक राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया गया - और लालू प्रसाद गठबंधन के बाय-डिफॉल्ट नेता बन बैठे. मायावती तो लगता है डबल रोल महसूस कर रही हैं - गठबंधन का नेता भी और प्रधानमंत्री पद का चेहरा भी. ध्यान रहे अखिलेश यादव ने कभी खुल कर या नाम लेकर साफ तौर पर अभी तक कुछ भी नहीं कहा है.
यूपी के सपा-बसपा गठबंधन में प्रधानमंत्री पद का अघोषित चेहरा तो मायावती हैं ही, लालू की तरह दबदबा कायम किये हुए हैं. अखिलेश यादव तो हद से ज्यादा सम्मान देते ही हैं, अब तो मुलायम सिंह यादव भी एहसान मान चुके हैं. यूपी और बिहार के गठबंधनों में मूलभूत फर्क ये है कि लालू प्रसाद अपने मजबूत जनाधार की वजह से कमजोर पड़ने वाले नीतीश कुमार पर दबादबा बनाये हुए रहते थे - लेकिन मायावती शायद भूल रही हैं कि मुलायम और अखिलेश का वोट बैंक नीतीश कुमार जैसा नहीं बल्कि मायावती से किसी मायने में अलग या कमजोर नहीं है. मायावती भूल रही हैं कि 2012 में समाजवादी पार्टी ने ही बीएसपी को सत्ता से बाहर किया था - और 2014 में बीएसपी का वोट शेयर भले ही देश में तीसरे स्थान पर हो, लेकिन समाजवादी पार्टी के पांच सांसद जीते थे - और मायावती की पार्टी का खाता भी नहीं खुल सका था. यूपी में फिलहाल बीएसपी के पास 19 विधायक, 8 एमएलसी और 4 राज्यसभा सांसद हैं. समाजवादी पार्टी इस मामले में भी आगे है - 48 विधायक, 55 एमएलसी, 5 लोक सभा और 13 राज्य सभा सांसद.
लगता है मायावती ये मान कर चलने लगी हैं कि जो सम्मान अखिलेश और मुलायम दे रहे हैं - समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता भी उतना ही तवज्जो देंगे. मायावती यहीं पर भूल कर रही हैं जिसका आगे चल कर खामियाजा भुगतना पड सकता है.
नेता और कार्यकर्ता का फर्क समझना होगा
ये ठीक है कि अखिलेश यादव समाजवादी कार्यकर्ताओं से कह चुके हैं कि वे मायावती के अपमान को उनका अपमान समझें. ये ठीक है कि मुलायम सिंह यादव सपा कार्यकर्ताओं से मायावती का सम्मान करने की अपील कर चुके हैं. ये भी ठीक है कि मायावती और मुलायम वोट बैंक को लेकर खुद भी साथ आ चुके हैं और कार्यकर्ताओं को भी इस मेलजोल का मैसेज दे रहे हैं - लेकिन ये सारी कवायद सिर्फ दलों को जोड़ सकता है, दिलों का जुड़ना मुश्किल होता है.
मुश्किल तो ये है कि जिस जातीय राजनीति की बदौलत मायावती अब तक मार्केट में बनी हुई हैं, उसी को झुठलाने की कोशिश कर रही हैं. मायावती न तो दलितों में चंद्रशेखर आजाद रावण जैसे नौजवान नेताओं के उभार को महसूस कर पा रही हैं - और न ही समाजवादी पार्टी के अस्तित्व को. समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं को कंट्रोल करना मुलायम और अखिलेश के अलावा हाशिये पर न भेजे जाने की स्थिति में सिर्फ शिवपाल यादव के ही वश की बात है.
मायावती को ये याद रखना चाहिये कि बीएसपी का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन हुआ है, पार्टी में विलय नहीं. मायावती का रौब अखिलेश यादव तो सह लेंगे और हो सकता है मुलायम सिंह यादव भी नजरअंदाज कर दें - लेकिन समाजवादी कार्यकर्ता कभी नहीं सुनने वाले. ये उसी जातीय व्यवस्था की सच्चाई है जिसे मनुवादी कह कर मायावती अपनी राजनीति चलाती आयी हैं.
समाजवादी कार्यकर्ता ये तो सुन सकते हैं कि बीजेपी जैसी राजनीतिक विरोधी या कांग्रेस को हराने के लिए गठबंधन के साथ चलना है, लेकिन वो नसीहत तो किसी की नहीं सुनने वाले - और वो भी बीएसपी कार्यकर्ताओं से सीखने की नसीहत तो वो हरगिज नहीं सुनने वाले.
मायावती अगर वक्त रहते जमीनी हकीकत को समझने में चूक गयीं तो सारी कवायद धरी की धरी रह जाएगी - गोरखपुर मॉडल गच्चा दे चुका है - और कैराना मॉडल कांग्रेस के आने से ढीला पड़ चुका है. ऐसे में हर कदम पर एक ही सीख जरूरी है - सावधानी हटी, दुर्घटना घटी.
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