मायावती सिर्फ यूपी पर ही फोकस करें तो बीएसपी को बचा सकती हैं
मायावती फिलहाल चार मोर्चों पर जूझ रही हैं. एक, 2019 में कोई चमत्कार हो जाये. दो, कार्यकर्ताओं में जोश बना रहे. तीन, बीएसपी बूथ लेवल पर मजबूत हो और चार, राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा किसी तरह बच जाये.
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मायावती को वे सारे समझौते करने पड़ रहे हैं जो उन्हें कभी और कतई पसंद नहीं रहे. उपचुनाव न लड़ने के फैसले पर अडिग रहना अपवाद के रूप में बस बचा हुआ है.
मायावती कभी भी चुनाव पूर्व गठबंधन की पक्षधर नहीं रही हैं, लेकिन अब तक वो यूपी के अलावा कर्नाटक और हरियाणा में भी गठबंधन कर चुकी हैं. दरअसल, बीएसपी को मिले राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर खतरा मंडरा रहा है - और मायावती उसी को बचाने में जी जान से जुटी हुई हैं.
अब भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा
2007 में मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के सहारे जो कुछ भी जुटाया था, पांच साल सरकार चलाने के बाद गंवा दिया. 2012 की हार के बाद के पांच साल में मायावती ने कई साथी गंवा डाले. 2014 में तो खाता तक न खुला - और 2017 की हार ने तो बीएसपी को कहीं का नहीं छोड़ा. रही सही कसर राज्य सभा चुनाव में पूरी हो गयी. राहत की बात बस इतनी है कि राज्य सभा से चूके भीमराव अंबेडकर को मायावती ने अखिलेश यादव की मदद से विधान परिषद भेज दिया.
अस्तित्व की आखिरी लड़ाई...
खुद को आजमाने के लिए गोरखपुर और फूलपुर के नतीजे मायावती के लिए सान्तवना पुरस्कार जैसे ही हैं. खुद का जो भी हाल हो, मायावती ने ये तो साबित कर ही दिया है कि अब भी वो अपना वोट ट्रांसफर कर किसी को भी जिता सकती हैं. अब मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती है बीएसपी को मिला राष्ट्रीय दर्जा बचाना - और 2019 की लड़ाई इस मामले में आखिरी जंग भी हो सकती है.
यूपी की तैयारी फिर से
कर्नाटक और हरियाणा में गठबंधन के दरम्यान ही बीएसपी ने यूपी की सभी 80 लोक सभा सीटों के लिए प्रभारी नियुक्त कर दिये हैं. वैसे इससे पहले खबर ये आई कि बीएसपी गांधी परिवार के सदस्यों के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं उतारेगी. समाजवादी पार्टी तो पहले से ही अमेठी और रायबरेली में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करती.
फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि सभी सीटों पर बीएसपी के प्रभारी नियुक्त कर दिये जायें और अमेठी और रायबरेली से दूर रहना भी हो जाये. वैसे तो बीएसपी नेता मान कर चलते हैं कि जो जिस लोक सभा क्षेत्र का प्रभारी नियुक्त हो गया वही चुनाव में उम्मीदवार भी होगा. साथ में ये भी तकरीबन तय ही रहता है कि किसी भी प्रभारी को मना कर किसी और को उम्मीदवार बनाया जा सकता है. इतना ही नहीं, उम्मीदवार कितने बार बदले जा सकते हैं इसकी भी कोई सीमा नहीं है.
वैसे बीएसपी की ओर से बताया गया है कि प्रभारियों की नियुक्ति के मोटे तौर पर दो मकसद साफ हैं - पहला कार्यकर्ताओं में जोश बरकरार रहे. दूसरा, बूथ लेवल पर बीएसपी मजबूत हो.
ताकि बची रहे बीएसपी
यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ जाने से पहले मायावती के कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस के साथ गठबंधन किया. कर्नाटक चुनाव में बीएसपी फिलहाल जेडीएस की चुनाव पूर्व साझीदार है. जेडीएस के अलावा मायावती ने हरियाणा में चौटाला परिवार की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल के साथ समझौता किया है. चुनाव में गठबंधन को जो भी हासिल हो पाये, वहां तो अभी से ही मायावती में प्रधानमंत्री पद का पोटेंशियल देखा जाने लगा है.
ऐसा क्यों लग रहा है कि मायावती यूपी से ज्यादा दूसरे राज्यों में सक्रिय नजर आ रही हैं?
मायावती की पार्टी यूपी के अलावा उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में भी एक्टिव रहने की पूरी कोशिश करती है. इससे चुनावों में जीत तो संभव नहीं हो पाती लेकिन वोटों में थोड़ी बहुत हिस्सेदारी से कागजी दावेदारी मजबूत बनी रहती है - और अस्तित्व पर अचानक मंडराने वाले खतरे को टाला जा सकता है.
राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिए पहली शर्त तो यही है कि लोक सभा की कम से कम 2 फीसदी सीटें मिली हैं. दूसरा कंडीशन ये है कि लोक सभा या विधानसभा चुनाव में 6 फीसदी वोट के साथ ही चार लोक सभा सीटों पर जीत हासिल होनी चाहिये. तीसरी शर्त है कि 4 या उससे ज्यादा राज्यों में राज्यस्तरीय पार्टी के रूप में मान्यता मिल जाये.
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