हिंदुस्तान में अल्पसंख्यक जैसे अधिकार के और भी हैं हक़दार!
जैसा देश का माहौल है अब वो समय आ गया है जब अल्पसंख्यकों (Definition of Minorities) की परिभाषा को नए सिरे से परिभाषित किये जाने की जरूरत है. बात भारत की हो तो यहां कई जातियां ऐसी हैं जो अल्पसंख्यक बनने का अधिकार रखती हैं.
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अल्पसंख्यक (Minorities in India) अब कौन है और किसे कहा जाए, इसको नए सिरे से रेखांकित करने की जरूरत है. हिंदुस्तान में आज अल्पसंख्यक जैसे अधिकार (Minorities Rights) की हक़दार कई जातियां हैं. अगड़ी जातियों में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी दयनीय स्थिति किसी अल्पसंख्यकों से कम नहीं है. भारत में अल्पसंख्यक सिस्टम जाति आधार पर व्याख्ति है. बीस वर्ष पूर्व मुस्लिम (Muslim), सिख (Sikh), ईसाई (Christian), बौद्ध, पारसी जैन आदि जातियों की स्थिति निश्चित रूप से ज्यादा अच्छी नहीं थी. तब इन्हें अल्पसंख्यकों का दर्जा दिया गया. सरकारी सहूलियतें हों, चाहें खुद के किए संघर्ष से इनकी ज्यादातर आबादी अब संपन्न और खुश हाल है. चार अगड़ी जातियां जो कभी सपन्न हुआ करती थी, उनकी स्थिति अब कहां जा पहुंची है, शायद किसी को बताने की जरूरत नहीं. दरअसल, ये समय की दरकार है कि अल्पसंख्यक अधिकार देने की संज्ञा को दो दोबारा से व्याख्ति किया जाए.
अब वो वक़्त आ गया है जब सरकार को अल्पसंख्यकों की परिभाषा पर पुनः विचार करना चाहिए
इराक में पारसी, पाकिस्तान में हिंदुओं और हिंदुस्तान में मुस्लिमों की दशा तब कुछ ज्यादा अच्छी नहीं थी. वह कई सामाजिक बुराईंयों से ग्रस्त थे. वह भी औरों की तरह मुख्य धारा से जुड़े, अल्पसंख्यक अधिकार दिवस घोषित होने के बाद इनके लिए सभी देशों की हुकूमतों ने कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू की, विशेष कर सरकारी सेवाओं में आरक्षण के साथ इनकी भागीदारी सुनिश्चित हुई. नतीजा ये निकला भारत जैसे देश में मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी व जैनियों के जीवन में अप्रत्याशित बदलाव हुआ. नौकरियों और कामधंधों में सरकार ने इनको सहायता दी.
वहीं, पाकिस्तान जैसे मुल्क में अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त हिंदुओं की दशा आज भी किसी से छिपी नहीं, वहां उन्हें हिराकत भरी नजरों से देखा जाता है. नालों की सफाई, कूड़ा-करकट व सफाई कर्मचारियों की भर्ती में ही इन्हें शामिल किया जाता, वरना दूसरी सेवाओं में इन्हें जरा भी मौका नहीं दिया जाता. दूसरी तस्वीर ये है, भारत में मुस्लिमों के लिए कोई भेदभाव नहीं किया जाता. व्यापार, सेवा, राजनीति, मान-सम्मान सभी में बराबर का मौका प्रदान होता है. जैनी भी अल्पसंख्यक माने जाते हैं, जो अब पूरी तरह से संपन्न हैं. बड़े व्यवसायों में उनका डंका बजता है. वह अब खुद दूसरों को रोज़गार देते हैं. भारत में अल्पसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यक आयोग के अलावा अनेकों संस्थाएं अलग-अलग काम करती हैं.
अल्पसंख्यक का मतलब निर्धन, असहाय, गरीब, ज़रूरतमंद लोगों को आगे लाना और उनके अधिकारों की रक्षा करना होता है. भारत में अल्पसंख्यक कहे जाने वाले मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी और जैन सभी विकास की मुख्य धारा से जुड़कर अब कदमताल कर रहे हैं. ये अच्छी बात है, सभी खुश हाल हों, हाथ फैला कर मांगने की जरूरत किसी को न पडे. वहीं, एक और तस्वीर हमारे सामने है. हिंदुस्तान में आज भी कई ऐसी पिछड़ी जनजातियां हैं जो अल्पसंख्यक जैसे अधिकारों की हक़दार हैं.
बंजारा, घुमंतू उनमें प्रमुख हैं. इनकी आबादी करीब पच्चीस लाख से ज्यादा है. जिनका ना कोई वर्तमान है, ना कोई भविष्य। चैक-चैराहे, सड़क व बाजारों आदि जगहों पर तमाशा दिखा कर अपना पेट पालते हैं. बंजारों की जिंदगी खुद एक तमाशा बन कर सिमट गई है. तरक्की विकास तो दूर की बात है, मात्र दो जून की रोटी और चंद सिक्कों के लिए कोड़ों से अपने आपको तब तक पीटना पड़ता है जब तक देखने वाले की आंखें गीली न हों जाएं.
कागज़ों में पूर्व की सरकारों के पास कल्याणकारी योजनाओं की कभी कमी नहीं रही. लेकिन सभी सफेद हाथी साबित हुई, उन योजनाओं का लाभ घुमन्तु जनजातियों को कभी नहीं मिल सका. इनके लिए जो कुछ भी हुआ है वह कागज तक ही सीमित रहा है. ऐसी तस्वीरें देखने के बाद लगता है कि जिस विकास और संपन्नता के हम दावे करते हैं वे धरातल पर वास्तव में थोथरे ही हैं. अल्पसंख्यकों में अभी जितनी जातियां शामिल हैं उन्हें सुविधाएं मिलती रहें, कोई विरोध नहीं करता.
पर, उन जाति-समुदायों का भी ख्याल होना चाहिए, जो वास्तव में सुविधाओं का इंतजार कर रहे हैं. कभी कभार ऐसा भी प्रतीत होता है कि विकास की रोशनी जिन तक पहुंचनी चाहिए, उन तक पहुंची ही नहीं? ऐसा लगता है कि विकास कुछ खास वर्गों तक ही सिमट गया है? देश में पिछड़ी अनगिनत जातियां हैं जिनके पास समस्याओं का अंबार है. अशिक्षा, गरीबी, सामाजिक दुस्वारियां, इनकी असल पहचान है. इनके पक्ष में आवाज़ उठाने वालों का भी अकाल है.
अल्पसंख्यकों के अलावा जनजातियों की स्तिथि के अध्ययन के लिए फरवरी 2006 में काका कालेलकर आयोग बनाया गया था जिसके अध्यक्ष बालकिशन रेनके बनाए गए थे. उस समय जनजातियों के लिए केंद्र सरकार के पास इनको राहत देने के लिए कोई कार्य योजना नहीं थी. इसलिए बाद में उन्हें राज्यों के अधीन कर दिया गया. पहली और तीसरी पंच वर्षीय योजना तक इनके लिए प्रावधान था, लेकिन किसी कारण वश वह विकास राशि खर्च नहीं हो सकी, तो इन्हें उस सूची से ही हटा लिया गया. जबकि, रिपोर्ट में साफ कहा गया था कि कुछ जातियां अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़ी जातियों से भी पिछड़ी हैं.
जोर था कि उनके लिए भी अलग से कोई प्रावधान होना चाहिए। 2017 में मोदी सरकार ने इनके लिए दोबारा से सर्वे कराया है. उम्मीद है अब कोई मुकम्मल हल निकलेगा. फिर भी अतीत के इतिहास का जिक्र न करते हुए समय की दरकार यही कहती है कि पिछड़े लोगों के आर्थिक सुधार के लिए भी अल्पसंख्यकों जैसे विशेष पैकेज दिए जाएं, तभी अल्पसंख्यक अधिकार के सही में मायने निकल सकेंगे.
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