मोदी और केजरीवाल 'रेवड़ी कल्चर' पर आमने सामने क्यों - क्रोनोलॉजी क्या कह रही है
चुनावी वादों में मुफ्त की चीजों (Freebies) का मामला तीन संवैधानिक संस्थानों में विवेचना प्रक्रिया का हिस्सा बन चुका है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) सीधे सीधे एक दूसरे से भिड़े हुए हैं - आखिर ये बहस किस दिशा में बढ़ रही है?
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मुफ्त की चीजों (Freebies) को लेकर किये जाने वाले चुनावी वादों पर विवाद कोई नयी बात नहीं है. 2013 में भी ये विवाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था - और एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद की तीन जजों की बेंच के पास भेज दिया गया है.
ताजा विवाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के मौके पर रेवड़ी कल्चर पर बयान के बाद शुरू हुआ. प्रधानमंत्री मोदी का कहना रहा कि रेवड़ी बांटने वाले बड़े डेवलपमेंट प्रोजेक्ट लोगों के लिए नहीं ला सकते. मोदी ने किसी का नाम तो नहीं लिया था, लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आगे बढ़ कर मुद्दा कैच कर लिया और फिर तत्काल प्रभाव से हमलावर हो गये.
रेवड़ी कल्चर पर बहस बाहर तो जारी है ही, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने के साथ साथ चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को चिट्ठी लिखी है. बड़ी बेंच को भेजते वक्त सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई कर रही पीठ ने ये भी कहा कि 2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर फिर से विचार करने की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त के चुनावी वादों को लेकर कहा है कि एक विशेषज्ञ समिति बनानी होगी - और सर्वदलीय बैठक बुलाये जाने का भी प्रस्ताव भेजा गया है. सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि एक लोकतंत्र में असली ताकत वोटर के पास होती है - और वे ही उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को चुनते हैं.
सरकारी संस्थानों में ये मुद्दा प्रक्रिया का हिस्सा बना ही है, बाहर राजनीतिक घमासान भी मचा हुआ है. सरकार की तरफ से दी जाने वाली फ्री की सुविधाओं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) आमने सामने आ गये हैं. प्रधानमंत्री मोदी इसे रेवड़ी कल्चर बताते हैं तो अरविंद केजरीवाल रेवड़ी कल्चर कहे जाने को जनता का अपमान बता रहे हैं - और ये बहस चालू है.
राजनीति के मैदान में घमासान
कुछ दिन पहले की बात है, सैनिटरी नैपकिन को लेकर एक छात्रा के सवाल पर एक आईएस अफसर के जवाब पर खासा विवाद हुआ था, जवाब ही कुछ ऐसा था. छात्रा ने सैनिटरी नैपकिन पर सब्सिडी को लेकर सवाल पूछा था.
बिहार के महिला और बाल विकास निगम की प्रमुख हरजोत कौर का जवाब था, 'सरकार पहले से ही काफी कुछ दे रही है... आज, आपको सैनिटरी नैपकिन का पैकेट मुफ्त में दे सकते हैं... कल को जींस पैंट भी दे सकते हैं... परसों जूते भी दे सकते हैं... और अंत में जब परिवार नियोजन की बात आएगी तो कंडोम भी मुफ्त में ही देना पड़ेगा.'
मुफ्त की चीजों की लड़ाई चाहे राजनीति के मैदान में लड़ी जाये या संवैधानिक मंचों पर - आखिरी फैसला तो जनता ही सुनाएगी!
नौकरशाह क्या सोचते हैं, ये तो आपने जान लिया. अब ये भी जान लीजिये कि संघ के नेता ऐसी चीजों को लेकर क्या राय रखते हैं - सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या ये नजरिया शुरू से ही है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान आने के बाद से बदला है?
स्वदेशी जागरण मंच भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ही प्रमुख हिस्सा है - और मंच के ही राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन 'रेवड़ी कल्चर' को लेकर कानून तक बनाये जाने की मांग कर रहे हैं. ये मांग भी कुछ कुछ वैसी ही है जैसे कभी राम मंदिर निर्माण को लेकर डिमांड हो रही थी या अभी जनसंख्या नियंत्रण जैसी चीजों को लेकर.
अंग्रेजी वेबसाइट दि प्रिंट से अश्विनी महाजन कहते हैं, ‘मुफ्त के ये तोहफे वास्तव में वोटर के लिए एक तरह की रिश्वत है - और इस रिश्वतखोरी को रोकना होगा... चाहे ये किसी एक पार्टी द्वारा हो या दूसरी पार्टी की तरफ से... इसे कानून बना कर रोकना ही होगा.'
जनता का सम्मान-अपमान और राजनीति: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मध्य प्रदेश के सतना में पीएम आवास योजना के लाभार्थियों के बीच थे. प्रधानमंत्री ने ये समझाने की कोशिश की कि केंद्र सरकार लोगों को मुफ्त राशन क्यों दे रही है - और लगे हाथ ये भी कि जो केंद्र सरकार दे रही है वो रेवड़ी तो बिलकुल नहीं है.
प्रधानमंत्री मोदी बोले, कई महीनों से केंद्र सरकार 80 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त राशन इसलिए दे रही है, ताकि महामारी के समय उसे भुखमरी का सामना न करना पड़े.' मोदी का कहना था कि जब टैक्सपेयर को लगता कि उसका पैसा सही जगह खर्च हो रहा है तो टैक्सपेयर भी खुश होता... संतुष्ट होता है और वो ज्यादा टैक्स देता है.
अपनी बात को समझाने के लिए मोदी ने कहा, 'आज जब मैं चार लाख घर दे रहा हूं तो हर टैक्सपेयर सोचता होगा कि चलिये मैं तो दिवाली मना रहा हूं, लेकिन मध्य प्रदेश का कोई गरीब भाई भी अच्छी दिवाली मना रहा है... उसको पक्का घर मिल रहा है... उसकी बेटी का जीवन बन जाएगा, लेकिन साथियों... जब वही टैक्सपेयर ये देखता है कि उससे वसूले गए टैक्स के रुपयों में मुफ्त की रेवड़ी बांटी जा रही है, तो टैक्सपेयर सबसे ज्यादा दुखी होता है.'
प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ रेवड़ी कल्चर का जिक्र करते हैं. किसी का नाम नहीं लेते, लेकिन निशाने पर अरविंद केजरीवाल ही होते हैं ये हर किसी को समझ में आ जाता है. टैक्सपेयर को लेकर मोदी पहले भी कह चुके हैं, 'कोई भी आकर पेट्रोल-डीजल भी मुफ्त देने की घोषणा कर सकता है... ऐसे कदम हमारे बच्चों से उनका हक छीनेंगे... देश को आत्मनिर्भर बनने से रोकेंगे... ऐसी स्वार्थभरी नीतियों से देश के ईमानदार टैक्सपेयर का बोझ भी बढ़ता ही जाएगा.'
जिस दिन मोदी ने ये बहस शुरू की थी, कुछ देर बाद ही अरविंद केजरीवाल मीडिया के सामने आये और उसी भाषा में जवाब दिया, 'मुझे लगता है कि टैक्सपेयर के साथ धोखा तब होता है जब उनसे टैक्स लेकर और उसके पैसे से अपने चंद दोस्तों के बैंकों के कर्ज माफ किए जाते हैं.... टैक्सपेयर देखते हैं सोचते हैं कि पैसा तो मुझसे लिया था... ये कह कर लिया था कि सुविधाएं बनाएंगे... मेरे पैसे से अपने दोस्तों के कर्ज माफ कर दिया.'
और फिर समझाया था, टैक्सपेयर के साथ धोखा इससे नहीं होता है कि उनके बच्चों को अच्छी और नि:शुल्क शिक्षा देते हैं... टैक्सपेयर के साथ धोखा इससे नहीं होता है कि देश के लोगों का अच्छा और नि:शुल्क इलाज कराते हैं... टैक्सपेयर के साथ धोखा तब होता है जब हम अपने दोस्तों के 10 लाख करोड़ों रुपये के कर्ज माफ कर दिये जाते हैं.'
अरविंद केजरीवाल चुनावी वादों में मुफ्त की चीजें शामिल करने वाले कोई पहले नेता नहीं हैं. तमिलनाडु में बरसों से ये कल्चर रहा है और वहां सक्रिय डीएमके और एआईएडीएमके दोनों ही पार्टियों में होड़ मची रहती है. ममता बनर्जी ने ऐसी चीजों की मदद ली है. लोगों को सस्ता खाना खिलाने के लिए महाराष्ट्र में भी जब उद्धव ठाकरे की सरकार रही, ऐसा कार्यक्रम शुरू किया गया था.
प्रधानमंत्री मोदी के मुफ्त की चीजों को रेवड़ी कल्चर बताने को अरविंद केजरीवाल लोगों से जोड़ कर पेश कर देते हैं - और कहते हैं, बार बार मुफ्त रेवड़ी बोलकर जनता का अपमान मत कीजिये.
लोग महंगाई से बहुत ज़्यादा परेशान हैं। जनता को मुफ़्त शिक्षा, मुफ़्त इलाज, मुफ़्त दवाइयाँ, बिजली क्यों नहीं मिलनी चाहिए? नेताओं को भी तो इतनी फ्री सुविधायें मिलती हैं। कितने अमीरों के बैंकों के क़र्ज़े माफ़ कर दिये। बार बार मुफ़्त रेवड़ी बोलकर जनता का अपमान मत कीजिए https://t.co/oWMa5p9KjF
— Arvind Kejriwal (@ArvindKejriwal) October 23, 2022
सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और CAG
सुप्रीम कोर्ट अपने ही 2013 के फैसले की समीक्षा करने की बात कर रहा है. असल में 2006 का तमिलनाडु विधानसभा चुनाव जीतने पर डीएमके ने लोगों को मुफ्त कलर टीवी देने का वादा किया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी. एकबार फिर, फिलहाल तमिलनाडु में डीएमके की ही सरकार है और एमके स्टालिन मुख्यमंत्री हैं.
तब के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, राजनीतिक पार्टियों की तरफ से कलर टीवी, साइकिल, मुफ्त मकान, बिजली या रोजगार देने के वादों को रिश्वत या भ्रष्टाचार नहीं माना जा सकता है. चुनावी वादों लेकर कोर्ट का कहना रहा, जन प्रतिनिधित्व कानून उम्मीदवारों के बारे में बात करता है, न कि राजनीतिक पार्टी के बारे में... चुनाव मैनिफेस्टो किसी राजनीतिक दल की अपनी नीतियों का एक स्टेटमेंट होता है. ये नियम बनाना कोर्ट के दायरे में नहीं है कि कोई राजनीतिक पार्टी चुनावी घोषणापत्र में किस तरह के वादे कर सकती है या नहीं कर सकती है.
CAG पर कोर्ट की टिप्पणी: 2013 के अपने फैसले में CAG को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी. कोर्ट ने कहा था कि CAG का काम ऑडिट करना है, वो ये नहीं बता सकता कि सरकारों को किस तरीके से पैसे खर्च करने चाहिये.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक सीएजी अब ये पता लगाने में जुटा है कि ऐसे पैरामीटर कैसे तैयार किये जायें जो सब्सिडी जैसी चीजों के बोझ को सामने लाया जा सके - क्योंकि सीएजी का मानना है कि ये राज्यों की अर्थव्यवस्था के लिए चुनौतियां पैदा कर सकते हैं.
चुनाव आयोग क्या कर रहा है: मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि चुनाव आयोग ने आदर्श चुनाव आचार संहिता में कई जगह बदलाव किये हैं. बदलाव के बाद राजनीतिक दलों को घोषणा पत्र में चुनावी वादों के साथ ही ये भी बताना होगा कि उनके सफल और व्यवहारिक संचालन के लिए पैसा कैसे आएगा?
चुनाव आयोग का कहना है कि अब सिर्फ घोषणायें कर देना भर काफी नहीं होगा, और इसी सिलसिले में आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को पत्र भी लिखा है. आयोग का कहना है कि ये सब राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों को ज्यादा तार्किक और व्यवहारिक बनाने के मकसद से किया जा रहा है.
अब चाहे इसे रेवड़ी कल्चर कहा जाये या फिर जिस तरीके से भी सही बताने की कोशिश की जाये, लेकिन अभी तो ये बहस ऐसी ही लगती है जैसे - 'त्वाडा कुत्ता टॉमी, साडा कुत्ता कुत्ता'!
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