नाकामियों का डैमेज कंट्रोल तो हो गया, 2019 में क्या बोल कर वोट मांगेंगे मोदी के मंत्री?
जब सांसद बन कर भी मंत्री बनने का मौका न मिले. जब पांच साल सरकार का हिस्सा रहने के बाद टिकट मिलना भी तय न हो. जब खुल कर बोलने की भी आजादी न हो - फिर 2019 में कोई क्या बोल कर वोट मांगेगा?
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मोदी कैबिनेट में जिनकी काबिलियत का डंका बज रहा था, शपथ लेने भी सबसे पहले वही आये - धर्मेंद्र प्रधान. पेट्रोलियम मंत्री के रूप में धर्मेंद्र प्रधान के पास अब तक स्वतंत्र प्रभार था, लेकिन उज्ज्वला योजना की कामयाबी और एलपीजी सब्सिडी पर उनके हार्ड वर्क को देखते हुए उन्हें कैबिनेट रैंक ने नवाजा गया.
संसूचित... प्लीज!
सारी काबिलियत उस वक्त धरी रह गयी जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने धर्मेंद्र प्रधान को गलत शब्द बोलते ही पकड़ लिया. दरअसल, धर्मेंद्र प्रधान को 'प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संसूचित' पढ़ना था लेकिन वो अटकते हुए उसे 'समुचित' बोल पड़े. राष्ट्रपति के सही कराने पर प्रधान को दोबारा पढ़ना पड़ा. दो साल पहले बिहार के राज्यपाल रहते भी कोविंद के सामने ऐसा ही वाकया हुआ था - जब लालू प्रसाद के बेटे तेज प्रताप से उन्होंने दोबारा शपथ पत्र पढ़वाया था. तब तेज प्रताप ने 'अपेक्षित' की जगह 'उपेक्षित' पढ़ डाला था. बाद में लालू को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोल दिया था.
नेता इतने नकारे क्यों निकले?
लगातार दो रेल हादसों से दुखी सुरेश प्रभु ने जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल कर इस्तीफे की पेशकश की तो उन्हें इंतजार करने को कहा गया. इंतजार का फल हर बार मीठा नहीं होता, कई बार फीका भी होता है. सुरेश प्रभु को जो फल मिला वो उतना भी फीका नहीं कहा जाएगा. लेकिन जिस हिसाब से सुरेश प्रभु को मंत्री पद की शपथ दिलाने से पहले मुंबई से बुलाकर बीजेपी ज्वाइन कराया गया उसके मुकाबले तो नया असाइनमेंट काफी फीका माना जाएगा. कई बार खुद को गलत नहीं साबित होने देने के लिए डैमेज कंट्रोल ऐसे ही किया जाता है. सुरेश प्रभु के मामले में भी काफी कुछ ऐसा ही लगता है. सुरेश प्रभु के जमाने में रेलवे ने बच्चों को जितना दूध नहीं पिलाया और मरीजों को जितनी मेडिकल सुविधाएं नहीं मुहैया कराई, उससे कहीं ज्यादा लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया. वैसे तस्वीर का दूसरा पक्ष भी देखना ठीक रहता है, जिस देश में चमचमाती ट्रेनों के कोच से सामान उठाकर लोग घर लेकर चले जायें वहां काम कनने का स्कोप सीमित ही रहता है? लेकिन पटरी पर काम करने वाले कर्मचारी अफसरों के घर पर ड्यूटी न करें इसका इंतजाम तो सुरेश प्रभु को ही करना था. है कि नहीं?
यादें...
नमामि गंगे और स्किल डेवलममेंट भी मोदी सरकार के तमाम ड्रीम प्रोजेक्ट में से थे. देश में कितना स्किल डेवलपमेंट हुआ और गंगा कितनी साफ हुई बताने की जरूरत नहीं है. उमा भारती ने तो ट्वीट कर कुर्सी बचा ली लेकिन राजीव प्रताप रूडी को जाना ही पड़ा.
बहरहाल, अब स्किल डेवलमेंट की जिम्मेदारी चहेते धर्मेंद्र प्रधान पर है, लेकिन अब तो उनके पास रूडी जितना वक्त भी नहीं बचा है. बीजेपी ने दो करोड़ नौजवानों को हर साल रोजगार देने का चुनावी वादा किया था. इस हिसाब से मोदी सरकार के कार्यकाल में दस करोड़ लोगों को रोजगार मिलना चाहिये. छह करोड़ लोग चाहें तो रूडी को जी भर कोस सकते हैं, लेकिन धर्मेंद्र प्रधान क्या बाकी बचे चार करोड़ को रोजगार दे पाएंगे? कहना ही नहीं, ट्रैक रिकॉर्ड के हिसाब से तो सोचना भी मुश्किल लग रहा है.
धर्मेंद्र प्रधान के सामने चुनौती डबल हो गयी है. उन्हें पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय का प्रदर्शन तो मेंटेन करना ही है, नये मंत्रालय स्किल डेवलममेंट को भी स्टैंडर्ड लेवल पर ले जाना है. मुश्किल ये है कि उन्हें रूडी की नाकामियों की भरपाई का टारगेट भी मिला हुआ है. बड़ा मुश्किल होता है किसी की हवाई उम्मीदों पर खरा उतरना. धर्मेंद्र प्रधान निश्चित तौर पर इस बात को समझ रहे होंगे, लेकिन हैं तो वो भी इंसान ही.
आगे आगे देखिये होता है क्या...
धर्मेंद्र प्रधान की ही तरह नितिन गडकरी पर भी वैसे ही संकट के बादल मंडराने लगे हैं. अपने मंत्रालय के कामकाज चलाते हुए जिस तरह विधानसभा चुनावों में पीछे रह कर भी उन्होंने बीजेपी की सरकारें बनवाईं वो काबिल-ए-तारीफ रहा. क्या नमामि गंगे की डूबती नाव को वो पार लगा पाएंगे, फिलहाल बड़ा सवाल यही है.
उमा भारती ने बड़ी बड़ी बातें न की होतीं तो शायद ये नौबत नहीं आती. वैसे भी गंगा की सफाई तब से हो रही है जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे. लेकिन सरकारी सफाई ऐसी चली की जैसे जैसे काम आगे बढ़ा पैसा डूबता गया और गंगा लगातार मैली होती गयीं. अब तो गंगा की जो हालत हो चली है वो मोदी सरकार के इस कार्यकाल में पूरा होने से रहा, हां 'संकल्प से सिद्धि' वाले दौर की बात अलग है - लेकिन शर्त तो ये है कि उससे पहले जनादेश भी दोबारा लेना होगा.
नौकरशाहों का आया जमाना!
नेताओं की आखिर इतनी कमी कैसे हो गयी कि प्रधानमंत्री मोदी को नौकरशाहों को मंत्री बनाना पड़ा? ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने दो ऐसे लोगों को मंत्री बनाया है जिनका बैकग्राउंड तो शानदार रहा है, लेकिन वे संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं. खैर, वे मंत्री तो बन गये हैं लेकिन एक दिलचस्प बात और भी देखने को मिल रही है कि उन्हें उन मंत्रालयों में काम नहीं मिला है जो उनका बैकग्राउंड रहा है.
वैसे तो मंत्री बनाये जाते वक्त वीके सिंह भी चाहते थे कि उन्हें रक्षा मंत्रालय ही मिले, लेकिन उन्हें विदेश मंत्रालय भेज दिया गया. संभव है नेतृत्व को लगा हो कहीं रक्षा मंत्रालय पहुंच कर वो अपने अधूरे ख्वाब न पूरे करने लगें? अब इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि वैसी हालत में राजनीति नहीं होगी. सेना में ऐसी राजनीति किसी भी सूरत में देश के लिए ठीक नहीं होगी, इसलिए ये तो बेहतरीन फैसला रहा. यमन और युद्ध जैसे हालात वाले अन्य जगहों पर जाकर वीके सिंह ने अपने अनुभव से जो फायदा पहुंचाया उसमें तो नेतृत्व की दूरगामी सोच ही देखने को मिली. मगर, नये मंत्रियों के मामले में मामला बिलकुल ऐसा नहीं नजर आ रहा है.
हरदीप सिंह पुरी
हरदीप सिंह पुरी रक्षा से जुड़े और विदेश मामलों में दखल रखते हैं. हरदीप सिंह को आवास एवं शहरी विकास मामलों का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है. ये मंत्रालय पहले एम वेंकैया नायडू के पास रहा जहां सरकारी दावे के हिसाब से काफी कामकाज हुआ. नायडू के उप राष्ट्रपति बन जाने के बाद ये मंत्रालय खाली रहा. अब हरदीप सिंह को वे अधूरे काम पूरे करने होंगे जो नायडू ने छोड़ रखे हैं.
अल्फोंस कन्नाथनम
काम के हिसाब से देखें तो अल्फोंस कन्नाथनम डीडीए में रहते अतिक्रमण हटाने के लिए ज्यादा याद किये जाते रहे हैं. अगर हरदीप सिंह वाला मंत्रालय अल्फोंस को मिला होता तो शायद वो ज्यादा कंफर्टेबल महसूस करते.
अल्फोंस को पर्यटन मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है. पहले ये मंत्रालय महेश शर्मा के पास रहा. अब महेश शर्मा का विभाग बदल दिया गया है - वैसे पर्यटन मंत्री रहते महेश शर्मा अपने काम से ज्यादा अपने बयानों की वजह से ही चर्चित रहे.
आरके सिंह
अल्फोंस की तरह आरके सिंह भी आईएएस रहे हैं - और आईएएस को ऑल राउंडर के तौर पर देखा जाता है. उनकी पृष्ठभूमि पर गौर करें तो वो तो गृह मंत्रालय और आंतरिक सुरक्षा के मामलों में बेहतर साबित होते. मोदी सरकार में आरके सिंह को ऊर्जा एवं नवीकरणीय एवं अक्षय ऊर्जा मंत्रालय (स्वतंत्र प्रभार) मिला है. ये वही मंत्रालय जो अब तक पीयूष गोयल के पास रहा जिसमें उनके प्रदर्शन की खूब तारीफ हुई. अब आरके सिंह को भी उसी तरीके का उम्दा प्रदर्शन करना होगा.
माना जा रहा था कि मंत्रिमंडल में जेडीयू और एआईएडीएमके को भी जगह मिल सकती है. एआईएडीएमके से तो बात ही पक्की नहीं हो पायी है, इसलिए कैबिनेट में जगह मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन जेडीयू को दूर रखना थोड़ा संशय पैदा करता है. असल बात जो भी हो नीतीश कुमार के लिए तो ये बिलकुल भी अच्छी बात नहीं है. शिवसेना ने तो इसका बहिष्कार ही कर दिया है - और जेडीयू को भी ये कहते सुना गया कि ये एनडीए का नहीं बल्कि बीजेपी का मंत्रिमंडल विस्तार रहा. इस तरीके से तो ये एनडीए के लिए अच्छी खबर नहीं लगती.
सांसदों को तो पहले ही आगाह किया जा चुका है कि अमित शाह के राज्य सभा पहुंच जाने के बाद उनके मस्ती भरे पार्टी वाले दिन जाते रहे. प्रधानमंत्री मोदी ने तो उन्हें यहां तक साफ कर दिया कि 2019 में वो उन्हें देख लेंगे. मतलब तो यही हुआ कि उन्हें 2019 में टिकट मिलेगा इसकी गारंटी खत्म हो चुकी है. जब सांसद बन कर भी मंत्री बनने का मौका न हो. जब दोबारा टिकट मिलना भी तय न हो. जब खुल कर बोलने की भी आजादी न हो - फिर 2019 में कोई क्या बोल कर वोट मांगेगा? अब कोई बैठे बैठे दिमाग लगाता रहे उसकी बात और है - हासिल तो कुछ होने से रहा.
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