प्रयाग की पीड़ा और मंदिर पर मोदी का पेनकिलर
राम मंदिर की विवादित जमीन के अधिग्रहण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की ताजा अर्जी के पीछे कहानी दिलचस्प है. बीजेपी की इस जल्दबाजी के पीछे घर का दबाव काम कर रहा है.
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प्रयागराज में महाकुंभ के दौरान धर्म संसद में शंखनाद हुआ और इधर सरकार की नींद उड़ी. कुछ वैसे ही इधर ऋषि की तपस्या गहन हुई और उधर इंद्र का सिंहासन डोला. तुरंत इंद्र ब्रह्मा की शरण में, पितामह अब क्या करें. चुनावी साल और कुंभ पर बाबाओं का बवाल. मोदी सरकार को अचानक याद आया कि ऐसा क्या करें कि फौरी तौर पर आराम हो जाए और चुनाव भी सकुशल निकल जाए. पहले ही इतने स्यापे गर्दन दबोचे हैं और अब ये मंदिर भी अड़ गया तो तकलीफ ज्यादा बढ़ जाएगी.
सरकार के सचिवों ने फौरन उपाय सुझाया और रातों रात सरकार ने चुपचाप एक अर्जी सुप्रीम कोर्ट में सरका दी. कोर्ट से कहा कि- हुजूर, अयोध्या में रामजन्मभूमि पर विवाद की छाया वाली जमीन तो सिर्फ 2.77 एकड़ है. बाकी की 67 एकड़ जमीन तो भव्य राममंदिर परिसर बनाने के लिए अधिग्रहीत की थी. अब जरा देखा जाए कि मामला लंबा खिंच रहा है. सबका धैर्य जवाब दे रहा है. बाबा तुलसी की सभी चौपाइयां नाकाम हो रही हैं. धीरज धरम मित्र अरु नारी.. आपतकाल परखियहिं चारी.. धीरज भी चुक रहा है- जमता का भी और सरकार का भी और बाबाओं का भी. धर्म की सरकार और मंदिर ना बना पाये तो लोग पांच साल का हिसाब मांगने लगेंगे. बड़ी मुश्किल से ढंके हुए पर्दे हट सकते हैं. ऐसे में मित्र तो क्या बाबा तक साथ छोड़ कर जा रहे हैं.
लंबे खिंच रहे राम मंदिर मामले से अब सबका धैर्य जवाब दे रहा है
खैर बात करें सरकार की अर्जी की तो मुख्तसर में ये समझ लीजिये कि सरकार ने दरअसल प्रयाग में बढ़ रही पीड़ा और जनता में बढ़ रहे उफान को शांत करने के लिए बस टोटका सा किया है. यूं समझ लीजिए कि जैसे उफनते हुए दूध पर पानी के छींटे या फिर बढ़ते सिर दर्द के लिए ठंडे पानी से पेन किलर की एक गोली, वैसी ही है ये अर्जी.
सुन्नी वक्फ बोर्ड ने इसे बकवास करार दे दिया तो निर्मोही अखाड़े ने कहा कि आखिर सरकार को दिक्कत क्या है. हम सैकड़ों सालों से रामलला की सेवा करते आ रहे हैं. हम तब से मुकदमा लड़ रहे हैं जब सरकार का कोई अस्तित्व ही नहीं था. अब सरकार हमारी ही जड़ें काट रही है. हमें ही साइडलाइन कर रही है. हमसे अछूतों जैसा बर्ताव कर रही है. अब सरकार ने अर्जी दाखिल करने से पहले हमसे बात की होती तो शायद अर्जी का एंगल कुछ और होता. इतनी आसानी से अदालत में इसकी काट नहीं हो पाती.
इतिहास के पन्नों में झांकें तो बात साफ होती है कि 1934 में भी जब ये मामला कचहरी में चल रहा था तब भी और 1949 तक रामलला की पूजा गर्भगृह में नहीं बल्कि कभी रामचबूतरे पर तो कभी बाहर होती थी. 1949 में रामलला गर्भगृह में विराजमान करा दिए गये. लेकिन तालाबंद रहे. राजीव गांधी ने 1989 में ताले खुलवाये. तब तक विवाद सिर्फ विवादित ढांचे को लेकर था. 1991 में कल्याण सिंह सरकार ने पूरा परिसर अधिग्रहीत करने की ठानी और आसपास की करीब 67 एकड़ जमीन पर बने करीब 17 मंदिरों पर बुलडोजर चलवा दिये. अब मैदान साफ था. लेकिन तब तक मामला अदालत में पहुंच गया. और खिंचता हुआ 2002 में फैसला आया. इस बीच विवादित ढांचा भी ढह गया. और अदालत ने पूरे 67 एकड़ पर किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगाते हुए यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया.
यानी 2002 के बाद कई सरकारें आईं, कई दलों या गठबंधनों की सरकारें आईं लेकिन किसी ने इस बाबत कोई ध्यान नहीं दिया. अब एनडीए की इस सरकार को इस मामले में चुनाव से ऐन पहले सुध आई. प्रयाग में कुंभ और लोकतंत्र का महाकुंभ. सरकार ने ये तुक्का इस उम्मीद से फेंका है कि शायद तीर बन जाए. वैसे कहावत भी है कि ऊंट खो जाए तो परेशान बदहवास किसान उसे लोटे में भी ढूंढने लगता है.
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