मुलायम की इस अमर चित्रकथा में माया और शीला कहां हैं ?
समाजवादी परिवार की ताजा राजनीति को समझने के लिए उठापटक की पटकथा को गौर से पढ़ना होगा. बंद लिफाफे का मजमून मुश्किल जरूर होता है लेकिन कुछ तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है.
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वो मन से मुलायम हैं कि नहीं कहना मुश्किल है. उनके इरादे लोहा हैं या नहीं इसके लिए चुनाव का इंतजार करना होगा. सबसे अहम बात ये है कि यूपी की पॉलिटिक्स को इस वक्त मुलायम सिंह यादव ने मुट्ठी में कर लिया है - क्वेर्टी कीपैड को हाथ तक न लगाने वाले मुलायम स्मार्टफोन के दौर में पहुंच चुकी सियासत को तो बस करीने से टैप करते जा रहे हैं - गुजरे जमाने में इसे ही उंगलियों पर नचाना कहा जाता रहा होगा.
सियासी बिसात पर कुश्ती के दांव
राजनीति की बिसात पर मुलायम कुश्ती के दांव आजमा रहे हैं. कभी राजस्थान की राजनीति में भैरों सिंह शेखावत भी ऐसी ही राजनीति के लिए जाने जाते थे. छोटे से छोटे चुनाव को भी वो इतने दावपेंचों में उलझा देते थे कि विरोधी आखिर तक गफलत में पड़े रहते थे - नतीजों से पहले किसी को भनक तक नहीं लगती रही.
कभी समाजवाद के सहारे पांच दिवसीय मैचों वाली राजनीति करने वाले मुलायम ने अब खुद को अपग्रेड कर लिया है - अभी तो वो ट्वेंटी-20 ही खेलते दिख रहे हैं. रिजल्ट की तो बात दूर है, अगले कदम के अंदाजा लगाने से पहले ही वो नया क्लाइमेक्स पेश कर दे रहे हैं.
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जब लगता है कि वो बेटे का पक्ष लेंगे तो यूपी की कमान वो भाई को सौंप देते हैं. विरोधी नेता खबरों को देख कर अटकले लगा रहे होते हैं तब तक शिवपाल को अखिलेश से मिलने भी भेज देते हैं - और जब लगता है कि सब सुलह हो गया तो वो शिवपाल से इस्तीफा भी दिलवा देते हैं - एक नया क्लाइमेक्स. कभी कभी तो लगता है कि मीडिया मैनेजमेंट में मुलायम ने केजरीवाल और प्रशांत किशोर को मीलों पीछे छोड़ दिया है.
माया और राहुल
अगर राहुल गांधी और मायावती की तुलना करें तो उन्हें ऊपर-नीचे आंकने का सिर्फ इमोशनल पैमाना हो सकता है. मायावती दलितों की मसीहा हैं तो राहुल कांग्रेसियों के भगवान.
दोनों में एक बात तो कॉमन दिखती ही है - दोनों परिस्थितियों के नेता हैं. एक पैदा होने की वजह से तो दूसरा पिक किये जाने की वजह से. राहुल गांधी नेहरू गांधी खानदान में पैदा नहीं हुए होते तो एक दशक की ट्रेनिंग में शायद इससे ज्यादा सीख लिये होते. आखिर अभ्यास भी तो कोई चीज होती है, लेकिन उनके केस में ऐसा नहीं हो पाता. मायावती भी अगर कांशीराम की पॉलिटिकल-पिक नहीं होतीं तो किसी स्कूल की टीचर होतीं. अगर मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग करके कामयाबी हासिल की तो राहुल को भी बिहार में लालू-नीतीश के बीच महागठबंधन को नक्की करने का क्रेडिट देने में क्या बुराई है.
क्योंकि पार्टी और सरकार से ज्यादा लोग परिवार पर भरोसा करते हैंं... |
लेकिन जो सियासी चाल मुलायम चल रहे हैं उसमें कौन कहां नजर आ रहा है अहम बात ये है. सुर्खियों से खुद मायावती तो गायब हैं ही राहुल गांधी की शीला दीक्षित तो बिलकुल नदारद हैं. कांग्रेस खेमे से खबरें या तो खाट लूटे जाने या फिर किसानों के नाम पर राहुल गांधी द्वारा मोदी को कोसने की आ रही हैं.
कभी अयोध्या कांड तो कभी दंगों का वास्ता देकर मायावती मुस्लिम समुदाय को बीएसपी से जोड़ने की कोशिश कर रही हैं - तो कभी, खुद भविष्य का परिस्थितिजन्य प्रधानमंत्री बता कर दलितों के मन में उम्मीद तैयार करा रही हैं. बात बात पर दलित-मुस्लिम के हितों की दुहाई देते देते ऐसा इंप्रेशन दे रही हैं कि लगता है वो खुद भी डरी हुई हैं. क्या रैलियों में जुट रही भारी भीड़ भी उनकी हौसलाअफजाई नहीं कर रही? क्या उन्हें भी भीड़ के वोट में कन्वर्ट होने पर शक हो रहा है? हो भी क्यों ना, 2012 में भी तो मायावती की सभा में ऐसी ही भीड़ जुटती रही.
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हकीकत और फसाने का फर्क साफ होने के बावजूद अक्सर धुंधला नजर आता है - खास कर जाति और धर्म की बेड़ियों में उलझी राजनीति के संदर्भ में अगर देखने की कोशिश की जाये तो.
कई बार तो लगता है कि मायावती और राहुल दोनों ही मौजूदा राजनीति को एक ही तरीके से ले रहे हैं. ये दोनों ही मोदी पर तो जोरदार हमला बोलते हैं लेकिन सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी के नेताओं के मामले में रस्म अदायगी के साथ इतिश्री कर लेते हैं. अब इसके पीछे कोई राजनीतिक खिचड़ी पक रही हो या फिर इनकी राजनीतिक समझ ही ऐसी हो गयी हो - कहना मुश्किल है. जवाब तो चुनावी नतीजे ही दे पाएंगे.
...और ये गायत्री मंत्र
समाजवादी परिवार की ताजा राजनीति को समझने के लिए उठापटक की पटकथा को गौर से पढ़ना होगा. बंद लिफाफे का मजमून मुश्किल जरूर होता है लेकिन कुछ तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है.
मसलन, क्या गायत्री प्रजापति को भी बलराम यादव की तरह ही कैबिनेट में वापस आना ही था? कौमी एकता दल के मामले में बलराम यादव का वनवास भी बहुत छोटा रहा.
इस गायत्री मंत्र का मर्म भी खबरों के जरिये आसानी से समझा जा सकता है. खबर थी कि अमर सिंह और दीपक सिंघल ने मुलायम सिंह को यकीन दिला दिया था कि गायत्री प्रजापति कभी भी सीबीआई के लपेटे में आ सकते हैं. मुलायम ने ये बात अखिलेश को बताई और गायत्री प्रजापति भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त हो गये. फिर गायत्री प्रजापति ने मुलायम से मिल कर अपनी बात रखी. मुलायम एक बार फिर कंवींस हो गये और अखिलेश से गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल में वापस लेने को कहा, लेकिन अखिलेश को ये बात ठीक नहीं लगी. सही बात है, चुनाव के ऐन पहले आखिर क्या मैसेज जाएगा भला?
अब गायत्री प्रजापति की बाइज्जत घर वापसी हो गयी है. अब भ्रष्टाचार के दाग धुलने में इतना वक्त तो लगता ही है. शिवपाल यादव के भी सारे मंत्रालय बहाल हो गये - दिवाली से बहुत पहले यूपी अध्यक्ष का पद भी बतौर बोनस मिल गया. ये बात अलग है कि इसके लिए नेताजी को करुणानिधि से प्रेरित होकर उनका असली पेशा अपनाते हुए पूरी पटकथा लिखनी पड़ी. वैसे स्क्रिप्ट जबरदस्त थी - बढ़िया ड्रामा, भरपूर एक्शन और खालिस इमोशन.
मुलायम ने बीजेपी के उन नेताओं की उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया जो ये मान कर चल रहे थे परिवार में घमासान के चलते मुस्लिम वोट बंटने की बजाय सीधे मायावती के जीरो बैलेंस अकाउंट में चला जाएगा. मुलायम के विरोधियों को अब फिर से रणनीति बनानी होगी - वरना, अभी तो सुर्खियों से गायब हैं, कहीं सीन से भी गायब न हो जाएं.
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