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Updated: 08 जून, 2019 06:42 PM
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आम चुनाव में आयी मोदी सुनामी में बड़े से बड़े सियासी पेड़ उखड़ गये और कई तो जडों तक हिल उठे. राहुल गांधी, अखिलेश यादव और मायावती ऐसे नेता हैं जो उखड़ गये तो ममता बनर्जी और नवीन पटनायक की जड़ें तक हिल उठी हैं.

सबकी अपनी अपनी चिंताएं और मुश्किलें हैं, राहुल गांधी और अखिलेश यादव की मिलती जुलती हैं - और यही वजह है कि सोनिया गांधी और मुलायम सिंह यादव की मुश्किलें एक जैसी लगने लगी हैं.

सोनिया गांधी के बाद लगता है मुलायम सिंह यादव को भी पार्टी की चिंता सताने लगी है. लगभग रिटायर हो चुकीं सोनिया गांधी को तो कांग्रेस संसदीय दल का नेता भी चुन लिया गया है और राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश भी कर चुके हैं. अखिलेश यादव ने तो ऐसा कुछ नहीं किया है, लेकिन मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी को पटरी पर लाने के लिए सक्रिय होने लगे हैं - अब सोनिया गांधी की तरह मोर्चा भी संभालेंगे क्या?

सोनिया और मुलायम की मुश्किलें अलग हैं

16वीं लोक सभा के आखिरी दिन जब मुलायम सिंह यादव अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोबारा PM बन कर लौटने की शुभकामनाएं देने लगे तो बगल में बैठीं सोनिया गांधी को बड़ा अजीब लगा. मन की बात पूरी तरह सोनिया गांधी के चेहरे पर उभर आयी थी - मालूम नहीं मुलायम सिंह यादव गंभीर होकर बयान दे रहे थे या मजाक कर रहे थे. जो भी हो मुलायम सिंह की जबान पर तब सरस्वती बैठी थीं - और मोदी के लिए उनका तुक्का ही तीर साबित हुआ. चुनाव नतीजे आने के बाद तो दोनों ही सन्न रह गये होंगे - दोनों में से किसी के मन में शायद ही ऐसी कोई आशंका रही होगी.

सोनिया गांधी के सामने कांग्रेस को देश में खड़ा करने की चुनौती है, तो मुलायम सिंह यादव के आगे समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में - हालांकि, दोनों की ही लड़ाई बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से है. फिर भी दोनों की चुनौतियों में एक बड़ा फर्क है. सोनिया गांधी को संगठन को दुरूस्त करने के साथ साथ विपक्ष को एकजुट करना है. मुलायम सिंह यादव के लिए तो ये सब बाद की बातें हैं - पहले मुलायम सिंह यादव को अपने परिवार का झगड़ा खत्म कर उसे ही एकजुट करना सबसे बड़ा चैलैंज है.

mulayam singh looking at akhilesh yadavमुलायम सिंह को तो मायावती का एहसानमंद ताउम्र रहना होगा...

सोनिया गांधी और मुलायम सिंह की मुश्किलों में एक और फर्क है - राहुल गांधी बगैर प्रधानमंत्री बने ही फेल होते जा रहे हैं, जबकि अखिलेश यादव पूरे पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद फेल हो रहे हैं. राहुल गांधी अमेठी की अपनी ही सीट गंवा चुके हैं, लेकिन राहुल गांधी पिता की आजमगढ़ सीट से चुनाव जीते हैं. हां, जिस इलाके से खुद राजनीति शुरू की उसी कन्नौज से पत्नी डिंपल यादव हार चुकी हैं.

आगे भी मायावती का एहसानमंद रहेंगे क्या?

मैनपुरी रैली में जब मुलायम सिंह यादव बरसों बाद मायावती से मिले तो बड़े ही अभिभूत दिखे. खुद ही कह भी दिया - 'हम आपके एहसानमंद हैं.'

अखिलेश यादव के लिए तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा होगा. यूपी की राजनीति के लिए ये ऐतिहासिक घटना थी - कम ही लोगों ने सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी हो सकता है जब सूबे के दो बड़े क्षत्रप दो दशक पुरानी दुश्मनी भुलाकर सरेआम मंच शेयर करते देखने को मिलेंगे. अखिलेश यादव ने ये तो कर ही दिखाया - लेकिन वो नहीं कर सके जिसके लिए ये सारे पापड़ बेले. मायावती ने गठबंधन में कभी भी अखिलेश यादव की एक न चलने दी. हर मामले में अपनी मनमर्जी ही चलायी जिसे हर किसी ने महसूस किया.

यूपी में होने जा रहे उपचुनाव अकेले लड़ने का घोषणा कर चुकीं मायावती ने गठबंधन का रास्ता बंद तो नहीं किया है, लेकिन एक मुश्किल शर्त रख दी है - सुधरने के बाद ही. मायावती के कहने का मतलब है कि अगर अखिलेश यादव अपने यादव वोट जुटा लें और ट्रांसफर कराने में सक्षम हों तो गठबंधन आगे जारी रह सकता है.

मायावती का उपचुनाव अकेले लड़ने का फैसला तो ऐसा लगता है जैसे बीएसपी नेता ने सभी 11 सीटें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तोहफे में देने की तैयारी कर रखी हो. मायावती गलती सिर्फ दोहरा नहीं रहीं हैं - बल्कि डबल मिस्टेक कर रही हैं. आम चुनाव में मायावती को मोदी लहर की भनक तक न लगी. अब जबकि उपचुनावों में लोगों के सामने मोदी की जगह योगी आदित्यनाथ खड़े होंगे, मायावती मतदाताओं का मूड ठीक से नहीं पढ़ना चाहतीं. गठबंधन की संयुक्त रैली में तो समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के शोर मचाने पर मायावती बुरी तरह भड़क भी गयी थीं. मायावती ने कहा था कि समाजवादी पार्टी के लोगों को अभी बीएसपी कार्यकर्ताओं से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता जिनकी हल्ला बोल मुहिम से जमाना कांपता रहा हो, उन्हें मायावती की ये सलाह कैसी लगी होगी आसानी से समझा जा सकता है.

अब सवाल है कि मुलायम सिंह यादव क्या आगे भी मायावती के एहसानमंद रहेंगे? मैनपुरी में मायावती के वोट मांगने के बाद चुनाव तो वो जीत ही चुके हैं. बात सिर्फ एक चुनाव की नहीं है, मुलायम सिंह यादव को तो आगे भी मायावती का एहसानमंद रहना ही होगा. ये मायावती ने जो झटका दिया है उसी का नतीजा है कि अखिलेश यादव की अक्ल भी ठिकाने आ गयी लगती है.

अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह की मनाही के बावजूद दो-दो गठबंधन किये. 2017 में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ और दो साल बाद बीएसपी नेता मायावती के साथ. दोनों ही नाकाम रहे. कांग्रेस के साथ गठबंधन से फायदा भले न मिला हो, लेकिन बीएसपी के साथ गठबंधन जितना नुकसान तो नहीं ही हुआ था.

मुलायम सिंह को मायावती का एहसान मानना ही होगा. ये मायावती का झटका ही है जो परिवार को एकजुट करने का मौका मिल रहा है. ये मायावती का रवैया ही है जो मुलायम सिंह यादव को फिर से सक्रिय होना पड़ रहा है. ये मायावती का ही सबक है जो अखिलेश यादव मजबूरन ही सही अपने बूते खड़े होने की कोशिश करने लगे हैं.

बेटे जैसे भी हों - मां तो मां होती है और ठीक वैसे ही बाप भी तो बाप ही होता है. ये भला सोनिया गांधी और मुलायम सिंह यादव से बेहतर और कौन जान और समझ सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आशीर्वाद देने और उन्हें फलते फूलते देखने के बाद अब मुलायम सिंह के लिए कर्तव्य निभाने का वक्त है - क्योंकि वो समाजवादी पार्टी, यादव परिवार और अखिलेश यादव को फिर से फलते फूलते देखना चाहते हैं.

गैरों की असलियत तब तक नहीं समझ में आती जब तक मौके आने पर वे इम्तिहान में पास नहीं हो जाते. अपनों की अहमियत भी तब तक समझ नहीं आती जब तक कोई भी शख्स धोखा नहीं खाता. अखिलेश यादव दो-दो धोखे खा चुके हैं - तीसरे से पहले बचाने के लिए परिवार कूद पड़ा है.

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