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Updated: 06 जून, 2019 02:52 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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यूपी के सपा-बसपा गठबंधन में कुछ भी पहली बार नहीं हो रहा है. अखिलेश को गठबंधन के मामले में भले ही नौसीखिया समझा जाये, मायावती वही कर रही हैं जो अब तक करती आयी हैं. दूसरी पार्टियों के साथ एक-एक बार, सपा के साथ दोहरा रही हैं. मायावती के मन की बात को आसानी से समझा जा सकता है.

मुलायम सिंह यादव ने मैनपुरी में मायावती के स्वागत में खुद को एहसानमंद जरूर बताया, लेकिन वो कदम कदम पर अखिलेश यादव को आगाह करते रहे - लेकिन शिवपाल यादव को ठिकाने लगाने के चक्कर में अखिलेश यादव ने एक न सुनी. दरअसल, राजनीति का ककहरा सीखने के दिनों से ही अखिलेश यादव एक भ्रम पाले हुए थे - 'बहन जी और नेताजी हाथ मिला लें तो पूरे हिंदुस्तान पर राज कर सकते हैं.' बहनजी यानी मायावती और नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव जैसा कि दोनों को संबोधित किया जाता है. मायावती ने अखिलेश का भ्रम दूर करते हुए उन्‍हें कई सबक दिए हैं.

PM तो बनीं नहीं, भला CM की कुर्सी कैसे छोड़ दें?

मायावती और रामविलास पासवान दोनों ही दलित राजनीति करते हैं - और दोनों की निगाह सत्ता पर ही टिकी रहती है. दोनों में एक बात कॉमन ये भी है कि दलितों के सपोर्ट से खड़े तो हो जाते हैं, लेकिन बाहरी सपोर्ट के बगैर सत्ता पर काबिज नहीं हो पाते. यही वजह है कि ये दोनों ही नेता मौसम के मिजाज को देखते हुए बदल बदल कर हाथ मिलाते रहते हैं - सिर्फ सत्ता के लिए. वोट लेने से ज्यादा दोनों ने दलितों के लिए कुछ खास किया भी याद करना मुश्किल हो जाता है. इस पैमाने पर देखें तो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद दोनों ने ही अपने समाज को ऊंचा उठाने का काम तो किया ही है. दोनों में एक बात मिलती भी है - दोनों यादव के साथ साथ मुस्लिम समुदाय का वोट और सपोर्ट बनाये रखना चाहते हैं.

मायावती और रामविलास पासवान में एक बुनियादी फर्क भी है - मायावती हमेशा सत्ता अपने हाथ में रखना चाहती हैं और पासवान बस सत्ता में हिस्सेदार बने रहना चाहते हैं.

मायावती ने गठबंधन कर अखिलेश यादव के राजनीतिक रिसोर्स का भरपूर शोषण कर लिया है - और अब वो नये प्रयोग करना चाहती हैं.

0-10 के पिकप को क्या समझना चाहिये? 2014 में लोक सभा सीटों के मामले में मायावती का जीरो बैलेंस था. अब लोक सभा में बीएसपी के 10 सांसद हो चुके हैं - क्या बगैर अखिलेश यादव की मदद के अकेले अपने बूते मौजूदा माहौल में मायावती ये हासिल कर पातीं. कहने को तो मायावती कह सकती हैं कि कम से कम 19 फीसदी का उनका वोटबैंक बना हुआ है - लेकिन वोट शेयर के मामले में तो बीएसीपी 2014 में भी देश में तीसरे ही स्थान पर थी - लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पायी थी.

mayawati opts out of alliance with akhileshमायावती की नयी सियासी चाल महंगी पड़ सकती है

मायावती का अखिलेश यादव से अस्थायी या स्थायी सियासी ब्रेक-अप भी सत्ता संघर्ष का ही नतीजा है. यूपी में अपेक्षित सीटें न मिलने और बीजेपी की सत्ता में वापसी के बाद मायावती को भी अच्छे से एहसास हो चुका है कि दिल्ली अब बहुत दूर हो चुकी है. ऐसे में अब उनकी नजर यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा टिकी है. चुनाव पूर्व वादे के मुताबिक अखिलेश यादव को मायावती का सपोर्ट कर उनके प्रधानमंत्री बनने में मददगार बनना था. बदले में मायावती को अखिलेश यादव के यूपी का सीएम बनने में मदद करनी थी. प्रधानमंत्री तो फिलहाल बनने से रहीं, मायावती अब भला 2022 में होने जा रहे चुनाव के बाद यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी को कैसे छोड़ दें. राजनीति में रिश्ते तो सिर्फ स्वार्थ के दायरे में भी निभाये जाते हैं - और जब राजनीति में सगे चाचा-भतीजे लड़ रहे हों, तो सियासी बुआ-भतीजे के रिश्तों की कौन कहे.

मोदी लहर तो है, मगर योगी लहर नहीं!

मायावती कभी भी उपचुनाव लड़ने की पक्षधर नहीं रही हैं. मायावती का मानना रहा है कि उपचुनाव में सिर्फ सत्ताधारी पार्टी को ही फायदा होता है. यहां तक कि 2018 में जब फूलपुर और गोरखपुर के बाद कैराना उपचुनाव हुआ तो भी मायावती ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे. मायावती चाहतीं तो कैराना में बीएसपी का प्रत्याशी खड़ा कर सकती थीं. अखिलेश यादव के ऊपर उनका एहसान भी था और प्रयोग के नतीजे भी शानदार रहे. फिर भी मायावती ने सिर्फ सपोर्ट किया अपने उम्मीवार नहीं खड़े किये. अखिलेश यादव तो फूलपुर से योगी सरकार में डिप्टी सीएम बने केशव मौर्य के इस्तीफा देने के बाद से ही मायावती के सपोर्ट की बात कर रहे थे - बल्कि तब तो पूरा विपक्ष मायावती को समर्थन देने की बात कर रहा था. तब तो लालू प्रसाद भी इस स्थिति में थे कि मायावती को अपने कोटे से राज्य सभा भेजने का प्रस्ताव रख दिये थे.

मायावती की ओर से अपडेट तो यही है कि बीएसपी यूपी में खाली हुई 11 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में हिस्सा लेगी. हिस्सा भी गठबंधन में रह कर नहीं, अकेले चुनाव लड़ेगी. एक डिस्क्लेमर ये भी है कि ये समाजवादी पार्टी के साथ प्री-डिवोर्स-सेशन जैसा है - यानी मुमकिन है उपचुनावों के बाद दोनों एक बार फिर साथ होकर चुनाव मैदान में उतरें. सुननने में तो मजाक ही लगता है, लेकिन राजनीति में गंभीर रणनीतियां भी तो ऐसे ही बनती हैं. अखिलेश यादव के पास फिलहाल कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा होगा. अब राहुल गांधी फिर से उनका साथ पंसद करने लगें तो बात और है. वैसे राहुल गांधी तो खुद ही अभी तक भूकंप के झटकों से नहीं उबर पाये हैं. याद कीजिये, गठबंधन के आठ उम्मीदवारों की हार का अंतर कांग्रेस उम्मीदवारों को मिले वोटों से कम रहा और उनमें ज्यादातर बीएसपी के ही थे.

मायावती अखिलेश यादव को दोबारा नौसीखिया साबित करने की कोशिश कर रही हैं. मायावती रिश्तों की दुहाई के बीच जता रही हैं कि अखिलेश यादव तो पत्नी डिंपल यादव और भाई धर्मेंद्र यादव की सीट भी नहीं बचा पाये. पहली बार मायावती ने अखिलेश यादव में अनुभव की कमी तब बतायी थी जब यूपी में राज्य सभा के चुनाव हो रहे थे और बीएसपी उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर चुनाव हार गये.

मायावती का दावा है कि अखिलेश यादव की पार्टी को यादवों ने ही वोट नहीं दिया. मायावती का ये भी दावा है कि बीएसपी के वोट समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को तो मिल गये लेकिन समाजवादी पार्टी का वोट ट्रांसफर नहीं हुआ. क्या दलील है? सच तो ये है कि बीएसपी को यूपी की 10 लोक सभा सीटें मिली हैं और समाजवादी पार्टी को सिर्फ पांच - ये तथ्य तो मायावती के दावों की ही पोल खोल दे रहा है.

इंडिया टुडे-एक्सिस माय इंडिया के सर्वे चुनाव नतीजों से शत-प्रतिशत मेल खाते पाये गये हैं. सर्वे से ही मालूम हुआ है कि समाजवादी पार्टी को यादवों के तो पूरे वोट मिले थे, लेकिन सभी पिछड़े वर्गों के नहीं, वहीं बीएसपी को दलितों के भी पूरे वोट नहीं मिले - जाटव वोट ने तो मायावती के साथ निष्ठा बरकरार रखी लेकिन गैर-जाटव वोट तो पूरी तरह कट लिये. लगता है मायावती भूल जा रही हैं कि अखिलेश यादव उन्हीं मुलायम सिंह यादव के बेटे हैं जो कुश्ती के सारे दांव राजनीति में भी सफलतापूर्वक आजमाते रहे हैं. मुलायम सिंह के सारे शिकार सिर्फ मन मसोस कर रह गये हैं और ममता बनर्जी भी उन्हीं में से एक हैं. ये तो अखिलेश यादव है जो मायावती के अनुभव के कायल हैं और वो इसका भरपूर फायदा उठाना चाहती हैं. हो सकता है मायावती के पास अपना कोई सर्वे हो या निजी अनुभव के आधार पर सटीक आकलन हो - लेकिन उपचुनावों में अकेले उतरने का फैसला तो किसी भी हिसाब से सही नहीं लगता.

कहीं ऐसा तो नहीं कि मायावती देश में मोदी लहर की तरह यूपी में योगी लहर का अनुमान लगा रही हैं?

ये तो साफ है कि यूपी में अब भी मोदी लहर भले ही हो, योगी लहर की बात तो शायद ही किसी के गले के नीचे उतर पाये. उलटे मोदी लहर का असर न हो तो योगी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के प्रभाव से भी इंकार नहीं किया जा सकता.

अगर मायावती 11 सीटों के उपचुनाव भी अखिलेश यादव के साथ मिलती तो बीजेपी को मुश्किल भी हो सकती थी - लेकिन अलग होकर तो मायावती पूरा मैदान ही सौगात के तौर पर देने जा रही हैं. लोक सभा चुनाव में मोदी लहर का हर तरफ बोलबाला रहा. जब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का किला नहीं बच सका - और ओडिशा में भी बीजेपी ने नवीन पटनायक के इलाके में सेंध लगा ही डाली - तो यूपी के गठबंधन में क्या रखा है भला. मायावती तो बखूबी समझती हैं कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव से भी कहीं ज्यादा फर्क होता है.

ऐसा लगता है जैसे मायावती ने आम चुनाव में शिकस्त के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 11 विधायकों का तोहफा देने की तैयारी कर रही हैं - और वो भी अखिलेश यादव जैसे समर्पित राजनीतिक फॉलोअर को मुसीबत की घड़ी में झटका देकर.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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