मोदी को शपथ लेते राहुल गांधी ने देखा, लेकिन बहुत-कुछ मिस भी किया
नरेंद्र मोदी के शपथग्रहण के दौरान राहुल गांधी काफी कुछ सीख सकते थे, लेकिन मौका गवां दिया. सीखने का मतलब कतई ये नहीं होता कि जो भी सामने दिखे बगैर सोचे समझे जस की तस सीख लो - कुछ ऐसी चीजें भी हैं जिनसे राहुल गांधी को अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए दूर रह सकते हैं.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथग्रहण में शामिल होने का राहुल गांधी का फैसला बेहतरीन रहा. अच्छा हुआ ममता बनर्जी की देखा-देखी राहुल गांधी ने शपथग्रहण से दूरी बनाने का फैसला नहीं किया. लोक-लाज के भय से या अनजाने में ही सही लेकिन राहुल गांधी का ये फैसला कांग्रेस के लिए भी अच्छा रहा - शर्त सिर्फ ये है कि किसी प्रधानमंत्री को दोबारा शपथ लेते वक्त राहुल गांधी कुछ सीख पाये हों.
राहुल गांधी के एक्शन, रिएक्शन और राजनीतिक कदमों पर गौर करें तो कभी वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कभी अरविंद केजरीवाल से सीखते नजर आते हैं. कभी कभी तो लगता है जैसे पूरी की पूरी कॉपी ही कर डाले हों. जो भी हो, हिट एंड ट्रायल वाला पीरियड खत्म हो चुका है - फिर भी सीखने का वक्त कभी समाप्त नहीं होता. सीखने के लिए न तो कोई नियत वक्त होता है, न ही उम्र की कोई सीमा.
अच्छा तो ये हुआ होता कि मोदी के शपथग्रहण समारोह में राहुल गांधी मोबाइल के साथ साथ एक नोटबुक भी ले गये होते - लेकिन लिखा हुआ नोटबुक नहीं. किसी और का लिखा हुआ नोटबुक तो बिलकुल नही - एकदम कोरे कागज वाला. लाइन वाला, डॉट वाला या प्लेन भी चल जाता.
मोदी के शपथग्रहण में बैठे बैठे राहुल गांधी एक टास्क सूची भी बना सकते थे और एक ऐसी लिस्ट जिसमें दर्ज हो कि आगे क्या करना है और वो कौन सी चीजें हैं जिन्हें भूल कर भी नहीं करने का.
सवाल है कि राहुल गांधी के लिए ऐसी कौन सी 10 बातें महत्वपूर्ण हो सकती थीं? राहुल गांधी को किससे क्या सीखना चाहिये और किससे कुछ भी सीखने की कोशिश नहीं करनी चाहिये.
राहुल गांधी ये 5 बातें जरूर सीखें
1. नरेंद्र मोदी से - एक खास परिवार में जन्म लेने से राजनीतिक विरासत तो मिल सकती है, लेकिन उसे मार्केट में बनाये रखने के लिए खुद में भी नेतृत्व क्षमता विकसित करनी पड़ती है. लीडरशिप क्वालिटी पैदाइशी भी हो सकती है - और 'करत करत अभ्यास के...' भी.
राहुल गांधी को मोदी से एक बात जरूर सीखनी चाहिये - दूसरों में डर कैसे पैदा किया जाता है. समझना चाहिये कि मोदी क्यों कहते हैं - '...डर लगता है तो अच्छा है.' कम से कम ऐसा होने पर कोई अपने बेटे-बेटी के लिए दबाव बनाकर टिकट तो नहीं ले सकेगा - और छोटी छोटी गलतियों का बड़ा खामियाजा तो नहीं भुगतना पड़ेगा. अगर राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी से इतना भी सीख लें तो जीने की राह में काफी मुश्किलें आसान हो जाएंगी.
2. अमित शाह से - जीत के लिए अंदर भूख पैदा करनी होती है. कभी जनेऊधारी, तो कभी मंदिर चले जाने से न कोई 'भक्त' हो जाता है न दूसरों को बना सकता है - 'भक्तों' की जमात यूं ही इकट्ठा नहीं होती. मंजिल हासिल करने के लिए राजनीति में 'भक्तिकाल' की स्थापना करनी होती है जो बरसों बरस की तपस्या से ही मुमकिन हो पाती है.
बंद कमरे में बनी रणनीति में भी फील्ड में लगातार फेरबदल करनी चाहिये. ये नहीं कि गलती हो जाये फिर भी प्रतिष्ठा का सवाल बनाये रखना चाहिये. अमित शाह ने जो पहले से तय किया था, पुलवामा और बालाकोट के बाद सारी रणनीति बदल डाली. मालूम तो ये सब राहुल गांधी को भी होगा ही.
सीखना जरूरी है, लेकिन सब कुछ नहीं...
एक तरफ अमित शाह सौ से ज्यादा सांसदों के टिकट काट डालते हैं, दूसरी तरफ राहुल गांधी दबाव बनाने के चलते कमलनाथ और अशोक गहलोत के बेटों को टिकट दे देते हैं - भला कैसे चलेगा? राहुल गांधी को अमित शाह से कम से कम ये गुण जरूर और जल्द से जल्द सीख ही लेना चाहिये.
3. स्मृति ईरानी से - अगर राहुल गांधी को लगता है कि वो नरेंद्र मोदी को हरा सकते हैं तो ये स्मृति ईरानी की तरह मन में अंदर तक बैठाना होगा. लगे हाथ ये भी समझना होगा कि किसी भी चीज को हल्के में लेना बहुत भारी पड़ सकता है.
जब स्मृति ईरानी अमेठी में राहुल गांधी को शिकस्त दे सकती हैं तो राहुल गांधी भी नरेंद्र मोदी को शिकस्त दे सकते हैं - शर्त यही है कि वो स्मृति ईरानी की तरह लगातार अपने मकसद के साथ मोर्चे पर डटे रहें. अमेठी का ये पाठ राहुल गांधी को मंजिल हासिल होने तक एक पल के लिए भी स्मृति से ओझल नहीं होने देना चाहिये.
4. जगनमोहन रेड्डी से - जगनमोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं - यहां तक पहुंचने के लिए सात साल तक कड़ी मशक्कत करनी पड़ी है. राहुल गांधी को भी ये सब पता तो होगा ही. कांग्रेस नेतृत्व ने जगनमोहन रेड्डी के साथ तो हिमंत बिस्व सरमा से भी बुरा सलूक किया था. हिमंत बिस्व सरमा को तो सिर्फ तवज्जो नहीं मिलती थी, जगनमोहन रेड्डी को तो अपनी बात तक कहने का मौका नहीं दिया गया. यहां तक कि जगनमोहन रेड्डी की मां विजयम्मा और बहन जब मुलाकात के लिए दिल्ली पहुंचीं तो भी किसी ने अच्छा सलूक भी नहीं हुआ. सत्ताधारी दल से लड़ाई कितनी मुश्किल होती है, ये जगनमोहन से बेहतर कौन जानता होगा. जगनमोहन रेड्डी को 16 महीने जेल में भी गुजारने पड़े - अपने दौर के एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री के बेटे थे.
फिलहाल राहुल गांधी के साथ भी मिलती-जुलती ही परिस्थितियां हैं - अपना राजनीतिक कॅरियर बचाना है, कांग्रेस को खाक से उठा कर फलक पर बिठाना है - और मुमकिन हो सके तो प्रधानमंत्री भी बनना है. राहुल गांधी के लिए जगनमोहन रेड्डी से सीखने के लिए काफी चीजें हैं. अब ये राहुल गांधी पर ही है कि वो क्या और कितना जल्दी जगनमोहन से सीख पाते हैं.
5. नवीन पटनायक से - जिस मोदी लहर के खिलाफ तैर कर राहुल गांधी चुनावी नदी पार करना चाह रहे थे, बीजेडी नेता नवीन पटनायक भी तो धार के खिलाफ डटे ही रहे. नवीन पटनायक ने न सिर्फ बीजेपी को लोक सभा की सीटें झटकने से रोका, बल्कि बाइज्जत CM की अपनी कुर्सी सुरक्षित बचा ली. लड़ने को तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी बहादुरी से लड़ीं, लेकिन नवीन पटनायक के उलट बहुत सारी राजनीतिक जमीन गवांनी भी पड़ी. राहुल गांधी को नवीन पटनायक के जीवन से भी काफी कुछ सीखने को मिल सकता है.
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1. ममता बनर्जी से - ममता बनर्जी से राजनीतिक जंग तो राहुल गांधी को बिलकुल नहीं सीखनी चाहिये. ममता बनर्जी को जब गुस्सा आता है तो उन्हें पता भी नहीं चलता कि पैर पर कुल्हाड़ी मार रही हैं या कुल्हाड़ी पर ही पैर मार दे रही हैं. वैसे तो वो कुल्हाड़ी पर सिर मार देने से भी परहेज करते नहीं लगतीं.
प्रधानमंत्री मोदी से लड़ाई मोल कर राहुल गांधी कुछ भी हासिल नहीं कर पाये, ममता बनर्जी को तो जो हासिल था उसे भी गवांने पर उतारू हैं. अच्छा हुआ कि राहुल गांधी ने ममता से प्रभावित होकर शपथग्रहण से दूरी नहीं बनाने का फैसला किया - क्योंकि लगता है ममता बनर्जी जिद के आगे राजनीति भूल जा रही हैं. कहां विरोध के बावजूद मोदी को मिठाई और कुर्ते भेजती रहीं - और कहां, शपथग्रहण में न आने के लिए बहाने खोजती रहीं. बहाना मिलते ही पलटी भी मार गयीं. अब तो CM की कुर्सी पर भी बन आयी है - कहां ममता बनर्जी 23 मई से पहले PM कैंडिडेट थीं.
राहुल गांधी को ममता बनर्जी से तो कुछ भी सीखने की जरूरत नहीं लगती - हां, दीवार से सिर टकराने का शौक हो तो किसी को कौन रोक सकता है.
2. अरविंद केजरीवाल से - राजनीति के मामले में ममता बनर्जी से ज्यादा समझदारी तो अरविंद केजरीवाल ने दिखायी है. अरविंद केजरीवाल तो आंदोलन के रास्ते ही राजनीति में आयी हैं, लेकिन ममता बनर्जी तो लगता है राजनीति के रास्ते लगातार आंदोलन की ओर बढ़ने लगी हैं. अगर ऐसा न होता तो वो मोदी के शपथग्रहण में मेहमान होतीं, न कि धरने पर बैठने का फैसला करतीं.
जो हासिल है उसे गंवाने के लिए क्या क्या किया जा सकता है, अरविंद केजरीवाल इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. 2016 में 70 में से 67 सीटें हासिल करने वाले अरविंद केजरीवाल, मौजूदा चुनाव में विधानसभावार नजीजों को देखें तो मालूम होता है कि शून्य पर पहुंच चुके हैं. लोक सभा सीटों के मामले में तो उन्होंने दिल्ली में पांच साल से यथास्थिति बनाये रखी है - जबकि पंजाब में चार से एक पर पहुंच गये हैं.
अगर राहुल गांधी ने अरविंद केजरीवाल से कुछ सीखने की कोशिश की तो विरासत में मिली राजनीति जो बची-खुची है - गवांते देर नहीं लगने वाली.
3. मायावती से - राहुल गांधी के सीखने के लिए मायावती के पास भी कुछ नहीं है. हां, न सीखने की बहुत चीजें हो सकती हैं. मायावती बरसों से 19वीं सदी वाली दलित राजनीति करती चली आ रही हैं, मोदी भारत को 21वीं सदी में ले जाने का दावा कर रहे हैं और मायावती पुराने तौर तरीके बदलने का नाम ही नहीं ले रहीं.
मायावती ने 2012 का यूपी विधानसभा चुनाव अपने ही लोगों से कट जाने के कारण गवां दिया. 2014 तक वो उसी मोड में रहीं और खाता जीरो बैलेंस हो गया. 2017 में अगर गठबंधन कर लेतीं तो कुछ फायदा हुआ होता और 2019 में कई सीटें कांग्रेस को गठबंधन से दूर रख कर गंवा दिया.
राहुल गांधी को अपने पुराने साथी अखिलेश यादव के लिए ज्ञान का वो पूरा भंडार छोड़ देना चाहिये कि वो मायावती के अनुभव से सीखें - और खुद चुपचाप कट लेना चाहिये.
4. अखिलेश यादव से - गठबंधन किससे और कब करना चाहिये - इस चीज का सबसे खराब हिसाब किताब अखिलेश यादव के पास ही है. जिस तरह अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव से कुछ नहीं सीखते, लगता है राहुल गांधी भी सोनिया गांधी से कुछ सीखने की कोशिश नहीं करते हैं. वैसे अच्छा तो यही रहेगा कि राहुल गांधी अखिलेश यादव से भी ऐसी बातें बिलकुल न सीखें.
5. प्रियंका गांधी वाड्रा से - बाद की बात और है, लेकिन फिलहाल तो प्रियंका गांधी वाड्रा के लेटेस्ट अवतार से राहुल गांधी को कुछ भी सीखने की जरूरत नहीं है. प्रियंका वाड्रा का पुराना अवतार ही बेहतर था, कम से कम गांधी परिवार का गढ़ तो बचा रहा.
ये ठीक है कि प्रियंका वाड्रा ने काफी मेहनत की, लेकिन चुनाव नतीजों से एक बात तो साफ है कि कांग्रेस में घर-परिवार की राजनीति तो चल भी जाएगी, घर-परिवार के लिए राजनीतिक लड़ाई तो बिलकुल नहीं चलने वाली है - कम से कम ऐसी बातों से तो राहुल गांधी को दूर ही रहना चाहिये.
ऐसा भी नहीं कि राहुल गांधी ऐसी किसी घटना के पहली बार चश्मदीद बनने जा रहे हैं, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पहले ही ये सौभाग्य मुहैया करा चुके हैं - लेकिन जो बात मोदी को शपथ लेते देखकर हुई होगी, वो मनमोहन सिंह के शपथ में कहां रही होगी. देखना होगा कि राहुल गांधी किससे कितना सीखते हैं - और कितना सीखने से बच पाते हैं. राहुल गांधी हिम्मत न छोड़ें इसके लिए ढेरों शुभकामनाएं.
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