2022 में प्रधानमंत्री मोदी के 'आमने-सामने' हो सकते हैं ये 5 सियासी किरदार!
आम चुनाव दूर है, लेकिन यूपी चुनाव के चलते 2022 महत्वपूर्ण हो गया है और इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के लिए भी चुनौतीपूर्ण है - चुनौती बनने वाले नेताओं में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ही नहीं योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) भी हैं.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के सामने राहुल गांधी ही सबसे बड़े चैलेंजर लगते हैं. अगला आम चुनाव 2024 में होना है. तब तक मोदी को चुनौती देने के लिए चैलेंज करने वाले का टिका रहना अपनेआप में एक बड़ा चैलेंज है - ये सब काफी हद तक अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में ही साफ हो जाएगा.
मतलब ये कि अगले साल होने वाले सात विधानसभा के चुनाव नतीजों की भी बड़ी भूमिका होने वाली है. अगले साल की शुरुआत में यूपी और पंजाब सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में होंगे. ऐसे में 2022 की राजनीति 2024 के आम चुनाव के लिए नींव के पत्थर की भूमिका में भी हो सकती है - यानी एक किरदार तो योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) भी हो सकते हैं
बेरोजगारी और महंगाई से होते हुए कोविड 19 से लेकर चीन और किसानों के मुद्दे पर भी राहुल गांधी काफी दिनों से मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाये हुए हैं. प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ देखा जाये तो ममता बनर्जी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी लगातार हमलावर रुख अपनाये हुए हैं.
मुद्दों के हिसाब से देखें तो किसान आंदोलन सबसे बड़ा चुनौती बना. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अपने फैसले से पीछे हटना तो यही बता रहा है. 2020 में सीएए और एनआरसी भी चुनौती बने थे, लेकिन कृषि कानूनों पर तो पीछे ही हटना पड़ा. पंजाब चुनाव और पश्चिम यूपी में बीजेपी के लिए पर ये कितना फर्क डालने वाला है देखना होगा. अब तो ऐसा भी लगने लगा है कि अकाली दल के एनडीए छोड़ देने के बाद बीजेपी पंजाब में बेहतर नतीजे ला सकती है.
कोई दो राय नहीं कि 2024 तक नरेंद्र मोदी के लिए सीधे सीधे कोई भी नेता खतरा बनने वाला है. मौजूदा राजनीतिक समीकरणों में विपक्षी खेमे की गतिविधियों पर नजर डालें तो अब भी सब के सब आपस में ही लड़ रहे हैं - बेशक, सब एक साथ मिल भी जायें, तो मोदी के लिए चुनौती की शुरुआत समझी जा सकती है.
ऐसे बहुत सारे लोग मिल जाते हैं जो राहुल गांधी को ही मोदी के लिए चैलेंजर नंबर 1 मानते हैं, लेकिन थोड़ा ध्यान से देखें तो वो टॉप 5 चैलेंजर्स की सूची में भी जगह पाएंगे, लगता नहीं है - बल्कि उनसे से भी ऊपर तो प्रियंका गांधी वाड्रा की संभावना बढ़ जाती है.
देश में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को लेकर आये अब तक के सभी सर्वे पर नजर डालें तो कोई भी नेता उनके आसपास नहीं टिकता - अगर दूसरे नंबर पर कोई नेता नजर आता भी है तो वो काफी दूर खड़ा मिलता है. मोदी विरोध की हाल फिलहाल प्रतिमूर्ति बनीं ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) भी.
सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि नरेंद्र को चैलेंज करने वाले विपक्षी खेमे से ज्यादा नेता तो बीजेपी में मिल जाते हैं - बीते वक्त के कुछ वाकयों और सर्वे को देखें तो बिलकुल ऐसा ही लगता है.
1. अमित शाह
जनवरी, 2021 में ही इंडिया टुडे और कार्वी इनसाइट्स ने मूड ऑफ द नेशन सर्वे कराया था. सर्वे के मुताबिक, नरेंद्र मोदी के बाद अगर प्रधानमंत्री पद के लिए लोगों की पसंद पूछी गयी तो आगे भी वे बीजेपी नेताओं के पक्ष में ही खड़े नजर आये.
मोदी के बाद अगर बीजेपी से ही किसी और नेता को प्रधानमंत्री बनाना हो तो कौन हो सकता है? जवाब देने वालों में 30 फीसदी लोग अमित शाह के पक्ष में दिखे, जबकि 21 फीसदी लोग योगी आदित्यनाथ को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, ऐसा बताया था. हालांकि, देश में प्रधानमंत्री पद की पसंद के मामले में मोदी के बाद सर्वे में शामिल लोगों की जबान पर योगी आदित्यनाथ का ही नाम सुना गया.
राजनीति में रिश्ते भी सत्ता के हिसाब से ही तय होते हैं!
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने पर गुजरात में अमित शाह तो उनके स्वाभाविक उत्तराधिकारी रहे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर आनंदी बेन पटेल का नाम मंजूर किया. आनंदी बेन पटेल फिलहाल चुनावी दृष्टि से अति महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश की राज्यपाल हैं.
हो सकता है, मोदी ने तभी शाह को लेकर बड़ी बड़ी जिम्मेदारियां तय कर रखी हों और दिल्ली में उनकी ज्यादा जरूरत महसूस की हो, इसलिए उनको अहमदाबाद तक ही सीमित नहीं रखा. हो सकता है, अमित शाह के जेल से रिहा होने के बाद भी गुजरात लौटने पर हाई कोर्ट की पाबंदी जैसी बातों की वजह से भी मोदी को अलग फैसला लेना पड़ा हो. बहरहाल, अब तो ये साबित भी हो चुका है कि शाह को दिल्ली साथ लाने का मोदी का फैसला सर्वोत्तम रहा.
मोदी के साथ शाह का भी वैसे ही नाम लिया जाता है, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी के साथ लालकृष्ण आडवाणी का, लेकिन अपनी किताब जुगलबंदी में विनय सीतापति ऐसी बातों से इत्तफाक रखते नहीं लगते. लेखक के आकलन को समझें तो लगता है कि जिस तरह से अटल बिहारी वाजपेयी जरूरत पड़ने पर आडवाणी को फॉलो करने को तैयार रहते थे - वो बात कभी मोदी-शाह के रिश्ते में नजर नहीं आयी है.
कुछ घटनाएं भी ऐसे इशारे करती हैं. गुजरात में 2016 में मुख्यमंत्री बदलने के मामले में भी ऐसा ही लगा. जैसे आनंदी बेन को हटाने में शाह की भूमिका देखी, वैसे ही विजय रूपानी को बदलने के मामले में मोदी का फैसला माना गया - और वो भी उसी आनंदी बेन की सिफारिश पर जिन्हें पाटीदार आंदोलन न संभाल पाने के चलते शाह को हटाने का मौका मिला था. तब भी, जबकि शाह ने 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव से छह महीने पहले विजय रूपानी को ये कह कर कुर्सी पर बिठाया था कि चुनाव जिताने की जिम्मेदारी वो खुद लेते हैं - बेशक शाह ने चुनाव जिताया भी, लेकिन मोर्चे पर मोदी को ही उतारना पड़ा था.
ये भी तभी की बात है, हिमाचल प्रदेश में भी ऐसा ही एक उदाहरण मिलता है. 2017 के चुनाव में प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था. बीजेपी कांग्रेस को बेदखल कर चुनाव जीत जाती है, लेकिन मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार अपनी सीट से हार जाता है.
चुनावों से पहले ही मालूम हो गया था कि अमित शाह, धूमल को सीएम फेस बनाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन धूमल के मोदी-कार्ड खेल जाने के बाद वो मन मसोस कर रह गये. हार जीत तो जनता तय करती है, लेकिन अगर अमित शाह धूमल के लिए भी थोड़ा एक्स्ट्रा मेहनत किये होते तो क्या नतीजे अलग नहीं हो सकते थे - बहरहाल, धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर की फिलहाल मुख्यमंत्रियों की नर्सरी मोदी कैबिनेट में ग्रूमिंग हो रही है - और जिस तरीके से अनुराग ठाकुर के हिमाचल दौरे में जयराम ठाकुर उनकी आवभगत में जुटे रहते हैं - आगे की चीजें समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है.
शाह को आडवाणी की तरह ही टस से मस न होने वाला नेता माना जाता है, वैसे भी गांधीनगर से लोक सभा पहुंचने के बाद उत्तराधिकारी भी बन गये हैं. कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला भी शाह को सूट नहीं करता, लेकिन वीटो चूंकि मोदी के हाथ में रहता है, इसलिए आखिरी फैसला वही लेते हैं.
2019 में जब मोदी सरकार दोबारा बनी तो नंबर दो की लड़ाई नजर आने लगी थी. माना जाने लगा कि अमित शाह और राजनाथ सिंह में नंबर दो की होड़ लग गयी थी. तभी राजनाथ की नाराजगी की भी खबरें आयी थीं. हालांकि, बाद में मोदी ने सारी चीजें ऐसे मैनेज की कि अमित शाह भी बुरा न मानें और राजनाथ की वरिष्ठता पर भी आंच न आने पाये.
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ ही मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए अक्सर योगी का नाम लिया जाता रहा है, लेकिन ध्यान रहे चेहरा भले ही मोदी के बाद योगी का लोकप्रियता में आगे हो - कमान पूरी तरह शाह के हाथों में ही है. तभी तो योगी आदित्यनाथ से पहले मोदी के लिए शाह ही चैलेंजर बन सकते हैं.
2. योगी आदित्यनाथ
मूड ऑफ द नेशन सर्वे में देश के 38 फीसदी लोग अगले प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को ही देखना चाहते थे, लेकिन 10 फीसदी लोग ऐसे भी रहे जो योगी आदित्यनाथ आदित्यनाथ अगली बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे देखना चाहते थे. इसी सर्वे में 8 फीसदी लोग अमित शाह को प्रधानमंत्री बनाये जाने के पक्ष में पाये गये.
अरविंद शर्मा को वीआरएस दिला कर बीजेपी ने यूपी विधान परिषद भेजा था. शुरू शुरू में माना जाता रहा कि अरविंद शर्मा को यूपी का डिप्टी सीएम बनाया जाएगा, लेकिन योगी आदित्यनाथ के जिद पर अड़ जाने की वजह से अरविंद शर्मा को यूपी बीजेपी में उपाध्यक्ष जैसा कम महत्वपूर्ण पद देना पड़ा.
पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा के खिलाफ योगी आदित्यनाथ के स्टैंड को मोदी की मंशा का सम्मान न करना या कहें कि आदेशों के उल्लंघन के तौर पर समझा गया. दिल्ली में मोदी, शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकातों के बाद ट्विटर पर लिखा था, मार्गदर्शन मिला - लेकिन योगी के लखनऊ पहुंचते ही साफ हो गया कि वो सब सिर्फ ट्विटर पर लिखने जैसी बाते हैं.
राजनीति में हर किसी को सही मौके का इंतजार होता है - योगी आदित्यनाथ तो पांच साल पहले ही ये साबित कर चुके हैं!
मोदी के खिलाफ जाकर और उनकी अवहेलना करके यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने साफ कर दिया है कि भविष्य में उनके इरादे कैसे हो सकते हैं. योगी के यूपी के मुख्यमंत्री बनने में भी ऐसे ही पैंतरे महसूस किये गये.
2017 में यूपी के मुख्यमंत्री को लेकर कई नाम आये और सबसे दमदार राजनाथ सिंह का लगा. जब राजनाथ सिंह ने इंकार कर दिया तो मनोज सिन्हा पर सहमति बन गयी, लेकिन ऐन वक्त पर योगी आदित्यनाथ प्रकट हो गये और कुर्सी पर बिठा दिये गये.
बीजेपी को लेकर योगी आदित्यनाथ का ट्रैक रिकॉर्ड कभी अनुशासित नहीं रहा है. 2002 में गोरखपुर विधानसभा सीट पर पहली बार योगी आदित्यनाथ के तेवर देखने को मिले थे. बीजेपी ने 1989 से विधायक रहे शिव प्रताप शुक्ला को फिर से उम्मीदवार बनाया तो योगी आदित्यनाथ विरोध में खड़े हो गये. फिर योगी आदित्यनाथ ने राधा मोहन दास अग्रवाल को खड़ा कर दिया और चुनाव प्रचार में खुद ही मोर्चा संभाल लिया. शिव प्रताप शुक्ला चुनाव हार गये. उसके बाद फिर कभी योगी ने शिव प्रताप शुक्ला को टिकट नहीं देने दिया.
2019 के आम चुनाव से पहले बीजेपी ने शिव प्रताप शुक्ला को राज्य सभा भेजा और फिर मंत्री बनाया गया. ये योगी पर लगाये जाने वाले ठाकुरवाद के आरोपों को काउंटर करने की बीजेपी की तरकीब रही. शिव प्रताप शुक्ला को बीजेपी में हाल ही में बनी ब्राह्मण कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया है.
जो योगी आदित्यनाथ बीजेपी के साथ एक अनुशासित नेता की जगह एक गठबंधन सहयोगी जैसा व्यवहार करते आ रहे हों, 2022 में दोबारा मुख्यमंत्री बन जाने के बाद क्या मोदी के लिए चुनौती नहीं बन सकते?
3. नितिन गडकरी
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी अपने कामकाज को लेकर चर्चा में बने रहते हैं - और मोदी सरकार में वो मिस्टर परफॉर्मर के तौर पर खुद को पेश करते रहे हैं. नागपुर से आने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पसंदीदा नेता होने के नाते 2019 के आम चुनाव से पहले से ही नितिन गडकरी को मोदी के चैलेंजर के रूप में देखा जाता रहा है.
बीते आम चुनाव से पहले तो नितिन गडकरी ने ऐसा रुख अख्तियार किया हुआ था कि बीजेपी नेतृत्व की तरफ से दिल्ली दो दूतों की एक टीम को उनके घर भेजना पड़ा था. समझाने के लिए. दूतों ने अपने तरीके से समझाने की कोशिश भी की, लेकिन उनके तेवर में तब तक कोई तब्दीली नहीं महसूस की गयी जब तक कि आम चुनाव के नतीजे नहीं आ गये. बीजेपी को 2019 में 2014 के मुकाबले ज्यादा सीटें मिली थीं - और ये गडकरी या उनके जैसे खामोश नेताओं को चुप कराने के लिए काफी थीं.
2028 के आखिर में जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था, केवल गडकरी ही ऐसे बीजेपी नेता रहे जिनकी टिप्पणी मोदी-शाह के खिलाफ सुनी गयी थी.
सबका साथ, सबका विकास... और सबका प्रयास!
तब नितिन गडकरी ने मोदी-शाह का नाम तो नहीं लिया, लेकिन ये सलाह जरूर दी थी कि जो लोग जिम्मेदार हैं उन्हें पीछे नहीं हटना चाहिये. तभी गडकरी का एक बयान काफी चर्चित हुआ था - 'असफलता का कोई पिता नहीं होता!'
एक बार नितिन गडकरी के आरोपों के घेरे में आ जाने के चलते बीजेपी अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा था. तब राजनाथ सिंह को बीजेपी की कमान सौंपी गयी थी. तब नितिन गडकरी का ही दोबारा अध्यक्ष बनना तय माना जा रहा था. बीजेपी के सत्ता में होने की स्थिति में मोदी के बाद गडकरी को भी वैसी ही भूमिका में देखा जाता रहा है - पीएम इन वेटिंग.
जरूरी तो नहीं कि अगली बार भी 2019 जैसे ही चुनाव नतीजे हों. मोदी के बाद संघ की पसंद होने के साथ साथ गडकरी अपने बात व्यवहार से विपक्षी खेमे में भी ज्यादा स्वीकार्य हैं - फर्ज कीजिये अगली बार बीजेपी को गठबंधन की सरकार बनानी पड़ती है और अगर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं का सपोर्ट लेने की नौबत आ जाती है, फिर तो मोदी की जगह गडकरी के नाम पर ही बात बन सकती है - और अगर ऐसा हुआ तो संघ की तरफ से गडतरी के कामकाज को आगे कर देश का आर्थिक सुपर पावर बनाने का स्लोगन भी दिया जा सकता है.
4. अरविंद केजरीवाल
विपक्षी खेमे से एक दौर में नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विरोध की आवाज माने जाते रहे - हालांकि, सभी का नंबर राहुल गांधी के बाद ही आता रहा. अब ये समीकरण बदलने लगा है.
मोदी को कभी 'कायर' और 'मनोरोगी' बता चुके दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल काफी दिनों तक मोदी-शाह के खिलाफ बोलने से बचते रहे, लेकिन एक बार टीवी पर हनुमान चालीसा क्या पढ़ दिया, 2020 में दिल्ली का चुनाव जीतने के बाद से तो नारा ही लगाने लगे हैं - जय श्रीराम.
2022 में अरविंद केजरीवाल यूपी, उत्तराखंड और पंजाब के अलावा गोवा विधानसभा चुनावों को लेकर काफी एक्टिव हैं. चंडीगढ़ नगर निगम में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरने के बाद अगर उनके पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं तो कोई अस्वाभाविक बात भी नहीं है. केजरीवाल नगर निगम के नतीजों में विधानसभा चुनाव का नक्शा देखने लगे हैं.
अब तो ऐसा लगता है जैसे अरविंद केजरीवाल सीधे सीधे प्रधानमंत्री मोदी की कॉपी करने लगे हों. जिस अयोध्या को मोदी सरकार यूपी की योगी सरकार के साथ डबल इंजन के विकास के मॉडल के तौर पर पेश कर रही है, अरविंद केजरीवाल की राजनीति में भी तो हिंदुत्व के ही विकास मॉडल विकास मॉडल की झलक दिखायी पड़ रही है.
मनीष सिसोदिया के साथ अयोध्या जाकर केजरीवाल जय श्रीराम तो बोलते ही हैं, दिल्ली लौटकर लोगों को ट्रेन से भेज कर अयोध्या दर्शन करा रहे हैं - जैसे हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियां दोहरा रहे हों - राह पकड़ तू एक चला जा पा जाएगा मधुशाला.
जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रधानमंत्री मोदी जीरो टॉलरेंस की बात करते हैं, केजरीवाल उसी के सहारे तो राजनीति में आये हैं. जिस हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की राजनीति के बूते मोदी दिल्ली तक पहुंचे केजरीवाल भी तो अपने तरीके से वही सब प्रस्तुत कर रहे हैं. जैसे अयोध्या और काफी को विकास के मॉडल के तौर पर पेश किया जा रहा है - हो सकता है जल्दी ही केजरीवाल भी कहने लगें कि मथुरा में भी भव्य मंदिर बनना चाहिये और सत्ता में आने पर वो भी ऐसा ही करेंगे. ध्यान देने वाली बात ये है कि ये सब आम आदमी पार्टी के पक्ष में आये 2022 के चुनाव नतीजे केजरीवाल की राह आसान बना सकते हैं - और केजरीवाल की ये राह ही तो मोदी के लिए मुश्किलें लाने वाली है.
5. ममता बनर्जी
2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में तो बीजेपी की हार हुई ही, साल भर बाद पश्चिम बंगाल में तो और भी बुरा हाल हुआ. बीजेपी के प्रदर्शन ने तो चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की वो भविष्यवाणी भी सच कर दी जिसमें दावा किया गया था कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी 100 सीटें भी नहीं जीत पायेगी.
नीतीश कुमार के मोदी को नेता मान लेने और केजरीवाल के उनका फॉलोवर बन जाने के बाद मार्केट में संघ और बीजेपी की राजनीति के विरोध में एक ही जोरदार आवाज है और वो है ममता बनर्जी की.
ममता बनर्जी के अलावा विरोध की आवाज तो राहुल गांधी की जबान से भी सुनायी पड़ती है, लेकिन उनके पास वो आवाज जमीन से नहीं आती. जो हैसियस ममता बनर्जी ने मोदी-शाह को शिकस्त देते हुए पश्चिम बंगाल चुनाव में जीत कर हासिल की है, राहुल गांधी तो जैसे तरस कर रह गये हैं.
ये जरूर दिखायी पड़ रहा है कि कैसे ममता बनर्जी को एक दायरे में समेटने की कोशिश हो रही है, लेकिन 2022 में तस्वीर ज्यादा साफ होने वाली है. सत्ता भले न मिल पाये, लेकिन अगर ममता बनर्जी गोवा में तृणमूल कांग्रेस को सबसे बड़ा विपक्षी दल भी बना लेती हैं तो कुछ लोगों के मुंह तो बंद करा ही सकेंगी.
ममता बनर्जी अभी तक मोदी को चैलेंज करने वालों में सबसे आगे तो नहीं है, लेकिन फ्रंट रनर बनी हुई हैं. अगले आम चुनाव तक अभी कई तरह के उलटफेर होंगे और रास्ते की बाधाओं को खत्म करती चली गयीं तो ममता बनर्जी सबको पीछे छोड़ते हुए आगे भी निकल सकती हैं.
जिस तरह महिला रिजर्वेशन को लेकर प्रियंका गांधी आगे बढ़ रही हैं - और आने वाले दिनों में 50 फीसदी की बात भी करने लगी हैं, बीजेपी सहित उन राजनीतिक दलों के लिए भी दिक्कत हो सकती है जो 33 फीसदी पर भी आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. अब तक सोनिया गांधी और राहुल गांधी बतौर कांग्रेस अध्यक्ष अपने अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख कर संसद में महिला आरक्षण बिल लाने की मांग कर चुके हैं - ये याद दिलाते हुए कि बीजेपी बहुमत में हैं और कांग्रेस पूरी सपोर्ट करेगी. सोनिया और राहुल ने ये समझाने की कोशिश की है कि कांग्रेस से जितना संभव हो सकता यूपीए सरकार में कर दिया गया है अब आगे बीजेपी की जिम्मेदारी बनती है.
यही वजह है कि प्रियंका गांधी को राहुल गांधी के ऊपर लीड मिलती लग रही है - और इसीलिए लग रहा है कि राहुल गांधी के मुकाबले प्रियंका गांधी वाड्रा ही प्रधानमंत्री मोदी के लिए बड़ी चैलेंजर बन सकती हैं - और ये सब 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तय भी हो जाना है.
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