मोदी अंकल! कम से कम एक खिड़की तो खुलवा दो
नोटबंदी के बाद सबकुछ ठीक हो गया है अगर आप ये सोच रहे हैं तो ऐसा नहीं है. अभी बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हें बताना जरूरी है.
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नोटबंदी से निकली दिल छूने वाली कहानियों से रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय का दिल नहीं पसीजा लेकिन फरियादियों को प्रधानमंत्री से बहुत उम्मीदें हैं. नोटबंदी की दुश्वारियां लोगों ने उफ किए बगैर झेल लीं. बेबस और असहाय लोग अब भी मिल रहे हैं जिन्हें नोटबंदी का एहसास तो था लेकिन अपने भाग्य में आए रुपयों की जानकारी नहीं थी. ऐसी ही कहानी है कोटा के सूरज और सलोनी की. सहरावदा गांव के राजू बंजारा की मौत के बाद उसकी पत्नी पूजा की 2013 में हत्या हो गई और इससे उनका 16 साल का बेटा सूरज और 12 साल की बेटी सलोनी बेसहारा हो गए.
पुलिस ने अपना काम किया और बाल कल्याण समिति के आदेश पर रंगबाड़ी स्थित अनाथ बच्चों की संस्था में सहारा दिलाया. बच्चों के पुनर्वास की पहल शुरू हुई तो सूरज और सलोनी ने बताया कि गांव में उनका एक घर है. समिति के आदेश पर पुलिस ने घर का सर्वे किया तो सौ और पांच सौ के नोटों में 96 हजार 500 रुपये की रकम मिली. ये रकम मां ने अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए सुरक्षित की होगी जिससे बच्चे भी अनजान रहे और अब जब पता चला है तो नोटबंदी ने बेबस कर दिया है. बच्चों ने अंतिम प्रयास करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ये नोट बदलवाने की गुहार लगाई है. ऑनलाइन फरियाद में सूरज व सलोनी ने इसे विशेष केस मानकर नोट बदलने का अनुरोध किया है. बच्चों के अनुरोध पर मोदी अंकल को विचार करना चाहिए और उनकी मां की मेहनत की कमाई पर पानी नहीं फिरने देना चाहिए. बचत मुक्चय रूप से मुसीबत और आकस्मिक जरूरतों को ध्यान में रखकर की जाती है पर नोटबंदी ने इसका विकल्प सोचने को मजबूर कर दिया.
विदेश आने-जाने वालों की मुसीबत भी कम नहीं हैं. पढ़ाई के लिए रूस गईं अनिका अंजुम और दीक्षा राव को घरवालों ने क्रमश: पांच हजार और साढ़े तीन हजार रुपये दिए. ये दोनों छात्राएं इस साल जून या जुलाई में आएंगी. इस बार जब वे दिसंबर के अंत में लौटकर आईं. तब तक रुपये बदलने की मियाद खत्म हो चुकी थी और रूस में इन्हें बदलने का कोई प्रावधान नहीं था. अनिका की मां रिजर्व बैंक की लाइन में लगीं तो घंटों बाद उन्हें ये कहकर लौटा दिया गया कि जिसका पासपोर्ट-वीजा है, उसके आने पर ही नोट बदले जाएंगे. कहानियां और भी हैं पर इन सत्यकथाओं का सार ये है कि नोटबंदी से सरकार के आर्थिक लक्ष्य हासिल हुए हों या न हुए हों पर लोगों की बचत की बुनियाद जरूर हिल गई है. दो अलग-अलग परिवेश की इन घटनाओं का दुख एक है और नोटबंदी से जन्मा हुआ है. अपनी मेहनत के पैसे को नियमों के भंवर में डूबते देखने का दुख मेहनतकश इनसान के अलावा कोई नहीं समझ सकता. बेईमानों की करनी की सजा ईमानदारों को न मिले, इसका प्रावधान नोटबंदी के पूरे अभियान के दौरान कहीं भी देखने को नहीं मिला. कालेधन और नकली नोट से निपटने के लिए नोटबंदी एक कारगर कदम हो सकता है.
सारे दरवाजे बंद कर काले धन को रोका जाना चाहिए लेकिन मोदी अंकल को इन बच्चों के लिए कम से कम एक खिडक़ी जरूर खुलवाना चाहिए. अपने ही पैसों को कागज के टुकड़ों में बदलते देखने का क्षोभ अकथनीय है. माना कि आर्थिक नियम सक्चत होते हैं लेकिन तानाशाही और लोकतंत्र में यही तो फर्क होता है कि यहां जनता का दुख-दर्द हुकूमत समझती है. मेहनत के पैसे डूबने की दलील दुनिया के किसी ग्रंथ और किसी अर्थशास्त्र में नहीं मिलेगी. दलील रिजर्व बैंक या वित्त मंत्रालय के पास भी नहीं है. ऐसे में पीएम का हस्तक्षेप तो बनता है.
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