शरीफ तो दोनों नहीं हैं लेकिन बड़ा घाघ कौन है ?
पाकिस्तान के सेना प्रमुख राहील शरीफ को पहले उफ़ा और फिर नवाज़ शरीफ पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से वो मौका मिल गया जिसकी वो तलाश कर रहे थे.
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नवाज़ शरीफ मई 2013 के ऐतिहासिक चुनावों के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे. हालाँकि, चुनावों में वो पूर्ण बहुमत से 6 सीट पीछे रह गए थे लेकिन 19 निर्दलिय उनकी पार्टी में शामिल हुए और उन्होंने साधारण बहुमत से जून 2013 में अपनी सरकार बना ली. नवाज़ शरीफ का चुना जाना ऐतिहासिक था क्योंकि ये पाकिस्तान के चुनावी इतिहास में पहला मौका था जब एक लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के 5 साल पूरे करने के बाद दूसरी लोकतान्त्रिक सरकार फिर से बनने जा रही थी.
चूँकि नवाज़ शरीफ पाकिस्तान की राजनीति में एक कद्दावर नेता के रूप में जाने जाते थे और पाकिस्तान, जहाँ ज्यादातर सेना ने ही राज किया है, में लोकतंत्र लगातार अपना छठवां साल देखने जा रहा था, दुनिया को ये उम्मीद की थी नवाज़ शरीफ लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आगे ले जाने और सेना का राजनीतिक प्रभाव कम करने में सफल होंगे.
यही सबसे बड़ी चुनौती साबित होने जा रहा थी पाकिस्तान के नए शरीफ (सेना प्रमुख राहील शरीफ) के लिए कि कैसे वो नवाज़ शरीफ के पर क़तर सकें. राहील शरीफ नवम्बर 2013 में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष बने थे.
इसका मतलब नवाज़ शरीफ के पास 6 महीने का अवसर था अपनी चालें चलने के लिए और गोटियां बैठाने के लिए और इतिहास को दोहराने के लिए. दुनिया जानती है कि भारत का विरोध और भारत की दहशत का मुखौटा बनाये रखना ही पाकिस्तानी सेना की जीवन रेखा है. अब चाहे नवाज़ शरीफ के दिल में भारत के लिए जो भी था उन्होंने अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसी जीवन रेखा को निशाना बनाने का निश्चय किया.
जब नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज़ शरीफ समेत सभी सार्क नेताओं को आमंत्रित किया तो नवाज़ शरीफ को वो मौका हाथ लग गया और उन्होंने एक नया स्वांग रचना शुरू कर दिया. हालाँकि अतीत में उन्होंने भारत की पीठ में लागतार छुरा ही भोंका था और उसका सबसे बड़ा उदहारण कारगिल जंग है. नवाज़ शरीफ ही क्या, यही पाकिस्तान का इतिहास रहा है. लेकिन नीति कहती है कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में न तो कोई स्थाई मित्र होता है और न ही कोई स्थाई दुश्मन, लिहाजा संबंधों को बेहतर करने की हमें लगातार कोशिश करते रहना चाहिए.
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जब नवाज़ शरीफ प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण में आये तो लगा कि भारत पाकिस्तान के रिश्तों में सुधार का एक नया दौर चल पड़ा है. साड़ियों और आम की पेटियों का आदान प्रदान एक बार फिर शुरू हो गया. नवाज़ भारत आये और और लीक से हटकर एक सन्देश देने की कोशिश की जब वो कश्मीर के अलगाववादियों से नहीं मिले. और तो और, जुलाई 2015 में जारी उफ़ा संयुक्त समझौते में कश्मीर का ज़िक्र तक नहीं किया.
हालाँकि इस बीच कुछ छुटपुट घटनाएं और शब्दों की जंग चलती रही, लेकिन दुनिया ने समझा कि मोदी और नवाज़ में एक केमिस्ट्री बन रही है तो और कोई क्या कर लेगा. केमिस्ट्री का पता हमें इसी बात से लग जाता है कि अगर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज नवाज़ शरीफ की पारिवारिक मेहमान बनीं तो नरेंद्र मोदी ने अचानक ही अपने प्लेन का रूख लाहौर की तरफ कर दिया जिससे वह नवाज़ शरीफ को उनके जन्म दिन की बधाई दे सके.
लेकिन हम ये कैसे मान लें कि इस दरम्यान पाकिस्तान के दूसरे शरीफ (राहील शरीफ) चुप बैठे रहें. कतई नहीं!
राहील शरीफ को पता था कि वो नवाज़ शरीफ से 6 महीने पीछे चल रहे हैं और उन्हें सोच समझकर लेकिन तेजी से अपनी गोटियां बैठानी होंगी. हालाँकि राहील शरीफ अपनी चालों में लगे हुए थे और कश्मीर में संघर्ष विराम का उल्लंघन और भारत पाकिस्तान के कुछ नेताओं में जारी जुबानी जंग से इसका पता भी चलता रहता था, उनको उफ़ा और नवाज़ शरीफ पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से वो मौका मिल गया जिसकी वो तलाश कर रहे थे. और उसके बाद तो समीकरण तेजी से बदले.
नवाज शरीफ और राहील शरीफ |
फिर तो उफ़ा, भ्रष्टाचार और कश्मीर का ऐसा घोल उन्होंने बनाया कि बेचारे नवाज़ शरीफ साहब राहील शरीफ की चालों में उलझ कर रह गए. फिर राहील शरीफ साहब की मदद के लिए पाकिस्तान की विपक्षी पार्टियां आगे आ गयीं जो नवाज़ शरीफ पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी और अब वह खुलेआम सेना का समर्थन कर रही हैं कि सेना सब कुछ (भ्रष्टाचार) साफ़ कर देगी.
पहले तो राहील शरीफ ने अगस्त 2015 में कश्मीर के मुद्दे पर भारत-पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार वार्ता को रद्द कराया, फिर पठानकोट हमला कराकर उसकी तोहमत झेलने के लिए नवाज़ शरीफ को छोड़ दिया. अगले दौर में कश्मीर में अशांति और हिंसा भड़काकर हाफिज सईद और सलाहुद्दीन जैसे नामों को, जो भारत के मोस्ट वांटेड आतंकी हैं, भारत के खिलाफ जहर उगलने के लिए खुला छोड़ दिया.
अब भारत और नरेंद्र मोदी कितना बर्दाश्त करते?
और अब नवाज़ शरीफ भी कितना स्वांग कर पाते. एक तो उनपर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप, दूसरे उनकी सेना को नागवार गुजरती भारत नीति, उनकी सत्ता कमजोर पड़ने लगी. फिर तो यही हुआ कि छोड़ो मोदी और दुनिया की चिंता और अपना कुनबा बचाओ और नवाज शरीफ ने अपना भारत और मोदी के प्रति शराफत का चोला उतार फेंका. नरेंद्र मोदी ने अपनी तरफ से नवाज़ शरीफ को पूरा मौका दिया लेकिन नवाज शरीफ ही अपनी शराफत छोड़ चले. अब चाहे उनकी अपनी राजनीतिक मजबूरियां रहीं हों भारत को धोखा देने में. राहील शरीफ साहब यहाँ अपना काम कर गए.
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मजबूरन भारत को भी मैदान में उतरना पड़ा. भारत को और नरेंद्र मोदी को नवाज़ शरीफ साहब ने कितना दर्द दिया है ये विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के संयुक्त राष्ट्र महासभा संबोधन में छलक ही गया. सुषमा ने कहा कि हमने तो नवाज़ शरीफ को नरेंद्र मोदी के शपथग्रहण समारोह में बुलाया, उनके जन्मदिन की बधाई देने मोदी लाहौर गए, उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेते रहे, लेकिन बदले में भारत को पठाकोट और उरी हमले मिले (वैसे ही जैसे अटल बिहारी वाजपेयी को 1999 में शांति आधारित लाहौर डिक्लेरेशन के बदले कारगिल मिला था. उस समय भी नवाज़ शरीफ ही प्रधानमंत्री थे). मोदी और भारत और कितना धैर्य रखते.
सो अब भारत ने भी कमर कस ली है. नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान को खुली चेतावनी दे दी है कि भारत पाकिस्तान को दुनिया में अलग-थलग कर देगा. जैसे को तैसा की तर्ज़ पर अब पाक-अधिकृत-कश्मीर और बलूचिस्तान भी वैसे ही उछाले जायेंगें जैसे पाकिस्तान कश्मीर-कश्मीर करता रहता है. भारत सिंधु जल समझौता और पाकिस्तान को दिए मोस्ट फेवर्ड नेशन दर्ज़े पर गंभीरता से विचार कर रहा है. और भारत के डिप्लोमेटिक ऑफेंसिव ने पाकिस्तान को परेशान करना शुरू कर दिया है. नवाज़ शरीफ को अब शायद समझ नहीं आ रहा होगा कि दुनिया को क्या जवाब दें.
इन सब ने नवाज़ शरीफ की स्थिति को 2013 के मुक़ाबले काफी कमजोर कर दी है. और सब जानते हैं कि यह सेना की सत्ता में वापसी की पहली घंटी साबित हो सकती है.
जो थोड़ा बहुत कुछ शराफत का आवरण बचा रह गया था - वो भी रही सही कसर राहील शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में पूरी करवा दी.
बेचारे नवाज़ शरीफ, उन्हें देख कर लग रहा था कि वो कितने दबाव में थे जब वो यूएनजीए को संबोधित कर रहे थे. ऐसा लग रहा था कि पाकिस्तानी सेना अपनी भारत विरोधी भड़ास निकालने के लिए उन्हें मोहरे के रूप में इस्तेमाल कर रही है और शरीफ साहब भी राहील साहब की धुन पर नाच रहे थे. 19 मिनट के शरीफ साहब के भाषण में 8 मिनट कश्मीर के लिए थे लेकिन उरी का ज़िक्र एक बार भी नहीं आया जिसे पाकिस्तानी सेना की शह पर वहां के आतंकियों ने अंजाम दिया था, जिसमें हमारे 18 जवान शहीद हो गए थे. और ऊपर से नवाज़ शरीफ साहब ने बुरहान वानी को मसीहा बता दिया जबकि बुरहान का संगठन हिजबुल एक घोषित आतंकी संगठन है. अब ये गलती नवाज़ शरीफ साहब से हुई या राहील शरीफ साहब ने उनको इसके लिए मजबूर किया ये तो दोनों शरीफ ही जानें.
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लेकिन ये दुनिया की निगाहों से नहीं बच पाया
किसी ने भी नवाज़ शरीफ की बातों को गंभीरता से नहीं लिया, जैसे एक अविश्वनीय, हलके आदमी की गवाही पर भरोसा नहीं किया जाता, फिर चाहें वो बान की मून हों या जॉन केरी या शिंज़ो अबे. बेचारे साहब दुनियाभर में चिल्लाते फिर रहे हैं कि कश्मीर-कश्मीर, लेकिन कोई उन्हें गंभीरता से ले ही नहीं रहा है.
पाकिस्तानी सेना हमेशा से आतंवाद को बढ़ावा देने और सत्ता हथियाने के लिए के लिए बदनाम रही है और इतिहास देख कर लगता है कि 'बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा' में पूरा यकीन रखती है. और लग रहा है कि राहील शरीफ साहब फिर से इतिहास दोहरा सकते हैं.
फिलहाल तो उन्होंने अपने मिशन के पहले चरण में सफलता पा ली है. उन्होंने नरेंद्र मोदी और नवाज़ शरीफ की केमिस्ट्री को, जो हमेशा से एक छलावा थी, उसको हिस्ट्री बना दिया है और जिस शराफत के आवरण के बल पर नवाज़ ने पाकिस्तान में लोकतंत्र का चेहरा बनने का ख्वाब पाल रखा था उसको धूल चटा दी है. 2013 में नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान में जो 'लोकतंत्र की उम्मीद' के रूप में छवि बनी थी वो 2013 में एक भ्रष्ट, कमजोर और सेना पर आश्रित प्रधानमंत्री के रूप में तब्दील हो गयी है. हम कह सकते हैं कि राहील शरीफ ने साबित कर दिया है कि वो नवाज़ शरीफ से ज्यादा बड़े घाघ हैं.
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