बदलते वक्त का नया स्लोगन है - सिर्फ 'दो साल यूपी खुशहाल'
जनता ने भले ही बीजेपी को पांच साल के लिए मैंडेट दिया हो - लेकिन मोदी की यूपी सरकार के पास महज दो साल होंगे. यूपी के नये मुख्यमंत्री से ज्यादा बड़ी चुनौती यूपी की ब्यूरोक्रेसी के सामने आने वाली है.
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जनता ने भले ही बीजेपी को पांच साल के लिए मैंडेट दिया हो - लेकिन मोदी की यूपी सरकार के पास महज दो साल होंगे. यूपी के नये मुख्यमंत्री से ज्यादा बड़ी चुनौती यूपी की ब्यूरोक्रेसी के सामने आने वाली है.
काम वही सोच नयी
उत्तर प्रदेश बदल रहा है, ठीक वैसे ही जैसे देश बदल रहा है. विपक्ष का जो हाल देश में है उत्तर प्रदेश में भी वो करीब करीब उसी स्थिति को प्राप्त हो चुका है. बदलाव से अब तक अगर कोई बेअसर रहा है तो वो है यूपी की अफसरशाही.
पिछले पंद्रह साल से यूपी के ब्यूरोक्रेट्स मुलायम और मायावती के काम करने के तरीके से अभ्यस्त हो चुके हैं - लेकिन अब उन्हें लखनऊ के नवाबी ठाठ नहीं बल्कि दिल्ली के हिसाब से चलना होगा - क्योंकि मोदी की यूपी सरकार को इंद्रप्रस्थ पर अगली पारी भी खेलनी है.
कहने को तो यूपी के लोगों ने बीजेपी को अगले पांच साल तक शासन का अधिकार दिया है - लेकिन मोदी की सरकार को सिर्फ दो साल में साबित करना है कि उससे आगे भी वो यूपी की ही तरह देश को खुशहाल बनाने में समर्थ हैं.
टारगेट-2019 के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना इरादा भी जाहिर कर दिया है - न बैठेंगे न किसी को बैठने देंगे.
काम वही सोच नयी!
एक कहावत है - इस देश में सिर्फ तीन कुर्सियों पर बैठे लोग अपने अपने स्तर पर सबसे अहम होते हैं - पीएम, सीएम और डीएम.
जब पीएम ने कह दिया है कि वो न बैठेंगे न किसी को बैठने देंगे तो इसे सीएम को भी सुनना ही होगा - और फिर डीएम को भी. साथ ही, सारे सरकारी मुलाजिमों को सुनाना और समझाना भी होगा, अब वैसे नहीं चलेगा जैसे पांच-पांच साल बदल बदल कर चलता रहा. अब अफसरों को नये सिरे से शासन प्रशासन के सबक सीखने होंगे, अगर मोदी की बातों और उनके इशारों को वे समझना चाहें तो.
सिस्टम बोलता है
यूपी के लोग एक मुख्यमंत्री को ये कहते सुन चुके हैं - मेरे घर की तलाशी ले लो. उन्हीं लोगों को एक और मुख्यमंत्री से जुड़ा वाकया याद होगा जब सरकारी बंगले पर पुलिस बुलाकर सत्ताधारी पार्टी के ही नेता को गिरफ्तार करा दिया गया था.
मार्केट में एक और भी मुख्यमंत्री आनेवाला है - जिसके लखनऊ पहुंचने से पहले ही रेप के एक आरोपी को पुलिस पकड़ कर जेल भेज देती है. दिलचस्प बात ये है कि रेप का ये आरोपी कोई और नहीं बल्कि निवर्तमान सरकार का मंत्री रहा जिसके खिलाफ एफआईआर भी तब दर्ज हो पाया जब सुप्रीम कोर्ट का फरमान आया. कहने को तो पुलिस आरोपी मंत्री की तलाश में लगातार छापे मारती रही लेकिन वो हत्थे चढ़ा तब जब चुनाव के नतीजे सामने आये. फर्ज कीजिए नतीजे अलग होते तो क्या हाल होता?
पुलिसवाले वही थे उन्हें कमांड देने वाले अफसर भी वही थे - अगर कुछ नया था तो बस नये सरकार की आहट. शायद इसे ही सिस्टम कहते हैं. जब सिस्टम काम करता है तो बताने की जरूरत नहीं पड़ती. काम खुद बोलता है और सिस्टम काम नहीं करता तो समझाने पर लोग काम को भी कारनामा समझ बैठते हैं - और जब तक इसके लिए जिम्मेदार लोगों को ये बात समझ आये तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
गौर से देखें तो न तो ये नतीजों का असर है न चुनावी वादे पूरे करने की शिद्दत - ये तो आने वाले चुनावों की आहट है जो पहले ही दस्तक दे चुकी है.
सवाल बस इतना है कि क्या यूपी के अफसर अब मोदी स्टाइल में आसानी से ढल जाएंगे? या फिर लखनऊ में भी अफसरों का जत्था वैसे ही इंपोर्ट होगा जैसे दिल्ली में हुआ था.
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