नीतीश कुमार के खिलाफ अगर सत्ता विरोधी फैक्टर है तो फायदे में कौन रहेगा?
अन्य चुनावों की तरह बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) में भी सत्ता विरोधी लहर महसूस की जा रही है - फर्ज कीजिये ऐसा संभव हुआ तो फायदे में कौन होगा तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) या फिर नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की गठबंधन पार्टनर बीजेपी?
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सत्ता विरोधी फैक्टर का फायदा अमूमन राजनीतिक विरोधियों को मिलता है. हालांकि, ये फायदा उठाने के लिए विपक्ष को मजबूत विकल्प के तौर पर पेश करना होता है. अगर ऐसा नहीं हो पाता तो मजबूरन जनता वॉकओवर दे देती है. और ये सिलसिला चलता भी रहता है. बिहार (Bihar Election 2020) के केस में भी ऐसा माना जा रहा है कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का असर है. ये बात बीजेपी के एक आंतरिक सर्वे में भी पायी गयी है. नीतीश कुमार 15 साल से बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल रहे हैं - और अब तक जिन बातों को लेकर वो वोट मांगते हैं उनमें से एक उनके पहले के 15 साल के शासन की याद दिलायी जाती है - लालू-राबड़ी शासन जिसे जंगलराज के तौर पर पेश किया जाता रहा है.
सवाल है कि अगर वास्तव में बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ कोई सत्ता विरोधी फैक्टर काम कर रहा है तो उसका फायदा किसे मिल सकता है? क्या विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) को इसका फायदा मिल सकता है? क्या ये फायदा बंट कर तेजस्वी यादव और बीजेपी को मिल सकता है? या फिर ये बीजेपी को मालामाल कर सकता है?
क्या नीतीश से ऊबे लोग तेजस्वी को वोट देंगे
तेजस्वी यादव अपनी तरफ से कोई कसर बाकी तो नहीं ही रखे हैं. राष्ट्रीय जनता दल के लालू-राबड़ी शासन के जंगलराज के आरोपों के लिए कई बार माफी मांग चुके हैं. चारा घोटाले में लालू प्रसाद यादव के जेल में होने की वजह से पोस्टर से उनके फोटो भी हटा चुके हैं - और सुशांत सिंह राजपूत केस का मुद्दा उछाल कर युवाओं, खासकर सवर्ण तबके से आने वालों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश भी कर रहे हैं.
ये सब पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा ही लगता है, लेकिन आरजेडी नेता समझाते हैं कि वो जहां भी जाएंगे लोग तो लालू के बेटे समझेंगे ही. मतलब, जो लालू यादव का पक्का वोट बैंक है उसे आरजेडी की तरफ से यही समझाया जाता है कि लालू यादव को चारा घोटाले में फंसाया गया है. ऐसे में पोस्टर पर लालू प्रसाद की तस्वीर सवर्ण तबके को अपनी तरफ खींचने के इरादे से हटायी गयी है.
पार्टी सूत्रों के हवाले से आयी कुछ मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि सुशांत सिंह राजपूत केस के मुद्दा बनने की सूरत में सवर्ण तबके से वोट हासिल करने के मकसद से तेजस्वी यादव एनडीए के वोट बैंक में सेंध लगाने की भी कोशिश में हैं. इस रणनीति के तहत सवर्ण तबके से आने वाले युवा नेताओें को उम्मीदवार बनाने की तैयारी है. आरजेडी की यादव और मुस्लिम वोटों पर अपनी खानदानी दावेदारी तो है ही, पूर्व विधानसभा स्पीकर उदय नारायण चौधरी और श्याम रजक के जरिये दलित वोट बैंक से भी कनेक्ट होने की कोशिश है.
नीतीश कुमार के मुकाबले मैदान में कहां टिकते हैं तेजस्वी यादव?
रही बात नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाने की तो 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव को याद किया जा सकता है. यूपी और बिहार में वोटिंग पैटर्न बिलकुल एक जैसे तो नहीं हैं लेकिन जातीय समीकरणों के मामले में काफी मिलते-जुलते जरूर हैं. तब बीएसपी का शासन रहा और मायावती मुख्यमंत्री थीं. अखिलेश यादव ने तैयारी पहले से ही शुरू कर दी थी. साइकिल लेकर निकल पड़े थे. खूब साइकिल यात्राएं की. कार्यकर्ताओं से मिले और उनके बीच सत्ता हासिल करने का भरोसा दिलाया और सपना भी दिखाया.
आगामी बिहार विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी किसी भी पार्टी से गठबंधन ना करते हुए राष्ट्रीय जनता दल के उम्मीदवारों का समर्थन करेगी।
— Samajwadi Party (@samajwadiparty) September 21, 2020
2012 चुनाव में समाजवादी पार्टी की जीत का सेहरा अखिलेश यादव के सिर ही बंधा था और यही वजह रही कि एक्टिव होते हुए भी मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री की कुर्सी भी अखिलेश यादव को ही सौंप दी. तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव के केस में फर्क ये है कि लालू प्रसाद यादव जेल में हैं, लेकिन बीजेपी और जेडीयू का आरोप है कि झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार बन जाने के बाद लालू यादव चुनाव संबंधी सारे निर्देश लगातार दे रहे हैं. हाल ही में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने लालू यादव से मुलाकात भी की थी जो बिहार चुनावों को लेकर ही बतायी गयी है.
हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड से लगी विधानसभा सीटों पर बिहार चुनाव में उम्मीदवार उतारना चाहती है - और उसने अपनी सीटें भी चुन ली है. झारखंड सरकार में आरजेडी के एकमात्र विधायक को मंत्री भी बनाया गया है और झारखंड की ही तरह बिहार चुनाव को लेकर भी चर्चा चल रही है. झारखंड में भी बिहार की ही तरह कांग्रेस भी गठबंधन का हिस्सा है.
जीतनराम मांझी के बाद तो लगता है कि उपेंद्र कुशवाहा भी महागठबंधन छोड़ देंगे, लेकिन अभी कांग्रेस को लेकर ऐसी कोई खबर नहीं आयी है. हालांकि, सीटों को लेकर जिस तरह की दावेदारी चल रही है उससे ये आशंका खत्म भी नहीं हो रही है. कांग्रेस ने अपने लिए 2015 की 41 सीटों के अलावा 50 और भी सीटें चुन ली है. राहुल गांधी तो पहले ही कह चुके हैं कि सम्मानजनक सीटें मिलने पर ही चुनावी गठबंधन होगा.
सवाल ये है कि अगर इतने इंतजामात के साथ तेजस्वी यादव चुनाव मैदान में उतरते हैं तो क्या वो नीतीश कुमार को मजबूती से चैलेंज कर पाएंगे?
अभी इस सवाल का जवाब खोजना काफी मुश्किल है - क्योंकि विपक्ष की राजनीति में भी तेजस्वी यादव का बीते वक्त का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत बढ़िया तो नहीं है. हां, अगर अखिलेश यादव जैसा कोई चमत्कार हुआ और लोग आजमाने का सोचते हैं तो बात और है!
क्या बीजेपी को नीतीश से लोगों की नाराजगी का फायदा मिलेगा
जिस तरह की परिस्थितियां बन रही हैं, लगता है एनडीए में नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच फिर से आम चुनाव की तरह 50-50 बंटवारा हो सकता है. ऐसा होने के बाद बीजेपी अपने हिस्से से चिराग पासवान को सीटें देगी और नीतीश कुमार भी जीतनराम मांझी और अगर उपेंद्र कुशवाहा भी आ गये तो उन लोगों के साथ साझा करेंगे. वैसे अभी उपेंद्र कुशवाहा को लेकर कंफर्म नहीं है कि वो एनडीए में लौटेंगे या किसी तीसरे मोर्चे के जुगाड़ में हैं.
नीतीश कुमार अपनी तरफ से आधी सीटों पर दावेदारी की कोशिश में ही लगे हैं, लेकिन अगर बीजेपी ने किसी तरीके से दबाव बनाया तो हिस्सेदारी घट-बढ़ भी सकती है. रही बात नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा मिलने की तो ये वैसे नहीं संभव है जैसे तेजस्वी यादव के साथ है क्योंकि सीटों का बंटवारा तो पहले ही हो चुका होगा. अगर नीतीश कुमार को सीटों का नुकसान होता है तो गठबंधन का नुकसान होगा.
लेकिन अगर नीतीश कुमार अपने की हिस्से की सीटों में से कम ही जीत पाते हैं और बीजेपी ज्यादातर जीत लेती है तो राजनीतिक हिसाब से बीजेपी का फायदा माना जा सकता है. ऐसा होने पर बीजेपी का दबदबा बढ़ जाएगा - और फिर नीतीश कुमार पर बीजेपी वैसे ही दबदबा कायम कर सकेगी जैसा 2015 के चुनाव नतीजे आने के बाद लालू यादव कर रहे थे.
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