विश्वासमत तो रस्मअदायगी थी, नीतीश की अग्निपरीक्षा का समय शुरू होता है अब...
खुद को पाक साफ और इंसाफ पसंद बताने के लिए नीतीश कुमार जो भी दलील दें, लेकिन इस बात की काट सोचने का तो अभी मौका भी नहीं मिला होगा कि मोदी-शाह की बीजेपी जब अपने एजेंडे पर आएगी तो उस खांचे में वो फिर से कैसे फिट होंगे?
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बिहार में सत्ता परिवर्तन की पटकथा बहुत मजबूत थी. विश्वासमत तो उसके उपसंहार का ही हिस्सा था. हुआ करीब करीब वही जो अपेक्षित रहा. तेजस्वी के नेतृत्व में आरजेडी विधायकों ने खूब हंगामा किया.
तेजस्वी ने भी नीतीश के नये कलेवर को 'हे राम से जय श्रीराम' का सफर बताया. नीतीश ने पहले तो खुद को ही जस्टीफाई किया और लगे हाथ तेजस्वी को समझा भी दिया कि उन्हें आईना दिखाना भी आता है. लेकिन क्या वो आईना सिर्फ नीतीश कुमार के पास ही है? बिहार के लोगों के पास भी तो कुछ आईने होंगे, क्या नीतीश का उनसे आमना सामना नहीं होगा? लोगों के आईना दिखाने में देर हो सकती है, क्या पता उससे पहले नई पार्टनर बीजेपी ही दिखाने लगे?
जीत और हंगामा तो तय थे
राज्यपाल के सामने सरकार बनाने का दावा पेश करते वक्त नीतीश ने 132 विधायकों के समर्थन की सूची सौंपी थी. विश्वास मत में उन्हें सिर्फ एक कम वोट मिला - 131. विपक्ष में 108 वोट पड़े. 243 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 122 सदस्यों के समर्थन की जरूरत थी. नीतीश की जेडीयू के पास 71, बीजेपी और सहयोगियों के पास 58 सीटें हैं. नीतीश को 4 निर्दलीय विधायकों से भी सपोर्ट की अपेक्षा थी. सदन में तेजस्वी ने कहा कि वो विश्वास मत के विरोध में खड़े हैं.
विश्वास मत के दौरान खूब हंगामा होता रहा. नीतीश पर तेजस्वी अपने आरोप दोहराते रहे. जब बारी आई तो नीतीश तेजस्वी और लालू प्रसाद के साथ साथ कांग्रेस को भी लपेटे में लिया, कहा - उन्हें 15 की जगह 40 सीटें दिलवाईं.
आईना भी घूमता है...
तेजस्वी और उनके पिता लालू को पहले ही कफन में जेब नहीं होती जैसी नसीहत दे चुके नीतीश ने फिर कहा कि सत्ता सेवा के लिए होती है, भ्रष्टाचार के लिए नहीं. फिर कहा कि सांप्रदायिकता की आड़ में भ्रष्टाचार का साथ नहीं दिया जा सकता. थोड़ा सख्त लहजे में नीतीश ने कहा - 'मैं सबको आईना दिखाऊंगा'.
अंदर आरजेडी विधायकों के साथ शोर मचाने के बाद तेजस्वी जब बाहर निकले तो उन्हें 'थ्री इडियट्स' की वो पैरोडी याद दिलायी जिसे कभी नीतीश के मुहं से सुना गया था -
"बहती हवा सा था वो, गुजरात से आया था,
काला धन लाने वाला था वो, कहां गया उसे ढूंढो.
हमको देश की फिक्र सताती है, वो बस विदेश का दौरा लगता है.
हमको बढ़ती महंगाई सताती है, हर वक्त अपनी सेल्फी खिंचवाते हैं.
दाऊद को लाने वाला था वो, कहां गया उसे ढूंढो..."
ये तो वो सब रहा जो पहले से तय था. अब आगे क्या सब होने वाला है उसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है. तमाम कोशिशें होंगी. कुछ कामयाब होंगी कुछ नाकाम होंगी, मगर नीतीश की राह बड़ी मुश्किल है.
चुनौतियां तो अपार हैं
नीतीश कुमार के पास तो हर बात का जवाब है. कुछ अभी दे रहे हैं कुछ वक्त आने पर देंगे. मुश्किल तो उन जेडीयू कार्यकर्ताओं के सामने है जो चार साल से बीजेपी को गाली देते नहीं थकते थे - अब उन्हें ही अचानक गले कैसे लागाएंगे? नेताओं की अंतरात्मा और कार्यकर्ताओं की अंतरात्मा में बड़ा फर्क होता है. नेताओं की अंतरात्मा दिमाग में होती है, जबकि कार्यकर्ताओं के दिल में. ये किसी के लिए मुमकिन कैसे हो सकता है कि पूरी रात जी भर गाली देने के बाद सुबह उठते ही उन्हीं के घर पहुंच कर गुड मॉर्निंग बोलने को कह दिया जाये.
नीतीश के फैसले पर जेडीयू में जो असंतोष है वो यूं ही नहीं है. नीतीश के ही फैसले के चलते कार्यकर्ताओं के सामने दो साल पहले भी यही स्थिति पैदा हुई थी. फर्क बस इतना है कि तब उनके सामने आरजेडी कार्यकर्ता थे और अब बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता.
खुद को पाक साफ और इंसाफ पसंद बताने के लिए नीतीश कुमार जो भी दलील दें, लेकिन इस बात की काट तो वो खुद भी नहीं सोच पाये होंगे कि बीजेपी जब अपने एजेंडे पर आएगी तो उस खांचे में कैसे फिट होंगे?
हालांकि, धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर एनडीटीवी से बातचीत में जेडीयू प्रवक्ता केसी त्यागी ने खुद के साथ साथ बीजेपी का भी बचाव किया. कश्मीर में धारा 370 और अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे का खास तौर पर जिक्र करते हुए त्यागी ने कहा कि जेडीयू का जो स्टैंड पहले था उस पर वो कायम है और बीजेपी का भी फिलहाल वही स्टैंड है.
जिस तरह की चर्चा है उससे तो यही लगता है कि नीतीश आगे भी अपने 'सात निश्चय' को आगे बढ़ाएंगे. सवाल है कि उनमें लालू वाले कितने कम हो जाएंगे और बीजेपी वाले कौन कौन जुड़ जाएंगे?
'संघम् शरण् गच्छामि' के बाद अब तो उनके स्लोगन संघमुक्त भारत और शराबमुक्त समाज में आधा ही बचा है, आधा कब तक दोहराएंगे और वो कितना असरदार होता है देखना होगा.
ये चौतरफा हमलों का असर ही हो सकता है कि नीतीश पहले का अपना एक फैसला नहीं बदलने जा रहे हैं - उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव में वो विपक्ष के उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी का ही सपोर्ट करने जा रहे हैं. वैसे सपोर्ट करना और न करना प्रतीकात्मक ही है, फिर भी अगर इसमें कोई मैसेज है तो उसे नजरअंदाज करना भी ठीक नहीं है.
जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा नीतीश कुमार के समर्थक रहे हैं, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री का ताजा फैसला उन्हें ठीक नहीं लगा है. अपने एक ट्वीट में गुहा ने नीतीश को लालू की ही तरह कुर्सी का लालची करार दिया है.
Nitish Kumar should have advised the Governor to dissolve the Assembly. Nitish says Lalu has greed for money; he has shown greed for power.
— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) July 27, 2017
लालू प्रसाद भी जनादेश का मुद्दा उछाल कर नीतीश पर ज्यादा हमलावर बने हुए हैं. गुहा को भी नीतीश के फैसले में दिक्कत सिर्फ मैंडेट को ही लेकर लग रही है. विचारधारा और पार्टी लाइन की बात अलग है, नहीं तो लोकतांत्रिक तरीका तो नया जनादेश लेना ही है. हां, उसकी अपनी मुश्किल हो सकती है. पहला तो यही है कि खर्च का बोझ बढ़ेगा और दूसरा शायद ही कोई विधायक इतनी जल्दी फिर से मैदान में उतरने को राजी हो, नेतृत्व को कौन कहे. वैसे नया गठबंधन भी ज्यादा चल पाएगा ऐसी कम ही लोगों को उम्मीद होगी. तो क्या बिहार में मध्यावधि चुनाव का खतरा भी मंडराने लगा है? अगर ऐसी बाद है फिर तो अभी चुनाव हो जाता तो नतीजा जो भी लोकतंत्र तो बच ही जाता.
वैसे ये सब अब बीजेपी की रणनीति और आकलन पर निर्भर करता है. फिर तो ये भी संभव है कि बीजेपी कोशिश करे कि लोक सभा के साथ ही 2019 में ही विधानसभा चुनाव हो जायें. अगर बीजेपी ऐसा सोचती है तो उसे ओडिशा विधानसभा के नतीजे याद होने चाहिये जब लोगों ने देश के लिए नरेंद्र मोदी को चुना और सूबे के लिए नवीन पटनायक को ही कुर्सी पर बैठाये रखा. 2019 में ऐसा फिर होने वाला है और बीजेपी पहले से ही अपने मिशन को अंजाम देने में जुट गयी है.
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