मांझी के RJD में जाने से नीतीश खुश होंगे, बाकी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता
नीतीश कुमार के पाला बदल लेने के बाद एनडीए में जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की पूछ काफी घट गयी थी. संकेत तो कुशवाहा भी दे चुके हैं, लेकिन घोषणा मांझी ने पहले कर दी है.
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बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी का लालू खेमे में जाना चर्चा का विषय जरूर है, लेकिन बहुतों को इससे बहुत फर्क नहीं पड़नेवाला. यहां तक कि आरजेडी को भी, सिवा इस बात के कि मांझी के बहाने नीतीश कुमार और बीजेपी पर हमले का थोड़ा और मौका और बहाना मिल रहा है.
नीतीश कुमार जरूर मांझी के इस फैसले से खुश होंगे. कभी खुद का पतवार डूबोने में कोई कसर बाकी नहीं रखने वाले मांझी को भला नीतीश कुमार कब तक झेलते. वैसे भी हर राजनीतिक मौके की सूरत में मांझी दावेदार बन जाते थे, लेकिन न तो नीतीश और न ही एनडीए की अगुवा बीजेपी कभी ऐसी बातों पर गौर फरमाती रही.
मांझी की नयी छलांग
राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव से मिलने के बाद मांझी ने आरजेडी से हाथ मिलाकर महागठबंधन में जाने की घोषणा कर दी है. बीजेपी की ओर से कहा गया है कि मांझी को मना लिया जाएगा. मांझी रूठे तो कई दिनों से हैं, लेकिन अब तक किसी ने मनाने की जहमत नहीं उठाई तो आगे क्या समझा जाये. मांझी उपचुनाव में अपने लिए जहानाबाद से टिकट चाहते थे, लेकिन जेडीयू ने आगे बढ़ कर उनकी संभावनाएं खत्म कर दी. फिर क्या था मांझी रूठ गये और चुनाव प्रचार से मना कर दिया. जब कोई मनानेवाला नहीं मिला तो एनडीए छोड़ने का भी ऐलान कर दिया.
नाव बदलते महागठबंधन में पहुंचे मांझी
मांझी ने तो आरजेडी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने दावा भी सही साबित कर दिया है. रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा था कि राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता कुशवाहा और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी आरजेडी के संपर्क में हैं. कुशवाहा ने तो 30 जनवरी को पटना में सर्वदलीय 'मानव कतार' का आयोजन कर अपना इरादा जाहिर कर ही दिया था. कुशवाहा के इस आयोजन में उनके एनडीए सहयोगी बीजेपी और जेडीयू की ओर से तो कोई नहीं आया, लेकिन आरजेडी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी और प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया.
मांझी को पिता तुल्य बताते हुए तेजस्वी यादव ने हाथों हाथ लिया है तो बिहार कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष कौकब कादरी ने भी महागठबंधन में शामिल होने की घोषणा का स्वागत किया है. कादरी ने इसे मांझी देर से लिया गया लेकिन दुरूस्त फैसला बताया है.
एनडीए छोड़ने की असल वजह
जहानाबाद सीट को लेकर नाराजगी जताते हुए मांझी ने कहना रहा कि एनडीए में सभी को कुछ न कुछ मिल रहा है, एक वही हैं जिन्हें कुछ नहीं मिलता. इतना ही नहीं, मांझी ने कहा, "मैं नहीं चाहता था कि राजस्थान की तरह बिहार में भी एनडीए की हार हो इसलिए अपनी दावेदारी छोड़ दी है."
जहानाबाद सीट से पहले, बताते हैं कि मांझी ने बिहार से राज्य सभा की एक सीट पर भी दावेदारी जतायी थी. मांझी ने खुद मंत्री बनने से तो इंकार कर दिया था लेकिन अपनी पार्टी से तीन नाम भेजे थे. तब एनडीए सहयोगियों में मांझी की पार्टी को एक मंत्री पद दिये जाने की बात हुई थी लेकिन अंत में मांझी के नहीं मानने पर बात खत्म हो गयी. पहले भी मांझी राष्ट्रपति चुनाव के अलावा राज्यपाल पद के लिए भी मांग रखी थी, लेकिन कभी बात नहीं बनी.
13 साल बाद फिर आरजेडी के करीब
माना जाता है कि नीतीश कुमार के एनडीए में शामिल हो जाने के बाद मांझी और उपेंद्र कुशवाहा दोनों की पूछ काफी घट गयी थी. कुशवाहा ने संकेत तो दे दिये हैं, लेकिन घोषणा मांझी ने पहले कर दी है.
2015 के विधानसभा चुनाव से पहले मांझी ने हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा बनाया था और बीजेपी ने उन्हें 20 सीटें दी थीं. अपनी पार्टी के टिकट पर सिर्फ मांझी ही जीत पाये थे - वो भी दो जगह से चुनाव लड़ने के बाद. एक सीट पर खुद भी हार गये थे.
फिलहाल चर्चा है कि मांझी ने तेजस्वी से विधान परिषद चुनाव में अपने लिए दो सीटें मांगी हैं. एक अपने बेटे संतोष और दूसरी अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के लिए. बताते हैं कि बंद कमरे में हुई बातचीत में सहमति बन गयी है.
ऐसी कोई पार्टी नहीं जिसमें मांझी न रहे हों. आरजेडी उनकी ये नजदीकी 13 साल बाद हो रही है. कांग्रेस के टिकट पर 1980 से 1990 तक विधायक रहे मांझी, बाद में आरजेडी में शामिल हो गए और 1996 से 2005 विधायक रहे. फिर 2005 में मांझी जेडीयू में शामिल हुए और लोक सभा चुनाव के नतीजे आने के बाद नीतीश कुमार ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी. 2015 में चुनावों के ऐन पहले मांझी ने अपनी पार्टी बनायी - हिंदुस्तान अवाम मोर्चा यानी हम.
मांझी के एनडीए छोड़ने का असर
सवाल ये है कि जीतन राम मांझी के पाला बदलने से ज्यादा फायदा महागठबंधन को होगा या नुकसान एनडीए को. राजनीतिक नफे नुकसान तौलने के कई पैमाने होते हैं और इस मामले में कोई खास अंतर नहीं लगता. वैसे भी आने वाले दिनों में मांझी का रोल कोई खास नहीं बदलने वाला.
मांझी के जाने से नीतीश कुमार तो खुश ही होंगे. देखें तो वो मांझी को बीजेपी के चलते झेल रहे थे, वरना वो उन्हें फूटी आंख भी क्यों देखना चाहें. नीतीश कैसे भूल पाएंगे कि कुछ दिन के लिए कुर्सी सौंप देने के बाद मांझी ने कैसे उन्हें नाको चने चबाने को मजबूर कर दिया था. वापस कुर्सी पर काबिज कैसे हुए वो खुद नीतीश ही जानते हैं.
बीजेपी के हिसाब से देखा जाये तो मांझी जितने काम आ सकते थे आ गये. मांझी की अहमियत आगे भी बरकार रहती अगर विधानसभा की कुछ सीटें जीत लिये होते. अब जब नीतीश ने ही बीजेपी के सामने घुटने टेक दिये तो मांझी की भला क्या जरूरत.
तो क्या महागठबंधन को भी एनडीए की तरह कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला?
अगर पिछले चुनाव में मांझी के प्रदर्शन के हिसाब से देखें तो लगता नहीं कि कोई फर्क पड़ेगा. आने वाले चुनावों में भी ठीक ऐसा ही होगा नहीं कहा जा सकता है.
पिछले चुनाव में मांझी बीजेपी के साथ थे और नीतीश कुमार के खिलाफ. मांझी ने पूरे बिहार में घूम घूम कर नीतीश के खिलाफ जहर उगले और अपने लिए सहानुभूति बटोरने की कोशिश की, लेकिन चुनाव नतीजों से साफ हो गया कि लोगों को ये ठीक नहीं लगा. वो लड़ाई नीतीश बनाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बन चुकी थी. तब नीतीश के डीएनए को लेकर भी खूब बवाल हुआ था. वैसी हालत में मांझी का प्रदर्शन आगे भी दोहराया ही जाएगा, ऐसा नहीं लगता.
जिस तरह बीजेपी ने तब मांझी को नीतीश के खिलाफ इस्तेमाल किया, अब आरजेडी वैसा करेगा. खुद आरेडी को इससे जो भी फायदा हो या न हो मांझी को रोल हाल फिलहाल बदलेगा, ऐसा भी नहीं लगता.
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