दिल्ली में जेटली स्टेडियम तो ठीक है - लेकिन बिहार में मूर्ति!
दिल्ली में अरुण जेटली के नाम पर स्टेडियम के बाद बिहार में उनकी मूर्ति लगने जा रही है. दिल्ली के नेता रहे जेटली ने 2014 में अमृतसर जाकर खुद को पंजाबी बताया लेकिन लोग माने नहीं - मगर उनका बिहार कनेक्शन दिलचस्प है!
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जब भी नेताओं की मूर्ति की बात आती है, दिमाग में पहला नाम मायावती का ही गूंजता है. मूर्तियों के मामले में मायावती ने ऐसा ट्रेंड स्थापित किया कि कोई भी दलील उसके आगे फेल हो जाती है. जेटली की बिहार में मूर्ति लगाने की बात सुनकर एकबारगी अजीब सा लगता है, लेकिन राजनीति की तह तक झांकें तो तस्वीर पूरी तरह साफ हो जाती है.
जेटली का बिहार कनेक्शन जबरदस्त है. जेटली के बिहार कनेक्शन से आशया मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से सिर्फ गहरी दोस्ती नहीं हैं - बल्कि बिहार की राजनीति में नयी बहस और नया दौर शुरू करने का श्रेय भी अरुण जेटली के नाम हमेशा याद किया जाएगा.
नीतीश कुमार ने बिहार में न सिर्फ अरुण जेटली की मूर्ति लगाने की घोषणा की है, बल्कि हर साल उनके जन्म दिन 28 दिसंबर को सरकारी समारोह के तौर पर मनाये जाने की भी बात कही है. हाल ही में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला स्टेडियम को अरुण जेटली का नाम देने का ऐलान किया गया - क्योंकि वो दिल्ली की क्रिकेट पॉलिटिक्स में भी लंबे समय तक सक्रिय रहे हैं.
जेटली का बिहार कनेक्शन
बिहार को लेकर भी अरुण जेटली की राजनीतिक भूमिका वैसी ही रही जैसी दिल्ली में - राजनीतिक रणनीतिकार के साथ साथ कानूनी लड़ाइयों की तैयारी के साथ साथ अंजाम तक पहुंचाने की भूमिका. बिहार में NDA की सरकार की कल्पना और उसे मूर्त रूप देने में शुरू से आखिर तक अरुण जेटली लीड रोल में रहे.
तस्वीर का दूसरा पहलू देखें तो चारा घोटाले में लालू प्रसाद को सजा दिलाकर जेल भिजवाने - और फिर बिहार में लालू-राबड़ी शासन को पूरी तरह खत्म कर देने में भी अरुण जेटली का रोल कदम कदम पर नजर आएगा.
चारा घोटाले को अंजाम तक पहुंचाने में मुख्य भूमिका
2019 के आम चुनाव चुनाव में जब रविशंकर प्रसाद पहली बार लोक सभा का चुनाव लड़ने पटना साहिब के मैदान में उतरे तो उनकी उपलब्धियों में सबसे ऊपर चारा घोटाले में उनकी वकालत की चर्चा रही. ये सही है कि चारा घोटाले में अदालत में बहस और अपनी दलीलों के कारण रविशंकर प्रसाद ने खूब शोहरत हासिल की - लेकिन परदे के पीछे शुरू से आखिर तक को डटा रहा और हर मुश्किल खत्म करने में जुटा रहा तो वो अरुण जेटली ही रहे. ये अरुण जेटली ही रहे जिन्होंने ने चारा घोटाले की याचिका का ड्राफ्ट करने से लेकर लालू प्रसाद के नामी-गिरामी वकीलों की फौज से कदम कदम पर मुकाबला करते रहे. चारा घोटाले को लेकर सुशील मोदी, शिवानंद तिवारी, सरयू राय और लल्लन सिंह ने पटना हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की थी और फिर सीबीआई जांच का आदेश हुआ. हाईकोर्ट के आदेश को बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और बड़े बड़े वकीलों को हायर किया - जेटली ने शांति भूषण को सुप्रीम कोर्ट के लिए तैयार किया, जिसमें जॉर्ज फर्नांडिज की भी अहम भूमिका रही. सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ सीबीआई जांच के फैसले को बरकरार रखा बल्कि हाई कोर्ट की निगनारी का भी आदेश दिया.
जेटली ने नीतीश को बनाया, अब नीतीश जेटली की मूर्ति बनवाएंगे
आज अगर चारा घोटाले में लालू प्रसाद जेल में सजा काट रहे हैं तो उसके मुख्य कानूनी रणनीतिकार अरुण जेटली ही माने जाते हैं. चारा घोटाले में फंसने के साथ ही लालू प्रसाद के राजनीतिक दबदबे में गिरावट शुरू होने लगी थी. लालू ने राबड़ी देवी को कुर्सी पर बिठाकर राजनीति जारी रखी लेकिन वो भी ज्यादा नहीं चल सकी और तभी बिहार के प्रभारी बने जेटली ने नीतीश कुमार को आगे बढ़ाने की राजनीतिक चाल चलना शुरू कर दिया.
नीतीश कुमार को CM की कुर्सी पर बिठाने में चाणक्य रोल
2004 में बीजेपी की हार हुई और एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा. बिहार में एनडीए को तो 11 सीटें मिलीं लेकिन नीतीश कुमार अपनी ही सीट से चुनाव हार गये.
केंद्र में यूपीए की सरकार बनी और लालू प्रसाद रेल मंत्री बन गये. साल भर बाद ही 2005 में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए लेकिन नतीजे आये तो मालूम हुआ विधानसभा त्रिशंकु रही. पहली बार ये भी हुआ कि बगैर विधानसभा का सत्रा बुलाये राष्ट्रपति शासन लगा.
अरुण जेटली ये तो समझ चुके थे कि बिहार के लोग बदलाव चाहते हैं, लेकिन अपने दोस्त नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाना उनके लिए आसान न था. फिर भी जेटली ने पूरी तरह चाक चौबंद स्टैटेजी तैयार की.
पहले तो बहुमत जुटाने की मुहिम चलायी गयी, लेकिन जैसे ही लालू प्रसाद को भनक लगी, केंद्र की सत्ता में होने का पूरा फायदा उठाया. देर रात कैबिनेट की बैठक बुलाकर विधानसभा भंग कर दी गयी. अरुण जेटली के पास तो ऐसी राजनीतिक चालों की कानूनी काट पहले से ही तैयार रहती थी, सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया - और साथ ही साथ चुनाव की तैयारी भी शुरू हो गयी.
नीतीश कुमार की राह में सबसे बड़े रोड़ा बिहार बीजेपी के ही नेता रहे, लेकिन ये जेटली ही रहे जो साथी नेताओं को समझा बुझा कर नीतीश कुमार को एनडीए के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करा दिया. जेटली की सलाह पर नीतीश कुमार पूरे राज्य में न्याय यात्रा पर निकल पड़े - और आठ महीने बाद जब चुनाव हुए तो एनडीए की सरकार बनी और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गये.
नीतीश को मुख्यमंत्री और सुशील मोदी को डिप्टी सीएम बनाने का आइडिया भी अरुण जेटली का ही माना जाता है - और ये अब भी काम कर रहा है.
नीतीश कुमार की NDA में दोबारा वापसी के रिंग मास्टर
2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी को बीजेपी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के विरोध में नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो गये. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद तो मुख्यमंत्री की कुर्सी भी छोड़ दी. बाद में जीतन राम मांझी से सत्ता वापस लेने में एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा. बहरहाल, कुर्सी भी मिल गयी और नये चुनाव हुए तो सत्ता में वापसी भी हो गयी. महागठबंधन की सरकार चलती रही.
महागठबंधन सरकार के डेढ़ साल हुए होंगे कि तेजस्वी यादव भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह फंस गये - लेकिन डिप्टी सीएम के पद से इस्तीफा देने को तैयार न थे. नीतीश ने तरह तरह से लालू प्रसाद को संदेश देने की कोशिश की, लेकिन आरजेडी नेतृत्व राजी नहीं हुआ.
तभी अचानक नीतीश कुमार को लालू प्रसाद की राजनीतिक गतिविधियों की कुछ ऐसी जानकारी मिली जो उनके खिलाफ साजिशों का हिस्सा रही. नीतीश कुमार ने फौरन पलटी मारी और एनडीए में दोबारा शामिल हो गये. महागठबंधन छोड़ने के फैसले से लेकर एनडीए में वापसी तक सभी वाकयों के सूत्रधार जेटली ही रहे.
नीतीश कुमार अब बिहार में जेटली की मूर्ति लगवाने के साथ साथ स्थायी सरकारी सम्मान का इंतजाम कर एक तरीके से दोस्ती का कर्ज उतार रहे हैं और राजनीतिक एहसानों का बदला भी पूरा कर रहे हैं.
बिहार में जेटली की मूर्ति लगाये जाने के फैसले पर विपक्ष कैसे रिएक्ट करता है देखना दिलचस्प होगा - क्योंकि कट्टर राजनीतिक विरोधी होने के बावजूद लालू प्रसाद ने अरुण जेटली के बारे कभी ऐसा कोई बयान नहीं दिया जैसा वो नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नियमित रूप से देते आये हैं.
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