अरुण जेटली - मोदी को PM बनाने वाले लीड आर्किटेक्ट हैं!
प्रधानमंत्री कोई भी किस्मतवाला ही बनता है, ऐसा नीतीश कुमार मानते हैं - लेकिन अहमदाबाद से दिल्ली तक के रास्ते में नरेंद्र मोदी के रथ पर सबसे लंबे सारथी अरुण जेटली ही बैठे रहे और जितना बन पड़ा किस्मत की स्क्रिप्ट भी लिखे. अरुण जेटली फिलहाल एम्स में भर्ती हैं.
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मोदी कैबिनेट 2.0 में जगह पाने के लिए जब बीजेपी के तमाम नेता एड़ी चोटी का जोर लगाये हुए थे, दो नाम ऐसे भी सामने आये जिन्होंने खुद ही पूरी साफगोई से मना कर दिया कि उन्हें मंत्रिमंडल का हिस्सा न बनाया जाये - अरुण जेटली और सुषमा स्वराज. खास बात ये रही कि दोनों ही बीजेपी नेताओं को अपनी खराब सेहत के चलते ऐसा करना पड़ा. लोगों को सुषमा स्वराज के मंत्री न बनने का पता तो तब चल पाया जब वो शपथग्रहण के समय दर्शक दीर्घा में जाकर बैठ गयीं, जबकि अरुण जेटली ने तो बाकायदा एक पत्र लिख कर कैबिनेट में न शामिल करने की गुजारिश की थी.
2019 के चुनाव के दौरान खूब चर्चित रही फिल्म PM Narendra Modi की तरह 'मेकिंग ऑफ मोदी' जैसी कोई डॉक्युमेंट्री बने तो हो सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा अरुण जेटली का स्क्रीन स्पेस पर कब्जा संभव है - क्योंकि 'मोदी' को 'प्रधानमंत्री' बनाने वालों में अरुण जेटली नाम शुमार होगा तो टॉप-टेन की लिस्ट में उन्हें जगह सबसे ऊपर ही मिलेगी. सिल्वर स्क्रीन पर अगर मोदी के 'रील लाइफ' को ओमंग कुमार ने निर्देशित किया है तो 'रीयल लाइफ' में अरुण जेटली लीड आर्किटेक्ट माने जा सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक जीवन में अरुण जेटली की भूमिका उनके दिल्ली आने पर बढ़ जरूर गयी थी, लेकिन उसकी शुरुआत उनके गुजरात के मुख्यमंत्री रहते ही हो गयी थी.
'मोदी' को 'प्रधानमंत्री' बनाने में जेटली का लीड रोल
अरुण जेटली और सुषमा स्वराज - BJP में ये दो ऐसे नाम हैं कि एक के लेते ही दूसरा बरबस जबान पर आ जाता है. ये दोनों नेता 2014 में मोदी कैबिनेट का हिस्सा बने तो आखिर तक पद पर बने रहे - और एक साथ दोनों ही ने मोदी कैबिनेट 2.0 का हिस्सा न बनने का फैसला किया.
इन दोनों नेताओं की बदौलत ही बीजेपी भारतीय राजनीति में मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने में सक्षम रही और 2009-2014 तक पार्टी को प्रासंगिक बनाये रखा. कैबिनेट में भी अरुण जेटली अगर फ्रंट सीट पर बैठे या अक्सर फाइटर पायलट की भूमिका में देखे जाते रहे - तो सुषमा स्वराज बैक सीट पर बैठे बैठे मोदी सरकार का मददगार और मानवीय पक्ष लोगों के बीच लाती रहीं.
2014 से पहले पांच साल तक दिल्ली में बीजेपी को प्रासंगिक बनाये रखने में जो दो नेता अग्रणी भूमिका में रहे वे अरुण जेटली और सुषमा स्वराज ही हैं. अरुण जेटली राज्य सभा में तो सुषमा स्वराज लोक सभा में बड़ी ही मजबूती के यूपीए II सरकार की नाम में दम किये रहे.
अरुण जेटली गुजरात से दिल्ली के सफर में प्रधानमंत्री मोदी के सारथी हैं
अरुण जेटली पूरे पांच साल तक वित्त मंत्री तो रहे ही, ऐसे मौके भी आये जब वित्त मंत्री रहते हुए उन्हें रक्षा मंत्री का अतिरिक्त कार्यभार भी संभालना पड़ा और बजट पेश करने के लिए पीयूष गोयल को आगे आना पड़ा. ये दोनों ही परिस्थितियां नेताओं की खराब सेहत के चलते पैदा हुईं. मनोहर पर्रिकर की खराब सेहत के कारण जेटली को रक्षा मंत्रालय का काम भी कुछ दिन देखना पड़ा तो, खुद की खराब सेहत की ही वजह से बजट पेश न करने का फैसला लेना पड़ा.
बीजेपी को मौजूदा मुकाम दिलाने का श्रेय मोदी और अमित शाह की जोड़ी को श्रेय जाता है, तो इस जोड़ी की दुश्वारियों को दूर करते हुए मंजिल की तरफ रास्ता सपाट बनाये रखने का क्रेडिट सिर्फ अरुण जेटली को मिलेगा. 2002 के गुजरात दंगों को लेकर मोदी को जिन भी कानूनी चुनौतियों का सामना कर पड़ता, अरुण जेटली संकटमोचक बन कर हर बाधा दूर कर देते रहे. सिर्फ संकटमोचक ही नहीं, मोदी के गुजरात में रहते और फिर दिल्ली तक के सफर में भी जेटली उनके आंख और नाक ही नहीं, कान भी बने रहे.
2014 के लिए बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित किया तो उस प्रक्रिया के भी रिंग मास्टर अरुण जेटली ही रहे. ये जेटली ही रहे जिन्होंने मोदी को नेता घोषित करने के लिए राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और शिवराज सिंह चौहान को राजी करने में रात दिन एक किये रहे. ये उन दिनों की बात है जब सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी का दबदबा हुआ करता रहा. सुषमा स्वराज तो बीजेपी में आडवाणी काल की समाप्ति के बाद भी निष्ठावान बनी रहीं लेकिन अरुण जेटली ने नये समीकरणों को न सिर्फ वक्त रहते भांप लिया बल्कि अपनी काबिलयत और नेटवर्किंग के हुनर से पकड़ भी बेहद मजबूत बना लिया.
मोदी के मुकाबले तो अमित शाह के सामने कानूनी चुनौतियां बहुत ज्यादा रहीं, खासकर तब जब उनके गुजरात जाने पर ही पाबंदी लगा दी गयी रही. जेटली और शाह उस अवधि में घंटों साथ काम करते रहे. ज्यादातर जेटली के ही ऑफिस से. ये वे दिन रहे जब अमित शाह लंच और डिनर तक जेटली के साथ ही किया करते.
मोदी सरकार 1.0 के दौरान वरिष्ठता क्रम में तो मोदी के बाद राजनाथ सिंह का नंबर आता था. तीसरा. देखा जाये तो चाहे वो बीजेपी हो या फिर सरकार ऐसे ज्यादातर फैसले रहे होंगे जिनमें मोदी और शाह के बाद अगर पहली भूमिका किसी की रही होगी तो वो अरुण जेटली ही हैं.
सुब्रह्मण्यन स्वामी जैसे वित्त मंत्रालय के बड़े दावेदारों को दरकिनार करते हुए मोदी और साथ में शाह ने भी अरुण जेटली के नाम पर ही मुहर लगायी और पूरे पांच साल तक बनाये रखा. बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी तब तक कभी चुप नहीं बैठे जब तक अरुण जेटली वित्त मंत्री की कुर्सी पर बैठे रहे.
मोदी ने तेजी से सीखा तो सिखाया किसने?
जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी थे. प्रणब मुखर्जी बतौर यूपीए उम्मीदवार चुनाव जीत कर राष्ट्रपति बने थे. मोदी यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार को सत्ता से बेदखल कर प्रधानमंत्री बने. ऐसा लगता है जैसे मोदी के पहुंचने से पहले ही चुनौतियों के अंबार ने दिल्ली में डेरा डाल रखा था.
प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल कैसे बनाया जाता है, प्रधानमंत्री अगर इस बात की मिसाल बनते हैं तो इसमें भी बड़ा रोल अरुण जेटली का ही समझ में आता है. ये अरुण जेटली ही रहे जिन्होंने जल्दी ही मोदी और मुखर्जी को एक दूसरे को जल्दी समझने और साथ आने का आधार बनाया. इतना ही नहीं, नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी की राह के आखिरी कांटे अरुण जेटली ने ही दूर किया था.
ज्यादा दिन नहीं लगे और कांग्रेस नेता रहते बीजेपी पर कड़े प्रहार के लिए विख्यात प्रणब मुखर्जी तारीफ करते नहीं थक रहे थे - इस नाममुमकिन को भी अगर किसी ने मुमकिन बनाया तो क्रेडिट अरुण जेटली को भी दिया जाएगा. ये वाकया, 'मोदी है तो मुमकिन है' से काफी पहले का है.
प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करते हुए एक बार प्रणब मुखर्जी ने कहा था, 'मोदी के काम करने का अपना तरीका है. हमें इसके लिए उन्हें क्रेडिट देना चाहिए कि उन्होंने किस तरह से चीजों को जल्दी सीखा है. चरण सिंह से लेकर चंद्रशेखर तक प्रधानमंत्रियों को काफी कम वक्त काम करने का मौका मिला. इन लोगों के पास पार्लियामेंट का अच्छा-खासा एक्सपीरियंस था - लेकिन एक शख्स सीधे स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन से आता है और यहां आकर केंद्र सरकार का हेड बन जाता है. उसके बाद वो दूसरे देशों से रिश्तों और एक्सटर्नल इकोनॉमी में महारत हासिल करता है.' ये बात तब की है जब प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति थे. जिस तरह मोदी ने PM बनने के बाद जी-20 सम्मेलन में परफॉर्म किया, तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उसके भी कायल लगे.
मोदी की तारीफ में मुखर्जी की जो सबसे बड़ी टिप्पणी रही वो थी - 'मोदी चीजों को बहुत अच्छी तरह ऑब्जर्व करते हैं. मुझे उनकी वो बात अच्छी लगी, जब उन्होंने कहा कि चुनाव जीतने के लिए आपको बहुमत चाहिए होता है, लेकिन सरकार चलाने के सबकी सहमति होनी चाहिए.'
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