सुषमा से वाजपेयी का कद बड़ा जरूर है, पर BJP में कंट्रीब्यूशन 'अटल' है!
सुषमा स्वराज और अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक कद में तुलना का कोई मतलब नहीं बनता, लेकिन जब कभी भी बीजेपी में उनके योगदानों का जिक्र आएगा, नेता प्रतिपक्ष रहते उनके योददान और बेमिसाल रोल भुलाया नहीं जा सकेगा.
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सुषमा स्वराज भी पार्टीलाइन से इतर लोगों को ठीक वैसे ही याद आ रही हैं जैसे कुछ दिन पहले शीला दीक्षित को लोगों ने मिस किया है. संयोग से दोनों ही दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. सुषमा स्वराज जहां दिल्ली पहली मुख्यमंत्री रहीं, वहीं शीला दीक्षित लगातार 15 साल CM की चेयर पर बैठी रहीं. ये भी संयोग है कि दिल्ली ने अपने तीन मुख्यमंत्रियों को एक साल के भीतर खो दिया है. अक्टूबर, 2018 में मदनलाल खुराना का 82 साल की उम्र में निधन हो गया.
अटल-आडवाणी वाली भारतीय जनता पार्टी में सुषमा स्वराज लंबे अरसे तक अगली कतार की नेता रहीं - नेतृत्व परिवर्तन के बाद
वाजपेयी जैसी तो नहीं, लेकिन कम भी नहीं!
बीजेपी में राजनीतिक तौर पर सबसे बड़ा कद अब भी अटल बिहारी वाजपेयी का माना जाता है. ऐसे भी मौके देखे गये हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वाजपेयी जैसे स्टेस्टमैन के तौर पर खुद को पेश करने की कोशिश करते महसूस किया गया है.
एक वो भी दौर रहा जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बाद बीजेपी में किसी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जाता रहा तो पहला नाम सुषमा स्वराज का ही हुआ करता, लेकिन जब लालकृष्ण आडवाणी ही मार्गदर्शक मंडल भेज दिये गये तो सुषमा स्वराज के बारे में कौन कहे. फिर भी नये नेतृत्व में सुषमा स्वराज को नजरअंदाज करने का साहस कभी नहीं हुआ.
2014 में जब मोदी सरकार बनी तो सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री बनाया गया - लेकिन ज्यादातर वक्त ऐसा ही एहसास रहा कि दुनिया भर में पूरा मैदान तो मोदी लूट लेते हैं - और सुषमा स्वराज के हिस्से में बस ट्विटर बचता है जहां वो लोगों की मदद में सक्रिय रहती रहीं. मगर, सुषमा स्वराज ने ट्विटर को सरकारी मदद का ऐसा टूल बनाया कि सारे लाभार्थी अपना आंसू नहीं रोक पा रहे होंगे. सच पूछें तो सुषमा स्वराज की सक्रियता की बदौलत मोदी सरकार 1.0 में विदेश मंत्रालय ही सबसे पारदर्शी नजर आया. वरना, आम लोगों की कौन कहे केंद्र सरकार के ऐसे तमाम मंत्रालय रहे जहां मीडिया के लिए अघोषित पाबंदी लगी रही और ये अब तो और भी बढ़ गया है. निर्मला सीतारमण का वित्त मंत्रालय तो बजट के बाद काफी दिन तक इस मामले में सुर्खियों भी छाया रहा.
निश्चित तौर पर सुषमा स्वराज ने खराब सेहत की वजह से लोक सभा चुनाव न लड़ने की घोषणा खुद ही की थी, लेकिन मोदी सरकार 2.0 के शपथग्रहण का वो दृश्य शायद ही कभी किसी को भूले जिसमें वो अपनी ही पार्टी की सरकार बनने के समारोह में हंसते-हंसते दर्शक दीर्घा की सीट पर जाकर बैठ गयीं. देश को ये बात तभी मालूम हुई कि वो मोदी कैबिनेट का भी हिस्सा नहीं बन रही हैं.
1998 में बीजेपी ने सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन चुनावों में पार्टी की हार के चलते वो सत्ता में नहीं लौट पायीं. साल भर बाद, 1999 में भी सुषमा स्वराज को पार्टी ने ऐसी ही एक जिम्मेदारी थमा दी - बेल्लारी लोक सभा सीट से चुनाव लड़ने की. सोनिया गांधी पहली बार लोक सभा का चुनाव लड़ रही थीं, लिहाजा कांग्रेस ने उनके लिए दो सीटों का इंतजाम किया. तब भी शायद कांग्रेस को 2019 जैसा डर रहा होगा, जब राहुल गांधी अमेठी के साथ केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़े - वायनाड तो जीत गये लेकिन बीजेपी की स्मृति ईरानी से अमेठी में हार गये.
दिल्ली विधानसभा की ही तरह सुषमा स्वराज ने तब बेल्लारी में भी धुआंधार प्रचार किया. चुनाव की तैयारी भी ऐसी कि महीने भर में ही कन्नड़ सीख कर सुषमा स्वराज कन्नड़ में धाराप्रवाह भाषण देने लगीं. हालांकि, एक बार फिर सुषमा स्वराज को हार का ही मुंह देखना पड़ा. सोनिया गांधी दोनों सीटों से जीत गयीं.
2004 में एनडीए को हराकर यूपीए ने बहुमत हासिल कर लिया और सोनिया गांधी प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन गयीं. सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए सुषमा स्वराज ने बड़ा ही तगड़ा विरोध शुरू कर दिया. सरेआम ऐलान कर दिया कि अगर सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं तो सिर्फ श्वेत वस्त्र धारण करेंगी, अपना केश कटा लेंगी और जमीन पर सोएंगी. ये बड़ा ही कठिन प्रण रहा, हालांकि, सोनिया गांधी ने खुद ही प्रधानमंत्री पद ठुकरा दिया. बीजेपी नेता उमा भारती ने तो प्रायश्चित के तौर पर 1992 में अपनी सबसे प्रिय चीज केश कटा ही दिया था - और ममता बनर्जी ने तो पश्चिम बंगाल से लेफ्ट शासन के खात्मे तक बाल न बनाने का ही प्रण कर लिया था. जब ममता बनर्जी चुनाव जीतीं तो सबसे पहले केश श्रृंगार की ही रस्म हुई.
2004 में वाजपेयी सरकार के जाने के बाद बीजेपी के लालकृष्ण आडवाणी विपक्ष के नेता बने और 2009 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी रहे, लेकिन यूपीए ने सत्ता में वापसी कर ली और फिर पार्टी ने सुषमा स्वराज विपक्ष की नेता बनाया. ये वही दौर रहा जब सत्ता से बेदखल होने के पांच साल बाद बीजेपी संघर्ष कर रही थी. ऐसे में जब सुषमा स्वराज को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया और वो मोर्चे पर आ डटीं.
फिर यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की मुलाकातें नियमित तौर पर होने लगीं - और धीरे धीरे दोनों के रिश्ते अच्छे भी हो गया. निजी रिश्ते कितने भी अच्छे हों, राजनीति में, विशेष रूप से सार्वजनिक तौर पर जब मुद्दों की बात हो - उनकी कोई खास अहमियत नहीं रह जाती. सुषमा स्वराज ने कदम कदम पर इसका परिचय भी दिया.
सुषमा स्वराज 21 दिसंबर, 2009 से लेकर 19 मई 2014 तक लोक सभा में नेता, प्रतिपक्ष रहीं. यूपीए की मनमोहन सरकार के दौरान लोक सभा में सुषमा स्वराज और राज्य सभा में अरुण जेटली मोर्चा संभाले रहे. ऐसा शायद ही कोई मौका रहा हो जब इन दोनों नेताओं ने सरकार को नाकों चने चबाने के लिए मजबूर न किया हो. हालांकि, 11 जून 1996 को लोकसभा में सुषमा स्वराज का वो भाषण यादगार बन पड़ा जब वो बोलीं, 'आज से पहले सदन में एक दल की सरकार होती थी, विपक्ष बिखरा हुआ होता था. आज बिखरी सरकार है और एकजुट विपक्ष है.'
ये सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ही रहे जिन्होंने संसद के दोनों सदनों में बीजेपी को ताकतवर विपक्ष के रूप में पेश किया और ऐसा कोई अवसर नहीं आने दिया जब पार्टी को अप्रासंगिक समझने की कोई हिमाकत कर सके. सबसे बड़ी बात, ये सुषमा स्वराज और अरुण जेटली की काबिलियत, सूझबूझ और राजनीतिक कौशल ही रहे जो 2014 में बीजेपी के सत्ता तक पहुंचने का मजबूत आधार बने और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे.
देखा जाये तो बीजेपी के अब तक के बेहतरीन प्रदर्शन में नेताओं की तीन जोड़ियों का भरपूर योगदान रहा. साफ तौर पर तो अटल-आडवाणी की जोड़ी को बीजेपी को पहली बार केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए जाना जाता है और अब मोदी-शाह की जोड़ी को एनडीए की सत्ता में वापसी के साथ ही लगातार दूसरी पर सरकार बनाने के लिए जाना जा रहा है - लेकिन एक राजनीतिक भूल भी हो रही है. ये भूल है 2009 से 2014 के पीरियड में बीजेपी को प्रासंगिक बनाये रखने वाले नेताओं सुषमा स्वराज और अरुण जेटली की जोड़ी को खास तवज्जो न दिया जाना. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि 'अटल-आडवाणी' ने अगर BJP को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया और 'मोदी-शाह' ने तीसरी सरकार बनवाई - तो ये 'सुषमा-जेटली' की जोड़ी ही रही जिसने बीच में बीजेपी को जिंदा और पूरे वक्त प्रासंगिक बनाये रखा.
बड़ी ही छोटी रही अवकाश की अवधि
2018 में मध्य प्रदेश विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे. नवंबर में चुनाव प्रचार के दौरान सुषमा स्वराज ने इंदौर में अचानक घोषणा कर दी कि वो 2019 में लोक सभा का चुनाव नहीं लड़ने जा रही हैं. 2009 से 2019 तक सुषमा स्वराज मध्य प्रदेश के विदिशा से सांसद रहीं.
सुषमा स्वराज के इस ऐलान से बीजेपी से बाहर हर कोई हतप्रभ रहा, लेकिन एक शख्स ऐसा भी रहा जिसे सबसे ज्यादा इस बात से खुशी मिली - स्वराज कौशल. स्वराज कौशल, सुषमा स्वराज के पति हैं जो कभी साथ में वकालत करते थे और फिर दोनों की शादी हो गयी. स्वराज कौशल के नाम सबसे कम उम्र में राज्यपाल बनने का रिकॉर्ड भी है.
बीच सफर में ही छोड़ कर चली गयीं सुषमा स्वराज
सुषमा स्वराज के पति स्वराज कौशल की टिप्पणी बेहद खास रही, 'आपके इस फैसले के लिए शुक्रिया. मुझे वो वक्त याद आ गया, जब मिल्खा सिंह ने दौड़ना बंद कर दिया था. आपकी मैराथन पारी 1977 में शुरू हुई थी जिसे 41 साल हो चुके हैं. 1977 से अब तक आपने सभी चुनावों में हिस्सा लिया. हालांकि, दो बार 1991 और 2004 में पार्टी ने आपको चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं दी थी. आपने लोकसभा के 4 कार्यकाल, राज्यसभा के 3 कार्यकाल पूरे किये. तीन बार विधानसभा के लिए भी चुनी गईं.'
सुषमा स्वराज को लेकर स्वराज कौशल ने आखिर में बड़ी ही मार्मिक बात कही, 'जब आप 25 साल की थीं, तब से चुनाव लड़ रही हैं. मैडम, मैं पिछले 46 साल से आपके पीछे भाग रहा हूं. अब मैं 19 साल का नहीं रहा. अब मैं थक गया हूं. आपके इस फैसले के लिए धन्यवाद.'
अफसोस की बात यही रही कि सुषमा स्वराज और स्वराज कौशल के लिए अवकाशकालीन ये अवधि बहुत ही छोटी रही.
आखिरी बात, बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल में शिफ्ट होने के बाद भी सुषमा स्वराज को सक्रिय देखकर लालकृष्ण आडवाणी को काफी राहत मिलती होगी - लेकिन काल के क्रूर हाथों ने वो संबल भी छीन लिया. सुषमा स्वराज का चले जाना आडवाणी के लिए कितनी बड़ी क्षति है, ये सिर्फ वही जानते हैं और आप भी महसूस करना चाहते हों तो श्रद्धांजलि देते वक्त की वो तस्वीर देख सकते हैं.
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