जैसे भी मुमकिन हो नीतीश कुमार की भलाई अब जेपी बन जाने में ही है
देश में मोदी लहर आने से पहले जेपी आंदोलन (JP Movement) ही सत्ता परिवर्तन का मार्गदर्शक रहा है - और उसी आंदोलन से निकले नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के सामने भी ऐसी सूरत बनी है कि वो प्रधानमंत्री (Prime Minister) बनने का सपना छोड़ नया रास्ता अख्तियार कर लें.
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को हाल फिलहाल सुधाकर सिंह में भी केसीआर का ही अक्स नजर आ रहा होगा. तरीका भले ही अलग हो. एक खुलेआम जड़ें खोदने में जुटा है, तो एक मीठी छुरी से हलाल कर रहा है. ये बात अलग है कि दोनों में से कोई भी नीतीश कुमार को एक हद से आगे डैमेज भी नहीं कर सकता - क्योंकि दोनों में से कोई भी अकेले और अपने दम पर बहुत ज्यादा सक्षम नहीं है.
बात ये है कि सुधाकर सिंह का मतलब भी तो नाम भर ही नहीं है. आरजेडी नेता सुधाकर सिंह को ज्ञान पिता जगदानंद सिंह से मिल रहा है, वरद हस्त लालू यादव का है - और पीछे से खंभे की तरह तेजस्वी यादव खड़े हैं.
नीतीश कुमार के खिलाफ तमाम टिप्पणियों के लिए नोटिस जरूर मिला है, लेकिन जवाब भी तो उनको पूछ कर ही लिखना है. ये तो लालू यादव और नीतीश कुमार के स्वार्थपरक आपसी तालमेल पर निर्भर करता है कि नोटिस को कैसे नोटिस लिया जाता है.
केसीआर तो बाद में रंग दिखाना शुरू किये, पहली कुल्हाड़ी तो राहुल गांधी ने ही चलायी है. भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी को मिल रहा लाभ ही तो नीतीश कुमार के हिस्से की हानि है - और केसीआर तो सिर्फ नीतीश कुमार ही नहीं, राहुल गांधी के लिए भी उतने ही हानिकारक साबित हो रहे हैं. वैसे ये न्योता भी तो राहुल गांधी ने ही दिया है, मल्लिकार्जुन खड़गे को भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह का न्योता देने को मना करके.
सुधाकर सिंह से थोड़ी सी राहत मिली थी कि नीतीश सरकार के ही मंत्री चंद्रशेखर यादव का अपना मानस पाठ शुरू हो गया. चंद्रशेखर भी आरजेडी कोटे से ही महागठबंधन सरकार में शिक्षा मंत्री बनाये गये हैं. बीजेपी तो बीजेपी, चंद्रशेखर के बयान के विरोध में जेडीयू के नेता भी मंदिर में रामचरित मानस का पाठ करने लगे.
और फिर सुधाकर सिंह की ही तरह नीतीश कुमार को चंद्रशेखर के मामले में भी जवाब देना पड़ा. सुधाकर के लिए तो नीतीश कुमार ने पहले ही साफ कर दिया था कि वो आरजेडी का केस है, चंद्रशेखर को लेकर कहने लगे, 'ये बहुत गलत बात है... धार्मिक मामलों में बहस नहीं होनी चाहिये... अपने-अपने धर्मों को मानने के लिए सभी को अधिकार है.' जब चंद्रशेखर के माफी मांगने को लेकर मीडिया ने सवाल किया तो उसे भी नीतीश कुमार ने सुधाकर वाले मामले की तरह ही आरजेडी नेतृत्व के मत्थे मढ़ दिया.
हाल फिलहाल नीतीश कुमार के लिए सबसे अच्छी खबर देश की सबसे बड़ी अदालत की तरफ से ही आयी है. जातीय जनगणना के बिहार सरकार के कदम को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में तीन याचिकाएं दायर की गयी थीं. सुप्रीम कोर्ट ने तीनों ही याचिकाओं पर बात करने से इनकार कर दिया. बाद में मजबूरन याचिकाकर्ताओं को कदम पीछे खींचने पड़े.
जातीय जनगणना को लेकर सुप्रीम कोर्ट की एक छोटी सी टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण है - 'सर्वे रोक दिया गया तो सरकार कैसे तय करेगी कि आरक्षण कैसे प्रदान किया जाये?' मान कर चलना चाहिये कि सुप्रीम कोर्ट का ये रुख आगे भी नीतीश कुमार का पक्ष मजबूत करेगा.
ये जातीय जनगणना का ही मामला है जो नीतीश कुमार और लालू यादव को एक दूसरे के फिर से करीब आने का बहाना मिला है. ये जातीय जनगणना का ही मामला है जो नीतीश कुमार अपने साथ तेजस्वी यादव को लेकर बिहार के प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात किये थे. और केंद्र सरकार के इनकार के बाद बिहार में जातीय जनगणना के अपने वादे पर कायम रहे. हालांकि, तकनीकी तौर ये जातीय जनगणना नहीं बल्कि, तेजस्वी यादव ने भी हाल ही में कहा था - जातीय सर्वेक्षण है.
नीतीश कुमार पहले ही संकेत दे चुके हैं कि समाधान यात्रा के बाद वो फिर से अपने पुराने में मिशन में जुटेंगे. ये मिशन 2024 में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से बेदखल करने का है - और इसके लिए वो पूरे विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश भी पहले ही शुरू कर चुके हैं.
एनडीए छोड़ कर महागठबंधन में पहुंचते ही नीतीश कुमार ने अपना इरादा जाहिर कर दिया था. तभी से नीतीश कुमार को भी फिर से प्रधानमंत्री पद (Prime Minister) का दावेदार समझा जाने लगा था, लेकिन धीरे धीरे नीतीश कुमार को किनारे लगाने की कवायद भी शुरू हो गयी. अभी जो हाल हो रखा है, लगता तो ऐसा ही है नीतीश कुमार को भी समाधान यात्रा के बाद जेपी की तरह ही आंदोलन (JP Movement) शुरू कर देना चाहिये - क्योंकि अब सारे से रास्ते करीब करीब बंद नजर आ रहे हैं.
नीतीश कुमार निकले भी तो जेपी आंदोलन से ही हैं
नीतीश कुमार भी तो जेपी आंदोलन से ही निकले हैं - और राजनीति की काफी लंबी पारी खेल चुके जेडीयू नेता के लिए अब जेपी बनने की बारी भी आ गयी है. ऐसा भी नहीं कि नीतीश कुमार ऐसा काम करने वाले मौजूदा दौर के नेताओं में कोई पहले नेता होंगे. एनसीपी नेता शरद पवार और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा 2019 से ही करीब करीब ऐसी ही भूमिका में देखे जा रहे हैं - ये बात अलग है कि नीतीश कुमार राजनीतिक चालें चलने और दांवपेंचों के मामले बाकियों के मुकाबले बेहतर हैं.
"सर्वनाशे, समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पंडितः" - नीतीश कुमार के लिए महामंत्र अब यही है
नीतीश कुमार को विपक्षी खेमे के क्षेत्रीय नेताओं से पहले शरद पवार और देवगौड़ा के साथ साथ सोनिया गांधी को भी भरोसे में लेना होगा. भले ही कांग्रेस अब भी फिर से खड़ी हो पाने की सूरत में न हो. भले ही राहुल गांधी के दावे के बावजूद विपक्ष राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए राजी न हो - लेकिन अगर पूरी तरह मोह माया त्याग कर नीतीश कुमार मैदान में कूदे तो फायदा मिल सकता है.
अब ऐसा भी नहीं है कि नीतीश कुमार को भी जेपी आंदोलन चलाने के लिए सड़क पर उतरना ही होगा. क्योंकि नीतीश कुमार के सड़क पर उतरने से भी कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला है. राहुल गांधी सड़क पर उतर चुके हैं - और संसद जाने से पहले अभी सड़क पर ही चलते रहने का इशारा भी कर रहे हैं.
भारत जोड़ो यात्रा के समापन के बाद कांग्रेस का हाथ से हाथ जोड़ो अभियान शुरू होने जा रहा है. मतलब, चुनावों तक अपने प्रभाव की परवाह किये बगैर कांग्रेस नेता सड़क पर लड़ने की कोशिश कर रहे हैं. किस्मत भी लंबे समय तक नाराज नहीं रह सकती - और हिमाचल प्रदेश का रिजल्ट कांग्रेस के लिए बूस्टर डोज जैसा ही है.
नीतीश के लिए भी खतरनाक होगा सपने को मर जाने देना
जैसे राहुल गांधी ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भारत जोड़ो यात्रा के समापन का न्योता नहीं भेजा, केसीआर ने भी अपनी आमंत्रण सूची ऐसी बनायी कि नीतीश कुमार के लिए उसमें जगह ही नहीं बची. ये जरूर रहा कि जिन नेताओं को भी केसीआर ने बुलाया था वे पहुंचे भी और एक साथ मंच पर खड़े होकर बोले भी. ये नेता थे - अरविंद केजरीवाल के अलावा इसमें पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान, केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव शामिल थे.
नीतीश कुमार ने राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में जाने से मना कर दिया था. उनका कहना रहा कि वो यात्रा कांग्रेस का निजी कार्यक्रम है, सबको ऐसा करने का अधिकार है - और फिर वो खुद भी बिहार भर में अपनी समाधान यात्रा पर निकल पड़े.
लेकिन केसीआर की रैली का मामला थोड़ा अलग लगता है. रैली के न्योते को लेकर भी नीतीश कुमार का कहना है कि बुलाया गया होता तो भी नहीं जा पाते. सही भी है, समाधान यात्रा को बीच में छोड़ कर भला क्यों जाते?
केसीआर की रैली के अगले दिन नीतीश कुमार जब मीडिया के सामने आये तो पूछ लिया गया. बोले, 'मैं किसी और काम में व्यस्त था... और मुझे केसीआर की रैली के बारे में पता ही नहीं था.'
केसीआर की रैली के बारे में पता न होना तो एक अलग ही राजनीतिक बयान है. लेकिन तभी नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से साफ भी कर दिया कि उनको बुलाया भी नहीं गया था. बोले, 'जिन लोगों को रैली में में बुलाया गया होगा, वो वहां गये होंगे... मुझे बुलाते तो भी नहीं जा पाता.'
और फिर नीतीश कुमार ने एक सपने की बात की. नीतीश कुमार अगर सपने की बात करें तो वो तो किसी को भी प्रधानमंत्री की कुर्सी का ही सपना समझ में आएगा. लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता. और नीतीश कुमार की राजनीति को देखते हुए तो कभी कभी ये सब समझ पाना भी आसान नहीं होता.
जब सपने की बात होती है तो सबसे पहले दिमाग में दो ही नाम आते हैं. समाज में अवतार सिंह संधू पाश और राजनीति के क्षेत्र में मार्टिन लूथर किंग जूनियर का. मार्टिन का वो ऐतिहासिक भाषण, 'आय हैव अ ड्रीम' यानी मेरा एक सपना है, राजनीति में लोग पाश की कविता की तरह ही मन में संजोये रखते हैं - लेकिन हर कोई ऐसा किस्मतवाला भी नहीं होता जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा की तरह कामयाबी भी मिले ही.
दोनों के नजरिये में एक बात कॉमन है और वो है उम्मीद. सपना देखना और सपने के लिए जीना. बल्कि सपने के पूरा होने तक जीना. जीने से मतलब भी सपने को हकीकत में बदलने की जीजीविषा से है.
पटना में पत्रकारों से बातचीत में नीतीश कुमार का कहना था, 'मैं कहता रहता हूं... मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिये... मेरा केवल एक ही सपना है... विपक्षी नेताओं को एकजुट होकर आगे बढ़ते हुए देखना... इससे देश को फायदा होगा... मेरी कोई व्यक्तिगत ख्वाहिश नहीं है.’
अगर वास्तव में नीतीश कुमार ऐसा ही सोचते हैं तो आगे कल्याण मार्ग ही है. हालांकि, कल्याण मार्ग को अभी 'लोक कल्याण मार्ग' समझना ठीक नहीं होगा. वहां पर पहले से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जमे हुए हैं. असल में नीतीश कुमार के सपने के पूरे होने में प्रधानमंत्री मोदी ही दीवार बन कर खड़े हैं. शुरू से लेकर अभी तक. शायद आगे भी. 2013 में एनडीए से बगावत कर देने वाले नीतीश को 2017 में आखिरकार मोदी की शरण में आना पड़ा था, लेकिन एक बार फिर वो जेपी आंदोलन के ही अपने साथी लालू यादव से हाथ मिला कर चैलेंज करने के लिए मैदान में उतर चुके हैं.
पंजाबी कवि पाश की बात नीतीश कुमार के लिए भी बाकियों की ही तरह है. नीतीश कुमार को भी अपने सपने को मरने नहीं देना चाहिये. हां, चाहें तो थोड़ा मॉडिफाई कर सकते हैं. मॉडिफिकेशन से आशय भी कस्टोमाइज कर लेने से है. जो नीतीश कुमार को सूट करता हो.
जैसे प्रणब मुखर्जी ताउम्र प्रधानमंत्री नहीं बन पाये, नीतीश कुमार को भी अब संतोष कर लेना चाहिये. ये नीतीश कुमार ने ही एक बार कहा था कि कोई किस्मतवाला ही प्रधानमंत्री बन पाता है. ये तभी की बात है जब नीतीश कुमार 2015 का चुनाव मोदी-शाह को शिकस्त देकर लालू की मदद से जीते थे - और तब प्रधानमंत्री मोदी को लेकर किस्मतवाला कहा जाता था.
लेकिन ऐसा भी नहीं कि नीतीश कुमार के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं. अगर वो लग जायें तो भी मोदी से बदला ले सकते हैं. कभी न कभी वो दिन तो आएगा ही. लेकिन ये करने के लिए उनको जेपी बनना होगा - और अगर अपने राजनीतिक अनुभव का फायदा उठाने में आखिर तक सफल रहे तो राष्ट्रपति भवन से प्रणब मुखर्जी की तरह रिटायर भी हो सकते हैं.
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