बिहार में एक साथ आए दुश्मन नंबर वन, भाजपा के लिए चुनौती बढ़ी!
नीतीश और उपेंद्र दोनों को ही एक-दूसरे की जरूरत है. बिहार में कुशवाहा समुदाय के मतदाताओं की संख्या करीब नौ फीसदी है. इन वोटों के नीतीश के साथ आ जाने पर भाजपा और आरजेडी दोनों को ही मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से अपना कद भाजपा के सामने बढ़ाना चाहते हैं.
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कई दशकों से बिहार की राजनीति अनवरत रूप से जातिगत समीकरणों पर ही चलती चली आ रही है. जो इन समीकरणों को जितना अधिक साध सका है, सत्ता की कुर्सी पर उसका अधिकार उतना ही प्रबल होता है. बिहार की राजनीति में जनता दल (JDU) के छोटे भाई की भूमिका निभाने वाली भाजपा, 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद बड़े भाई की भूमिका में आ चुकी है. मुख्यमंत्री के पद पर भले नीतीश कुमार काबिज हों, लेकिन, जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है. यही एक वजह है कि कुछ समय पहले तक नीतीश कुमार के विरोधियों में शामिल रहे दुश्मन नंबर वन राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP) के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा अब गलबहियां करते नजर आ रहे हैं.
'भरत मिलाप' से सधेगा 'लव-कुश समीकरण'
नीतीश कुमार और जेडीयू के साथ लंबे समय तक राजनीतिक दुश्मनी निभाने वाले उपेंद्र कुशवाहा के इस 'भरत मिलाप' को बिहार की राजनीति में 'लव-कुश' समीकरण कहा जाता है. लव-कुश समीकरण (कुर्मी और कुशवाहा का जातिगत समीकरण) के सहारे अपने वोटबैंक को साधने के लिए नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा दोनों ने मिलकर ये दांव खेला है. बिहार के डीएनए में अंदर तक घुस चुकी जाति की राजनीति के चलते दोनों नेताओं का एक साथ आना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनता दिख रहा है. बिहार की करीब 30 विधानसभा सीटों पर लव-कुश समीकरण सीधे तौर पर बड़ा उलटफेर करने की क्षमता रखता है.
भाजपा के 'पर' कतरने की अग्रिम तैयारी
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. भाजपा ने 74 और जेडीयू ने 43 सीटों पर कब्जा जमाया था. भाजपा की बड़ी और जेडीयू की छोटी भूमिका में बस इन्हीं 30 सीटों का अंतर है. कहा जा सकता है कि लव-कुश समीकरण के सहारे नीतीश कुमार ने बिहार में भाजपा के 'पर' कतरने की कोशिश की है. यह समीकरण राष्ट्रीय जनता दल के लिए भी खतरे की घंटी है. उपेंद्र कुशवाहा का जेडीयू में जितना कद बढ़ा, उतना ही नीतीश कुमार को फायदा हुआ है. 2005 और 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू का प्रदर्शन इस बात का गवाह रहा है.
नीतीश और उपेंद्र दोनों को ही एक-दूसरे की जरूरत है.
भाजपा और आरजेडी पर पड़ेगा असर
नीतीश और उपेंद्र दोनों को ही एक-दूसरे की जरूरत है. बिहार में कुशवाहा समुदाय के मतदाताओं की संख्या करीब नौ फीसदी है. इन वोटों के नीतीश के साथ आ जाने पर भाजपा और आरजेडी दोनों को ही मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से अपना कद भाजपा के सामने बढ़ाना चाहते हैं. जिससे उसके ठीक अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में जेडीयू को इस बार के जैसे हालातों का सामना न करना पड़े. उदाहरण के तौर पर भाजपा ने बिहार में मंत्रिमंडल विस्तार को लंबे समय तक टाल रखा था. वहीं, करीब दो महीने पहले ही अरूणाचल प्रदेश में भाजपा ने जेडीयू विधायकों को अपने खेमे में शामिल कर नीतीश कुमार को बड़ा झटका दिया था.
कुशवाहा के पास भी नहीं बचा था कोई विकल्प
नीतीश कुमार के साथ जुड़ने के अलावा उपेंद्र कुशवाहा के पास अब कोई खास राजनीतिक विकल्प बचे भी नहीं थे. इसे उनके राजनीतिक करियर से समझा जा सकता है. कुशवाहा साल 2000 में पहली बार समता पार्टी से विधायक बने और 2004 में नेता प्रतिपक्ष बने. 2005 में नीतीश कुमार की जीत में अहम भूमिका निभाई. हालांकि, पार्टी में घटते कद की वजह से अलग होकर एनसीपी में शामिल हो गए. 2009 में फिर से जेडीयू में वापसी की और राज्यसभा गए. 2013 में उन्होंने फिर से नीतीश के साथ अपने रास्ते जुदा कर लिए. 2013 में कुशवाहा ने अपनी खुद की पार्टी आरएलएसपी बनाई और 2014 में एनडीए में शामिल हो गए.
लोकसभा चुनाव 2014 में एनडीए से मिली तीनों सीटों पर जीत दर्ज की. मोदी सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री रहे. वहीं, 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में 23 सीटों में से केवल दो पर जीत हासिल कर सके. एनडीए में हाशिए पर जाने के बाद 2018 में उन्होंने केंद्रीय मंत्री पद छोड़ दिया. 2019 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन में शामिल हुए, लेकिन दोनों सीटें हार गए. 2020 में उन्होंने नया गठबंधन बनाया, लेकिन यहां भी हार मिली. पार्टी में टूट के आसार बनने लगे. इस स्थिति में जेडीयू में विलय के अलावा उपेंद्र कुशवाहा के पास कोई अन्य विकल्प नहीं नजर आ रहा था. विलय से ठीक पहले ही बिहार के कार्यकारी अध्यक्ष समेत कई नेताओं ने आरजेडी का दामन थाम लिया था.
उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश कुमार से अलग होकर और एनडीए में रहते हुए उनका विरोध कभी सफलता नहीं दिला सका. इसका असर बिहार की राजनीति में नीतीश और उपेंद्र दोनों पर ही पड़ा. इस स्थिति में कहा जा सकता है कि कुशवाहा के पास भले ही विकल्प खत्म हो गए हों, लेकिन वो अब नीतीश की भी जरूरत बन गए हैं. फिलहाल इस जोड़ी के वापस आने से बिहार की राजनीति में नीतीश की सियासी हैसियत का मजबूत होना तय माना जा रहा है. हालांकि, उन्हें अपनी यह हैसियत दिखाने के लिए थोड़ा लंबा इंतजार करना होगा.
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