आज अहमद पटेल को भी परिचय मिल गया
अब कांग्रेस के आलाकमान को सोचना होगा कि आपके "थिंक टैंक" को बचाने में आपका क्या-क्या दांव पर नहीं लगा. पर इस मुल्क को अहमद पटेल की जीत नहीं चाहिए एक मजबूत विपक्ष चाहिए.
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अहमद पटेल परिचय बन गए. कल तक जिन्हें बस मुठ्ठी भर लोग जानते थे आज उन्हें देश जान गया. चलिए, सोनिया गांधी का राजनैतिक परिचय कराने वाले अहमद पटेल को आज पहचान मिल गई.
'इंदिरा की मौत ने भारत बुलाया और राजीव की मौत ने वापस जाने नहीं दिया'
एक ख़बर आती है.. राजीव गांधी नहीं रहे...ख़बर बहुत से सीनों को छलनी कर गई. देश रो रहा था और दिल्ली के बंद कमरे मे एक औरत जो हिन्दुस्तान राजीव गांधी की पत्नी बनकर इटली से आई थी, इस खबर के बाद वो राजीव की विधवा बनकर देश के आगे आई. सोनिया सब कुछ छोड़कर अपने बच्चों के साथ वापस लौटना चाहती थीं क्योंकि यह सच था कि राजनीति में उनको जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, और जो लोग ये सोचते हैं कि सोनिया गांधी सत्ता के लिए रूकीं मेरी नजर मे वो बेहद झूठे हैं.
पर रूदन की गहरी खामोशी के बाद एक दिन, एक बड़ा हॉल सजता है और चैनल्स के माइक्स का ढेर सामने एक मेज पर मेले की तरह लग जाता है, और एक खाली कुर्सी...अचानक से एक धुंधली सी तस्वीर साफ होती चली आ रही थी वो थी राजीव की विधवा, इंदिरा की बहू ‘सोनिया गांधी’. भारतीय राजनीति मे एक संबोधन जुड़ा ‘मैं राजीव की विधवा’.
और जो शख्स उनका परिचय कराने के लिए आया था वो थे अहमद पटेल.
आज अहमद पटेल को भी परिचय मिल गया
सोनिया गांधी के आसपास तस्वीरों मे दिखने वाला एक शख्स, अक्सर खास मीटिंग्स में पास बैठने वाला एक सामान्य सी कदकाठी का आदमी, धीमी आवाज मे कम बोलने वाला और सारे अहम निर्णय लेने वाला वो शख्स अहमद पटेल है. जिसको अब एक एक आदमी जानता है, जो पहले दस जनपथ की चारदीवारी में विचरण करता था. सत्ता के सभी ताकतवर लोग, खास चेहरे अहमद भाई के नाम से इन्हें बखूबी जानते हैं, यह कांग्रेस के थिंक टैंक हैं, मगर आज इन्हें ‘आम’ आदमी भी जान गया. यानी राहुल का ‘मैंगो मैन’.
अहमद पटेल और कांग्रेस एक नाम हैं, एक शख्स है और दूसरी पार्टी, अन्तर बस इतना भर है
चलिए अहमद पटेल को कुछ परिचय तो मिला. वरना जिसके नाम से 10 जनपथ की दीवारें और दरारें दोनों बखूबी वाकिफ़ थीं आज उसको भारत में परिचय मिल ही गया. मगर ये पल जश्न का नहीं मंथन का है, उसको पटाखों के शोर में नहीं भूलना चाहिए. यह वो कांग्रेस पार्टी है जिसने इस देश पर लम्बे समय तक हुकूमत की और आज राज्य सभा की एक सीट के लिए पूरी रात ऐड़ी-चोटी का दम लगा दिया. शायद जश्न के गुरुर में ये बात गले से नीचे नहीं उतरेगी साहेब. पर आत्ममंथन जरूर कीजिएगा कि ‘इस जीत के मायने क्या हैं ?
लोकतंत्र की जीत है ? क्या जनता ने वोट किया है ?
कमाल है, एक अहमद पटेल की जीत लोकतंत्र की जीत और अमित शाह की हार तानाशाही की हार कैसे हो सकती है. यह कौन तय करता है, एक बात तो साफ है इस लड़ाई में कांग्रेस ने अपनी बोई गंदगी काटी. शायद अहसास हुआ होगा इस बात का, जब आपका खेल कोई और आपके नियमों से मैदान मे खेलता है, तो कैसा लगता है ?
अहमद पटेल को इस बात का एहसास जरूर हुआ होगा जब कोई आपकी राहों में कांटे बोता है तो कैसा लगता है, याद है आपको, आपने किस वक्त, किस तरह से गुजरात मे क्या किया था साहेब !! चलिए आज आपके पैर फटे तो दर्द हुआ मगर जब दूसरों के पैर घायल किए तब तकलीफ शायद नहीं हुई होगी.
पर नांव डूब गई और आप किनारे लग गए, मुबारक हो. मैं यही कहूंगी आप लोकतंत्र को परिभाषित मत कीजिए, वरना जनता अच्छे से परिभाषित करती है.
‘ये वक्त एक मरे हुए विपक्ष की तेरहवीं का नहीं, एक जिंदा होते हुए विपक्ष के जन्मदिन का है.’
अब सोचना होगा कांग्रेस के आलाकमान को कि आपके "थिंक टैंक" को बचाने में आपका क्या-क्या दांव पर नहीं लगा. पर इस मुल्क को अहमद पटेल की जीत नहीं चाहिए एक मजबूत विपक्ष चाहिए. आपने एक अहमद पटेल को तो बचा लिया, हो सके तो कांग्रेस को भी बचा लीजिए. पार्टी रहेगी तो ऐसे बहुत पटेल रहेंगे, अगर पार्टी नहीं रहेगी तो ऐसे "पटेलाई" किस काम की साहेब.
एक मजबूत सरकार के लिए एक मजबूत विपक्ष होना ही चाहिए, जो न आप लालू प्रसाद यादव बनकर दे सकते हैं और न केजरीवाल बनकर और वो आप अपने दौर की ‘जनता पार्टी’ बनकर दे सकते हैं. और यह समय बीजेपी के लिए भी सोचने का है कि वो सहानुभूति तंत्र तैयार कर रही है जो उनके खिलाफ है. और यहां भी यही बात लागू है..जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे.
संदेश सियासत पर भारी पड़ता है. ये जीत दूसरों के लिए नहीं खुद आपके लिए एक उम्मीद है, इसको मत मरने दीजिए. मगर एक सवाल खुद से जरूर पूछना, कि अगर अहमद पटेल की जगह कोई और होता तो क्या आप इतनी ताकत लगाते ? इसका जवाब आपकी आज की जीत है और आपकी कल की नीतियों की हार है !!!
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