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Updated: 13 अगस्त, 2016 05:18 PM
अमित@amitbharteey
अमित@amitbharteey
 
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प्रिय फैसल साहब,

कश्मीर मसले पर जब मैंने इंडियन एक्सप्रेस में आपका लेख पढ़ा तो मुझे दो बातें सबसे अच्छी लगीं. एक, ये कि एक सरकारी नौकर (कार्यपालक) होने के बाद भी आपको जो सही लगता है उसे लिखना उचित समझा, वरना सरकारी अधिकारी/कर्मचारी इन सब मसलों में चुप ही रहते हैं और दूसरी बात कि आपने उसमें अशोक की लोगों से संवाद करने की नीति का जिक्र किया. दरअसल, सच कहूं तो इसी 'दूसरी' बात ने मुझे ये पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया.

बहुत से लोग होते हैं जिनकी राय इतिहास को लेकर बहुत अच्छी नहीं रहती. ये लोग, एक विषय के तौर पर इतिहास को महज़ घटनाओं का संकलन मानते हैं, जिसका वर्तमान में कोई उपयोग नहीं होता. लेकिन आपके जैसा ही (इतिहास की महत्त्वता को लेकर) मेरा भी मानना है. इतिहास महज़ घटनाओं का संकलन न होकर यह वर्तमान और भविष्य के बीच एक नियमित कड़ी है जिससे सबक लेकर लोग, समाज और इसकी सरकारों को वर्तमान और भविष्य की रूपरेखा बनानी चाहिए.

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 1989 से सुलग रहा है कश्मीर

खैर... अब चूंकि आपने लेख में अशोक महान द्वारा शिलालेखों से आमजन से संवाद का उदाहरण देकर ये कहने का प्रयास किया कि कश्मीर में भी इसी नीति का अनुसरण होना चाहिए. मैं यहीं से अपनी बात शुरू करता हूं. आपकी तरह मैं भी मानता हूं कि किसी भी देश की सरकारों द्वारा अपने ही नागरिकों पर गोली चलाने का कभी समर्थन नहीं दिया जा सकता. बातचीत ही सर्वश्रेष्ठ और अंतिम विकल्प होना चाहिए. अवाम के दिल इसी से जीते जाते हैं. अशोक की 'धम्म विजय' की नीति भी तो यही थी.

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लेकिन उसी इतिहास से, उसी अशोक महान से सबक सीखते हुए मैं एक बात का और समर्थन करता हूं. वह यह कि कोई भी साम्राज्य/देश अपने आपको तोड़ने वालों को छूट नहीं देता. अशोक ने भी नहीं दी थी. उसके साम्राज्य में पड़ने वाली कुछ 'उदंड' जातियों के लिए कठोर दंड की व्यवस्था भी उन्हीं शिलालेखों में दर्ज़ है जिनमें अशोक ने अधिकारियों को प्रजा से संवाद करने के निर्देश दिए हैं.

फिर आपने जन-संवाद के एक और बेहतरीन उदाहरण मुग़ल कालीन दीवान-ए-आम का ज़िक्र किया. यहाँ दोहराने की जरूरत नहीं कि मैं भी इससे इत्तेफ़ाक़ रखता हूं. लेकिन एक तथ्य पर गौर कीजिए, इतिहास में जन-संवाद द्वारा लोगों की समस्या सुनने, उनकी नाराजगी दूर करने के इन उदाहरणों में कभी भी उन लोगों को छूट नहीं दी गई जो 'साम्राज्य' के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा चुके हों. अशोक ने भी नहीं दी थी, मुगल काल में भी किसी को नहीं दी गई और न ही वर्तमान राष्ट्र/राज्य किसी को दे सकते हैं.

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अब मैं सीधे मीडिया पर आपके आरोपों पर आऊंगा.

1989 से, जब से कश्मीर सुलग रहा है, तब किस मीडिया ने कश्मीरियों को भड़काया था? तब तो दूरदर्शन के अलावा कोई नहीं था? (1987 में हुई चुनाव धांधली का कारण दिया जाए तो महोदय उस दौर में कश्मीर अकेला नहीं था जहां चुनाव में धांधली हुई हो). आज जिन न्यूज़ एंकर्स को भड़काऊ करार देकर उनपर 'भक्त' या 'चमचा' होने का ठप्पा लगाया जाता है, 1989 में तो इनमें से अधिकतर किसी स्कूल-कॉलेज में रहे होंगे. अगर ये जर्नलिज्म नहीं है तो क्या द-हिंदू और बीबीसी की 'परसेप्शन मेकिंग' को 'रियल जर्नलिज्म' माना जाए? मीडिया की निष्पक्षता या संतुलन की बहस अंतहीन है. न्यूट्रल कुछ नहीं होता. अगर कुछ न्यूट्रल होता है तो वो इंसान नहीं मशीन हैं. न ये आप न्यूट्रल हैं, न मैं हूं और ही ये मीडिया है.

अब बात नाराजगी की...

कश्मीर के लोग आख़िर किससे नाराज़ हैं? भारत सरकार से? इसकी सेना से? इसकी व्यवस्था से? इसके संविधान से? भारत के हिंदू बाहुल्य स्वरुप से? दरअसल ये, इन सभी से नाराज़ हैं. और ये लोग चाहते क्या हैं? आज़ादी? जवाब खोजने की कोशिश कीजिए. बहुत दूर मत जाइए. बुरहान के पिता खुलेआम कहते हैं कि उनका बेटा 'इस्लाम की रक्षा' में शहीद हुआ है और लोगों का हुज़ूम बुरहान के पीछे चल पड़ता है.

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बुरहान के जनाज़े में सैंकड़ों नहीं, हज़ारों की संख्या में लोग शामिल हुए और उनमें एक नहीं बल्कि दर्जनों की संख्या में पाकिस्तानी झंडे लहराए जा रहे थे. समय-समय पर पाकिस्तानी प्रतीकों का इस्तेमाल एक परंपरा बन गया है. तो क्या ये वास्तव आज़ादी चाहते हैं?

जनाज़े में शामिल इस भीड़ ने कश्मीरी पंडितों के खाली पड़े घरों को भी नहीं छोड़ा. खंडहरों पर भी हमले किए गए. और ये जानकारी मुझे ज़ी न्यूज़, आज तक, टाइम्स नाउ या न्यूज़ एक्स जैसे किसी चैनल ने बल्कि उस इंडियन एक्सप्रेस ने दी है जिसे आप 'बैलेंस्ड' मानते हैं. आख़िर खाली घर किसका प्रतिनिधित्व करते हैं?

इस सब अशांति के बीच अभी हाल ही में एक 'निष्पक्ष' पत्रकार ने कश्मीर का दौरा किया. ग्राउंड रिपोर्टिंग में उन लोगों से बातें की गईं जिनके 18-19 साल के बच्चे 'भारत के खिलाफ' युद्ध में निकल पड़े हैं. और आश्चर्य देखिए कि उनके माता-पिता अपने ऐसे 'वीर' बच्चों की तरफदारी कर रहे हैं, उन्हें जरा भी हिचक नहीं कि वे क्या कह रहे हैं!

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 बच्चे भी 'भारत के खिलाफ' युद्ध में निकल पड़े हैं

आपको नहीं लगता कि कश्मीर में ये अशांति 'मज़हब' और उसके 'जिहाद' की प्रेरणा का परिणाम है? भारत सरकार को ऐसे 'एस्पीरेशनल यूथस्' (Aspirational youths) से बात करनी चाहिए जो मज़हब की रक्षा की ख़ातिर सीमापार प्रायोजित आतंकवादियों से जा मिले हैं?

तो महोदय, ये कैसी नफ़रत? कैसी 'कश्मीरियत' है?

सेना के शासन किसी भी लोकतंत्र में सहन नहीं किया जाता और इसमें कोई नहीं रहना चाहता इसीलिए विरोध सेना तक हो तो समझ में आता है लेकिन यहाँ तो अपने सिवा किसी और का अस्तित्व स्वीकार ही नहीं.

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इन सब में अगर एक धागा है जो इन सब को एक सूत्र में पिरोता है तो वह 'मज़हब' है. फिर ये बेरोजगारी, नौजवानों को अवसरों की कमी, गरीबी, अशिक्षा... जैसे तर्क इस स्थिति को सिद्ध करने के लिए पूरी तरह बहियात लगते हैं. बहुत हुआ तो ये तर्क महज़ 'कैटालिस्ट' (उत्प्रेरक) की भूमिका निभाने की क्षमता रखते हैं बस. इससे ज्यादा और कुछ नहीं. क्रिया-प्रतिक्रिया (अशांति) के तत्व तो कुछ और ही हैं.

बार-बार यूथ एस्पिरेशन की बात की जाती है? आखिर क्या एस्पिरेशन है? हर समाज में बेरोजगारी-अशिक्षा-गरीबी जैसी कमियां होतीं हैं लेकिन इन कमियों के आधार पर 'आज़ादी' नहीं मांगी जाती. पिछले साथ कश्मीर में बाढ़ आई तो उसके बाद भारत सरकार द्वारा जिस तेजी से, जिस स्तर की सहायता मुहैया कराई गई, क्या वो 'इंसानियत' की परिभाषा में नहीं आती? भारत सरकार द्वारा दी गई इस सहायता को मैं कतई अहसान नहीं मानता बल्कि एक राष्ट्र-राज्य के अपने नागरिकों के प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं और भारत सरकार ने भी इन्हीं कर्तव्यों का पालन ही किया था. क्या ये 'इंसानियत' इतनी कमजोर थी कि इस पर टीवी चैनलों का 'शोर' हावी हो गया.

किसी भी देश को अपने नागरिकों को मारने अच्छा नहीं लगता लेकिन कोई देश अपने आपको तोड़ने की इजाज़त भी किसी को, किसी भी कीमत पर नहीं दे सकता.अंत में फैसल साहब, आपका छोटा सा बेटा अगर गोलियों की आवाज़ में सो नहीं पाता तो एक पिता के रूप में आपकी उस जद्दोजेहद को शायद मैं न समझ पाऊं लेकिन विश्वास मानिए कश्मीर अशांति में जिस तरह आपने मीडिया के एक सेक्शन को जिम्मेदार ठहराया है, वो अतिश्योक्ति है.

शब्द विराम!

धन्यवाद

आपका,'इंडिया' से एक भाई

लेखक

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