पाकिस्तान को इस बार मिलने वाला है 'ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर'
पाकिस्तान में पूरा चुनावी नजारा बदला बदला है. चुनाव आयोग तो इतना सख्त हो चला है कि बूथ के अंदर भी सेना को तैनात कर रहा है. चुनावी माहौल तो ऐसा है जैसे पाकिस्तान में पहली बार डेमोक्रेटिक फ्लेवर वाली फौजी हुकूमत आने वाली है.
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पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब में उन्हें 'ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' रूप में प्रोजेक्ट किया है. कांग्रेस के विरोधियों ने तो मनमोहन सिंह के शासन को रिमोट कंट्रोल वाली सरकार के खिताब से ही नवाज रखा था.
पड़ोसी पाकिस्तान में इन दिनों चुनावी माहौल शबाब पर है जहां 25 जुलाई को वोटिंग होने वाली है. पाकिस्तान में अब तक यही देखने को मिला है कि राजनीतिक नेतृत्व पर फौज हावी रही है. दो वाकये तो फौजी तख्तापलट के ही दर्ज हो चुके हैं. हाल के नवाज शरीफ शासन को लेकर माना जा रहा था कि सैन्य दखल थोड़ा कम रहा, लेकिन ये सब बहुत ही कम दिनों के लिए. यही वजह रही कि फौज की आंखों की किरकिरी बन चुके शरीफ को कानूनी पचड़े में लपेट कर किराने लगा दिया गया.
पाकिस्तान में मौजूदा चुनाव प्रक्रिया वैसे तो लोकतांत्रिक तरीके से ही हो रही है, लेकिन उसके पीछे भी फौजी दिमाग ही काम कर रहा है - प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठेगा तो वही जो जनता द्वारा चुना जाएगा, लेकिन उसका रिमोट कंट्रोल फौज के हाथ में ही होगा ये तय समझना चाहिये.
जम्हूरियत के अच्छे दिन या फौजी हुकूमत फिर से
जम्हूरियत के पैरोकारों को बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है. अगर वे ये सोचते हैं कि पाकिस्तान में लोकतंत्र के अच्छे दिन आने वाले हैं तो यही समझा जाना चाहिये कि न सिर्फ वे मुगालते में हैं, बल्कि उन्होंने अपनी आंख और कान पर काली पट्टी बांध रखी है.
थोड़ी देर के लिए लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ की दोनों पारी को अलग रख देते हैं.
जम्हूरियत के अच्छे दिन आएंगे या फिर से बुरे...
पहले अब तक के फौजी हुकूमत को संक्षेप में समझने की कोशिश कीजिये. पाकिस्तान में पहला सैन्य तख्तापलट किया जनरल जिया-उल-हक ने. जिया ने भुट्टो को पहले जेल में डाला फिर फांसी पर चढ़ा दी और सत्ता पर काबिज हो गये. दूसरी बार, परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को जेल में तो डाला लेकिन फांसी नहीं दी. मुशर्रफ ने दुनिया की बेरुखी का अंदाजा पहले ही लगा लिया इसलिए चुनाव कराने का कोरम पूरा किया और चुने हुए राष्ट्रपति बन गये. वक्त ने इतने करवट बदले कि मुशर्रफ कहीं के नहीं रहे और मुल्क से बाहर इधर उधर वक्त काट रहे हैं. ऐसा भी नहीं कि वो चुप मार कर बैठे हुए हैं - कोशिशें उन्होंने बहुत की लेकिन नाकाम रहे.
कहने को तो पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव हो रहे हैं, लेकिन क्या वो वाकई स्वतंत्र और निष्पक्ष है? कहना मुश्किल है. लगता तो ऐसा है जैसे फौजी हुक्मरानों की निगरानी में सैनिक शासन पर लोकतंत्र की चाशनी चढ़ाने की कवायद चल रही हो.
फौज की सियासी चाल
मौजूदा फौजी हुकूमत पुराने हक्मरानों से ज्यादा स्मार्ट लगती है. सैन्य शासन की स्थिति में दुनिया एक तरीके से अलोकतांत्रिक शासन के खिलाफ हो जाती है. आगे से ऐसा न हो इसलिए पाक फौज ने इस बार खूब सोच समझ कर सियासी चाल चली है. आहिस्ते आहिस्ते. एक एक गोटी फिट करते हुए.
सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट में ऐसे जजों की नियुक्ति हुई जो फौज के मन मुताबिक फैसले दें. ये थ्योरी गलत नहीं है इसकी पुष्टि के लिए नवाज शरीफ के ट्रायल पर गौर कीजिए. ये सच है कि पनामा पेपर्स में उनके नाम आये. ठीक वैसे ही जैसे दुनिया के अन्य मुल्कों के लोगों के नामों के खुलासे हुए. प्रधानमंत्री होने के नाते नवाज शरीफ को कोई छूट भी नहीं मिलनी चाहिये - लेकिन फेयर ट्रायल के हक से उन्हें कैसे वंचित किया जा सकता है?
खबरें यही बताती हैं कि सुप्रीम कोर्ट में प्रॉसीक्यूशन ने तो अपने इल्जाम तरतीबवार रखे, लेकिन नवाज शरीफ के वकीलों को अपनी बात कहने का मौका तक न दिया गया. जब शरीफ के वकीलों ने थोड़ी जुर्रत की तो उन्हें कुछ इस तरह धमकाया गया कि ज्यादा बोले तो अंजाम भुगतने के लिए भी तैयार रहें.
चुनाव आयोग की सख्ती
पाकिस्तानी चुनाव आयोग काफी सख्ती दिखा रहा है. आयोग ने पहली बार पोलिंग बूथ के अंदर भी सेना को तैनात करने का फैसला किया है. अब तक ये सब सिर्फ अतिसंवेदनशील पोलिंग बूथों तक ही सीमित रहा.
आयोग इस बार चुनाव के काम में लगे अधिकारियों और कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर भी कोई रिस्क नहीं ले रहा है. पिछले चुनाव में बलूचिस्तान में हुए हमले में कई अधिकारी मारे गये थे.
इतना ही नहीं, सेना, रेंजर और पुलिस अफसरों को स्पेशल ट्रेनिंग सेशन से गुजरना पड़ा है. इस ट्रेनिंग में उन्हें आचार संहिता की बारीकियों के बारे में समझाया गया है - कहां तक दखल देना है और कहां नहीं.
आधी आबादी का बोलबाला...
पाकिस्तान के चुनावी इतिहास में ज्यादातर ऐसे ही मौके आये हैं जब चुनी हुई सरकार को हटाकर फौज ने सत्ता पर कब्जा जमा लिया है. ये दूसरा मौका है जब पाकिस्तान में गैर-सैन्य शासन की ओर सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया बढ़ रही है.
महिलाओं के लिए 60 सीटें...
पाक संसद की कुल 342 सीटों में से 60 महिलाओं और 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं. इस बार 91 लाख महिलाएं पहली बार वोटिंग करेंगी.
फौज की स्ट्रैटेजी इस बार इतनी फूल-प्रूफ नजर आ रही है कि बाहर तो सारे इंतजाम हो ही रखे हैं - वोटिंग के वक्त भीतर भी फौज की तैनाती होने का मतलब ये है कि लोकतंत्र का कोई सियासी परिंदा भी पर न मार सके.
पूरा चुनावी माहौल कुछ ऐसा है जैसे लगे कि पाकिस्तान में इस बार डेमोक्रेटिक फ्लेवर वाली फौजी हुकूमत आने वाली है. थोड़ा सीधे और सपाट शब्दों में कहें तो इस बार पाकिस्तान को भी 'ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' मिलने वाला है.
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