Peshawar Blast: मस्जिद के भीतर मुसलमानों का मुसलमानों के द्वारा कत्लेआम!
पेशावर की मस्जिद में हुए बम धमाकों में 90 लोगों की मौत के बाद तमाम तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं. तमाम बातें एक तरफ.सवाल ये है कि मस्जिद में नमाज पढ़ते मोमिनों को नमाज में ही बम से उड़ाने वाले सुसाइड बॉम्बर को जन्नत में हूर वगैरह मिलेगी या नहीं? क्योंकि ये काम तो उसने अल्लाह का नाम लेकर ही किया है.
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तहरीक-ए-तालिबान के आत्मघाती हमले में पेशावर की मस्जिद में जमा 90 नमाजी अल्लाह को प्यारे हो गए. इस पर पत्रकार हामिद मीर ट्वीट करते हैं कि 'मस्जिद पर हमला करने वाले को मुसलमान कैसे कहा जा सकता है? एक इस्लामिक देश में मस्जिद को मुसलमान से ही खतरा है, बजाए काफिर के?'
کیا مسجد پر حملہ کرنے والا مسلمان کہلا سکتا ہے؟ مسلمانوں کے ملک میں مسجدوں کو کافروں کی بجائے مسلمانوں سے خطرہ کیوں؟ https://t.co/HrLggJYCUa
— Hamid Mir (@HamidMirPAK) January 30, 2023
हो सकता है किसी आम पाकिस्तानी को हामिद मीर द्वारा कही ये बातें ज्यादती लगें. लेकिन इतिहास गवाह है कि मुसलमानों को सबसे ज्यादा खतरा मुसलमानों से ही रहा है. इमाम हुसैन के हत्यारों से लेकर पेशावर की मस्जिद में बम के साथ फट जाने वाले हमलावर तक, सब मुसलमान रहे हैं. इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान का तो आधा निजाम मिलिट्री चलाती है, और बचे आधे पर जब आतंकियों का कब्ज़ा हो, तो वहां कुछ भी संभव है. अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान अपने को कितना भी मजबूर और मजलूम क्यों न दिखा ले. लेकिन मुल्क में इस्लामिक कट्टरपंथ का लेवल क्या है? इसे पेशावर की मस्जिद में हुए आत्मघाती हमले से समझ सकते हैं. जिस जगह ये मस्जिद है वो कोई साधारण जगह नहीं है. तमाम बड़े सरकारी ऑफिसों के अलावा ये जगह पुलिसवालों के गढ़ के रूप में अपनी पहचान रखती है और हाई सिक्योरिटी जोन है. ऐसी जगह पर यदि हमला हो रहा है और टारगेट मुसलमान बनाए जा रहे हैं तो सवाल भी उठेंगे और बातें भी होंगी. खासतौर पर तब, जब हमलावर खुद मुसलमान है, बम को मस्जिद तक पहुंचाने वाला मुसलमान है, घटनास्थल मस्जिद है, मरने वाले मुसलमान है, और ये सब मुसलमानों के देश में हुआ है.
पाकिस्तान में मस्जिदों में अगर एक मुसलमान दूसरे मुस्लमान को मार रहा है तो इसकी बड़ी वजह उसकी अपनी नीतियां हैं
अब आइये, पेशावर ब्लास्ट कराने वालों के बारे में बात करते हैं. पिछले साल अगस्त में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के कमांडर उमर खालिद खुरासानी को मार गिराया था. पाकिस्तान सुरक्षा बालों की इस कार्रवाई का बदला लेने की बात तब टीटीपी ने की थी. अब खुरासानी के भाई ने हमले की जिम्मेदारी ली है. पेशावर हमला टीटीपी द्वारा किया गया अब तक का सबसे बड़ा हमला है, और निशाने पर पुलिस लाइन में रहने वाले सुरक्षाकर्मी ही थे. लेकिन, सवाल उठता है कि हमलावर ने मुसलमान होते हुए मस्जिद को वारदात के लिए क्यों चुना?क्योंकि घटना दोपहर की नमाज के समय हुई. और जानकारी तो यहां तक मिली है, आतंकियों की मदद पुलिस लाइन के लोगों ने ही की, तभी वे मस्जिद तक सिक्योरिटी की चार लेयर को भेद पाए.
Defense Minister @KhawajaMAsif claimed that someone from inside the police lines Peshawar facilitated the suicide bomber who killed more than 50 people in a Mosque pic.twitter.com/pcDnio8bSX
— Hamid Mir (@HamidMirPAK) January 30, 2023
पाक प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ का इस हमले को लेकर बयान उनकी मजबूरी से ज्यादा कुछ नहीं लगता है. उनका कहना है कि 'हमलावरों का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है.' लेकिन, उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि अल्लाहु अकबर का नारा लगाकर जो शख्स आत्मघाती हमला करता है, उसका इस्लाम से नाता कैसे झुठलाया जा सकता है? और वैसे भी ज्यादा दिन नहीं बीते जब इमरान खान ने टीटीपी से संबंध मधुर बनाते हुए 2014 में पेशावर आर्मी पब्लिक स्कूल के हमलावर को रिहा कर दिया था, जिसने करीब 140 बच्चों की जान ली थी. शाहबाज शरीफ मजबूर इसलिए है कि दुनिया में फैले इस्लामिक आतंकवाद को जब वे 'इस्लामोफोबिया' बता रहे हैं, तो अपने देश में हुए आतंकी हमले को वे इस्लाम से जुड़ा कैसे मान सकते हैं?
घटना क्योंकि मस्जिद में हुई है इसलिए कहने और बताने को कई बातें हैं. ऐसे में तमाम सवाल भी खड़े हो रहे हैं. जैसा कि क्लेम होता है पाकिस्तान अपने को मुस्लिम राष्ट्र बताता है ऐसे में हम मुल्क के हकीमों और धर्मगुरुओं से इतना जरूर पूछना चाहेंगे कि मस्जिद में नमाज पढ़ते मोमिनों को नमाज में ही बम से उड़ाने वाले सुसाइड बॉम्बर को जन्नत में हूर वगैरह मिलेगी या नहीं?
इस हमले को जिहाद की संज्ञा दुइ जाएगी या नहीं? ये सवाल इसलिए भी क्योंकि पाकिस्तान जैसे देश में चाहे वो मरने वाला हो या फिर मारने वाला दोनों हीअपने को मोमिन कहते हैं. ऐसे में अगर एक मोमिन दूसरे मोमिन को मार रहा है तो फिर बातें कितनी भी क्यों न हो जाएं लेकिन कहलाएगा ये गुनाह ए अजीम ही.
टीटीपी लाना चाहता है पाकिस्तान में शरिया निजाम
पेशावर का धमाका इस्लामिक कट्टरपंथ का ऐसा दुष्चक्र है, जिसके रुकने का कोई समय नहीं है. जरा याद करिये कि इसी इ्रस्लाम का नाम लेकर 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की नींव रखी. और फिर उसके हुक्मरानों ने जो निजाम कायम किया, उसमें हिंदुओं, ईसाइयों का जीना हराम हो गया. अंधाधुंध जबरन धर्म परिवर्तन कराए गए. जो नहीं माना, उसे ईशनिंदा कानून में फंसा दिया गया. काफिर होने की लानत झेल रहे लोगों की लगता है कि अल्लाह ने ही सुन ली. अब तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान यानी टीटीपी खुद को इस्लाम का असली पैरोकार बताता है. और जिन्ना के मुल्क की पहरेदारी में लगे लोग उसके लिए काफिर हैं. जिन्हें मस्जिद में भी मारा जा सकता है. टीटीपी पाकिस्तान ने कट्टर इस्लामिक कानून लाना चाहती है. कह सकते हैं कि जिन्ना सेर थे, तो टीटीपी सवा सेर निकल गई है. शाहबाज शरीफ भले टीटीपी वालों को इस्लामिक न मानें, लेकिन टीटीपी की नजर में इस्लामिक रिपब्लिक वाले लोग और उनकी फौज 'काफिर' ही है, और उनकी मस्जिद को उड़ा दिया जाना 'हलाल' काम है. क्या धार्मिक कट्टरपंथ को लेकर पाकिस्तान अपने गिरेबां में झांकेगा?
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