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Updated: 08 जून, 2018 01:26 PM
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पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम जो कुछ भी कहा वो सही मायने में उनके 'मन की बात' समझी जानी चाहिये. राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर फोकस प्रणब मुखर्जी के भाषण में हर किसी के लिए कुछ न कुछ मैसेज है. यही वजह है कि संघ समर्थक, बीजेपी नेता और कांग्रेसी सभी अपने अपने हिसाब से प्रणब मुखर्जी के भाषण को अपने मन माफिक बता रहा है - दलगत राजनीति से ऊपर उठ चुके किसी शख्सियत के लिए भला इससे खूबसूरत बात क्या हो सकती है.

कांग्रेस नेता जहां प्रणब के भाषण में कांग्रेस की पूरी आइडियोलॉजी देख पा रहे हैं, वहीं बीजेपी वाले संघ की विचारधारा पर मुहर बताते नहीं थक रहे हैं - और वैचारिक ट्रांसफॉर्मेशन के दौर से गुजर रहे सुधींद्र कुलकर्णी जैसे लोग, जो लालकृष्ण आडवाणी के सहयोगी रह चुके हैं, पूर्व राष्ट्रपति की बातें सुनने के बाद उन्हें भारत रत्न देने की मांग करने लगे हैं.

प्रणब मुखर्जी की बातों पर ध्यान दें तो मालूम होता है कि बड़ी ही संजीदगी के साथ वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म की याद भी दिला रहे हैं - और कांग्रेस को भी आगाह कर दे रहे हैं कि संघ की विचारधारा को खारिज करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है, कम से कम फिलहाल तो निश्चित रूप से. राहुल गांधी को इसके लिए न तो छुट्टी लेने की जरूरत है - और न ही कैलाश मानसरोवर, वो कहीं भी बैठे बैठे इस पर आत्ममंथन कर सकते हैं. बेहतर होता भिवंडी कोर्ट में अगली तारीख से पहले कर लेते.

'संघ अछूत तो नहीं...'

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में अपना नजरिया तो पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विजिटर बुक में अपनी टिप्पणी में ही साफ कर दिया था. संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के जन्मस्थान पहुंचे प्रणब मुखर्जी ने विजिटर बुक में लिखा, "आज मैं यहां भारत माता के एक महान सपूत के प्रति अपना सम्मान जाहिर करने और श्रद्धांजलि देने आया हूं."

pranab mukherjeeभारत माता के महान सपूत को सम्मान देते पूर्व राष्ट्रपति'

प्रणब मुखर्जी के भाषण से पहले आयी टिप्पणी से साफ हो चुका था कि वो कांग्रेस नेतृत्व को भी साफ कर देना चाहते हैं कि संघ अछूत नहीं है. तो क्या कांग्रेस के 'बुराड़ी सम्मेलन' में प्रणब मुखर्जी ने संघ के लिए 'आंतकवादियों से रिश्ते रखने' वाली जो बात कही थी वो तब उनके कांग्रेस में होने की मजबूरी थी? 'मन की बात' बिलकुल नहीं? प्रणब मुखर्जी के ताजा भाषण से तो एकबारगी ऐसा ही लगता है. मुमकिन है, केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज को करीब से देखने के बाद भी प्रणब मुखर्जी की ये राय बनी हो!

प्रणब मुखर्जी से पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी लंबा भाषण दिया. मोहन भागवत ने जो तमाम बातें कहीं उनमें दो खास तौर पर उल्लेखनीय हैं - एक, संघ सिर्फ हिंदुओं का संगठन नहीं है - और दो, संघ के संस्थापक हेडगेवार भी कांग्रेस के आंदोलन में जेल गये थे. साथ ही, प्रणब मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में शिरकत पर मचे बवाल को बेवजह चर्चा बताया. भागवत ने भी पूरी साफगोई से कहा - 'संघ भी संघ ही रहेगा और प्रणब भी प्रणब ही रहेंगे. किसी के लिए कोई बदलने नहीं जा रहा है.' कुर्ता धोती पहने पहुंचे प्रणब मुखर्जी और मोहन भागवत का संघ के प्रार्थना के वक्त खड़े होने का अंदाज भी यही तस्वीर दिखा रहा था. आखिर में प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित करते हुए बताया कि वो अंग्रेजी भाषा में बोलेंगे और 'कान देकर सुनिये तो समझ में भी आएगा'.

pranab mukherjee, mohan bhagwat'संघ संघ ही रहेगा और प्रणब भी प्रणब!''

प्रणब मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में शामिल होने को लेकर कांग्रेस ने विरोध में कोई कसर बाकी न रखी, ख्याल बस इस बात का रखा गया कि आखिर में एक डिस्क्लेमर जरूर लगाये रखा - आधिकारिक तौर पर 'नो कमेंट्स'. जिस तरीके से बीजेपी ने सीनियर नेता यशवंत सिन्हा के खिलाफ मोर्चे पर उनके बेटे और केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा को तैनात किया था, ठीक उसी अंदाज में कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा को आगे कर दिया. शर्मिष्ठा ने भी पिता के फैसले को कठघरे में खड़ा करने के लिए संघ और बीजेपी के प्रोपेगैंडा पॉलिटिक्स को आधार बनाया. शर्मिष्ठा के ट्वीट को रीट्वीट करते हुए अहमद पटेल ने एक और टिप्पणी जड़ दी - प्रणब दा, आपने ठीक नहीं किया. कांग्रेस का यही अनौपचारिक स्टैंड रहा.

प्रणब मुखर्जी के भाषण के बाद भी शर्मिष्ठा अपने स्टैंड पर कायम रहीं, कहा - जिस बात का डर था वही हुआ. शर्मिष्ठा के भाई और प्रणब के बेटे और पश्चिम बंगाल के जंगीपुर से कांग्रेस सांसद अभिजीत मुखर्जी की टिप्पणी रही - 'नो कमेंट्स इज माई कमेंट'.

जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी को लेकर संघ के ख्यालात हमेशा नकारात्मक रहे हैं. मोदी सरकार में गांधी-गांधी होता तो खूब है, लेकिन सुनने को ये भी मिलता है कि नेहरू की जगह अगर सरदार वल्लभ भाई पटेल को देश का नेतृत्व सौंपा गया होता तो तस्वीर और होती. प्रणब मुखर्जी ने संघ को उसी के मंच पर चढ़ कर बता दिया कि गांधी और नेहरू के विचारों को कभी भी और कोई भी खारिज नहीं कर पाएगा.

pranab mukherjeeतो ये 'संघम् शरणम्...' भी नहीं है!

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उद्धृत करते हुए प्रणब मुखर्जी ने याद दिलायी कि भारतीय राष्ट्रवाद में हर तरह की विविधता के लिए जगह है, बोले भी - "हम समहत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं लेकिन हम वैचारिक विविधता को दबा नहीं सकते."

राजधर्म तो निभाना ही होगा

प्रणब मुखर्जी ने मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक का जिक्र किया और ह्वेनसांग-फाह्यांग की बातें भी - और लब्बोलुआब यही रहा कि हर किसी ने हिंदू धर्म की तारीफ की है. फिर भी पूर्व राष्ट्रपति का जोर इस बात पर रहा कि सहिष्णुता ही हमारी राष्ट्रीय पहचान है - और असहिष्णुता से ये धूमिल हो जाती है. प्रणब मुखर्जी ने कहा, "50 सालों से ज़्यादा के सार्वजनिक जीवन बिताने के बाद मैं कह रहा हूं कि बहुलतावाद, सहिष्णुता, मिलीजुली संस्कृति, बहुभाषिकता ही हमारे देश की आत्मा है." यानी कुछ भी हो जाये संघ और उसकी विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले ये बात हमेशा याद रखें.

पूर्व राष्ट्रपति ने आगाह किया कि नफरत और असहिष्णुता से हमारी राष्ट्रीय पहचान खतरे में पड़ेगी - और 'भारत के राष्ट्रवाद में सारे लोग समाहित हैं. इसमें जाति, मजहब, नस्ल और भाषा के आधार पर कोई भेद नहीं है.'

लोकतांत्रिक मूल्यों और शासन सत्ता की खूबियों के जिक्र में प्रणब मुखर्जी ने कौटिल्य से लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन के विचारों का उल्लेख करते हुए समझाने की कोशिश की कि किसी भी शासक के लिए राजधर्म की अहमियत क्या होती है. राजधर्म में लोक कल्याण और लोकतंत्र लोगों के लिए, लोगों से और लोगों का ही होना चाहिये.

निश्चित रूप से ये बातें फिलहाल तो सीधे सीधे प्रधानमंत्री मोदी के लिए ही लगती हैं. वैसे भी जब कभी राजधर्म की बात होती है, जबान पर नाम मोदी का ही आता है और दिमाग में छवि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की उभरती है. गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म की बातें याद दिलाने की कोशिश की थी - और प्रणब मुखर्जी के भाषण में भी इसकी साफ झलक दिखायी दी.

प्रणब मुखर्जी ने व्यावहारिक चीजों के लिए प्रतीकों का इस्तेमाल किया और काफी हद तक यही समझाने की कोशिश की कि राष्ट्रवाद को कभी भी न तो श्मशान और कब्रिस्तान की बहस में उलझाना चाहिये और न ही चुनावी फायदे के लिए जिन्ना जैसे सिंबल लंबे अरसे तक काम आ सकते हैं. राष्ट्रपति रहते भी प्रणब मुखर्जी ने दादरी में अखलाक की हत्या के बाद इन्हीं मुद्दों की ओर इशारा किया था और तब चुप्पी तोड़ते हुए मोदी भी समझा गये थे कि 'जो महामहिम कह रहे हैं उसी को ब्रह्मवाक्य समझिये और इस मामले में मोदी की भी मत सुनिये'. लगता है प्रणब मुखर्जी ने मोदी को फिर से उन्हीं बातों के जरिये राजधर्म की याद दिलायी है. तो क्या ये समझना चाहिये कि गोरक्षा के नाम पर न तो उत्पात चलेगा और न ही विरोध के नाम पर बयान भर देना काफी होगा - सही मायने में ऐसे तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई जरूरी है.

pranab mukherjeeकुर्ता-धोती में प्रणब मुखर्जी, ताकि गणवेष के साथ कोई गफलत न हो...

तमाम बातों के अलावा प्रणब मुखर्जी के भाषण से एक बात और साफ है - 2019 के लिए संघ और बीजेपी का 'संपर्क फॉर समर्थन' अभियान सही दिशा में जा रहा है. समाज में राय बनाने वाले संघ को अब तक भले ही किसी मजबूरी में नकारते रहे हों - आगे से वे सभी संघ के प्रचारक की ही भूमिका में होंगे - और अभियान की ये बड़ी कामयाबी है.

कभी भी जीत हासिल करने का मतलब समर्थन पा लेना ही जरूरी नहीं होता. विरोध को खत्म करना भी इस हिसाब से जीत की ही कैटेगरी में आता है. प्रणब मुखर्जी को नागपुर बुलाकर संघ ने इस मामले में बाजी तो मार ही ली है.

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