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Updated: 19 जून, 2017 02:52 PM
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अब भले रामनाथ कोविंद एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हो गये हैं लेकिन सोचिये कहानी क्या होती जब बीजेपी नेताओं को सोनिया अपनी राजनीति के दांव से चित्त कर देतीं. ये अलग बात है कि दांव लगाने से चूक गई सोनिया.

अगले राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तय करने की कवायद में जब बीजेपी के आला नेता सोनिया गांधी की ड्योढ़ी पर पहुंचे तो सोनिया ने पहले बीजेपी से पत्ते खोलने को कहा था. सोनिया बस इतना कह देतीं "हम तो बस 'लालजी' को चाहते हैं" तो क्या होता. कांग्रेस राजनीति के कमान पर ये 'रामबाण' चलाती. बीजेपी के दधीचि की अस्थियों के वज्र से अचूक प्रहार कर एनडीए को चारों खाने चित्त कर देतीं. सोनिया को बस ये कहना था कि भई, कांग्रेस तो लाल कृष्ण आडवाणी की उम्मीदवारी का समर्थन करेगी. फिर देखते बीजेपी के रंग-ढंग चाल-ढाल सब कैसे बदल जाते. माथे पर पसीने आते, उधर पार्टी के दधीचि खुद हाथ मलते हुए मुस्कुराते... सयानी सोनिया की राजनीति का रंग जम जाता.

sonai gandhi

लेकिन ऐसा हुआ नहीं, अब तो विपक्ष के मोर्चे में भी दरारें साफ दिखने लगी हैं. सोनिया की इस तोप से एनडीए के किले में भी दरारें पड़ सकती थीं. ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति पद पर उम्मीदवारी को लेकर इस तरह की राजनीति पहले नहीं हुई हो. देश के सर्वोच्च पद के लिए आम सहमति तो सिर्फ एक बार ही बन पाई. 1977 में जनता पार्टी सरकार के दौरान नीलम संजीव रेड्डी अब तक के इतिहास में पहली और आखिरी बार ही निर्विरोध राष्ट्रपति बने. इसके अलावा अब तक राष्ट्रपति पद के लिए 14 में से तेरह नियुक्तियां चुनाव के जरिये ही हुईं. कभी मुकाबला कड़ा हुआ तो कभी एकतरफा.

दांव पेंच की बात करें तो 1969 में इंदिरा गांधी ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ बगावत कर पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी से अलग निर्दलीय उम्मीदवार वीवी गिरी को समर्थन दिया. कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार रेड्डी चुनाव हार गये और कांग्रेस के इंदिरा गांधी वाले धड़े इंडिकेट के समर्थन से गिरी चुनाव जीते. गिरी को तब चार लाख एक हजार मत मिले थे और रेड्डी का नतीजा तीन तेरह हो गया. यानी उनको मिले तीन लाख 13 हजार वोट.

ये अलग बात है कि इस चुनाव में कांटे की टक्कर में हार के दस साल बाद 1979 में रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति नियुक्त किये गये.

यानी यही तो राजनीति है. राजनीति टाइमिंग को परखने और बरतने का ही नाम है. समय की चाल के मुताबिक ही हर पल बदलता रहता है राजनीति का चेहरा और चरित्र भी. राजनीति की राह पर सही समय पर चूक गये तो यू टर्न बहुत मुश्किल से आता है. या कहें तो नहीं ही आता. हां अगले मौके का इंतजार जरूर कर सकते हैं, लेकिन तब दांव दूसरा लगाना पड़ेगा.

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लेखक

संजय शर्मा संजय शर्मा @sanjaysharmaa.aajtak

लेखक आज तक में सीनियर स्पेशल कॉरस्पोंडेंट हैं.

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